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सातवाँ अध्याय ]
[ ६९
- जिस प्रकार व्यवहारनयसे शुद्ध सोना भी अन्य द्रव्य के मेलसे अशुद्ध और वही निश्चयनयसे शुद्ध कहा जाता है, उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप भी कर्म आदि निकृष्ट द्रव्योंके सम्बन्धसे व्यवहारनयकी अपेक्षा अशुभ अशुद्ध कहा जाता है और वही शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा शुद्ध कहा जाता है ।
अर्थ
-:
भावार्थ : - वस्तु जैसी होती है वह वैसी ही रहती है उसमें शुद्धता - अशुद्धता नहीं हो सकती; परन्तु व्यवहारसे दूसरी वस्तुके मेलसे वह अशुद्ध कही जाती है । जिस प्रकार सोना कभी शुद्ध अशुद्ध नहीं हो सकता, वह वही रहता है; परन्तु किसी उसके मिलतऊ पदार्थ के मेल हो जानेसे व्यवहारसे उसे अशुद्ध कहते हैं और निश्चयनयसे शुद्ध भी कहते हैं, उसीप्रकार चिद्रूप भी कर्म आदिके संबंध के कारण व्यवहारसे अशुद्ध कहा जाता है; परन्तु वह वास्तव में शुद्ध ही है ।। १०-११ ।।
बाह्यांतरन्यसंपर्कों
येनांशेन वियुज्यते ।
तेनांशेन विशुद्धिः स्याद् चिद्रपस्य सुवर्णवत् ॥ १२ ॥
अर्थ : - जिस प्रकार स्वर्ण बाहर भोतर जितने भी अंश अन्य द्रव्यके संबंधसे छूट जाता है तो वह उतने अंशमें शुद्ध कहा जाता है, उसीप्रकार चिद्रूपके भी जितने अंशसे कर्म - मलका संबंध नष्ट हो जाता है । उतने अंशमें वह शुद्ध कहा जाता है ।। १२ ।।
शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानपर्वतारोहणं सुधीः ।
कुर्वन् करोति सुदृष्टिर्व्यवहारावलंबनं ॥ १३ ॥
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