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नवम अध्याय |
सकती और न शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति और निराकुलतारूप सुख ही मिल सकता, अतः बुद्धिमानोंको चाहिये कि वे इन सब बातों पर भले प्रकार विचार कर आत्माके चितवन आदि कार्योंमें अच्छी तरह यत्न करे ।
भावार्थ:- आत्माकी ओर ध्यान लगानेसे विशदमतिभेदविज्ञानको प्राप्ति होती है । भेदविज्ञानसे शुद्धचिद्रूपका लाभ और उससे फिर निराकुलतारूप सुखका प्राप्ति होती है; परंतु जब तक धर्मकार्य, पुस्तकें और उनकी कीत्ति आदिकी रक्षा में व्यग्रता रहेगी तब तक उपयुक्त एक भी बातकी प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये जिन महाशयोंको शुद्धचिद्रूप आदि पदार्थोंकी प्राप्तिकी अभिलाषा है उन्हें चाहिये कि वे शांतिचित्त हो परमार्थं प्रयत्न करें ।। १२ ।।
अहं भ्रांतः पूर्वं तदनु च जगत् मोहवशतः परद्रव्ये चितासतत करणादाभवमहो । परद्रव्यं मुक्त्वा विहरति चिदानन्दनिलये निजद्रव्ये यो वै तमिह पुरुषं चेतसि दधे ।। १३ ।।
अर्थः- मोहके फंदमें पड़कर पर द्रव्योंकी चिन्ता और उन्हें अपनानेसे प्रथम तो मैंने संसार में परिभ्रमण किया और फिर मेरे पश्चात् यह समस्त जनसमूह् घूमा, इसलिये जो महापुरुष परद्रव्योंसे ममता छोड़कर चिदानन्दस्वरूप निज द्रव्य में विहार करनेवाला है—निज द्रव्यका ही मनन, स्मरण, ध्यान करनेवाला है, उस महात्माको मैं अपने चित्तमें धारण करता हूँ ।
भावार्थ:-- इस संसार में सबसे बलवान मोहनीय कर्म है और उसके फंदे में पड़कर जीव नाना प्रकारके क्लेश भोगते
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