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[तत्त्वज्ञान तरंगिणी पुनः पुत्र आदि की प्राप्तिसे अपने जन्मको कृतार्थ मानने लग जाता है । मुझे संसारके चरित्रके भले प्रकार ज्ञानसे इनको प्राप्तिसे किसी प्रकारका संतोष नहीं होता, इसलिये मैं भेदविज्ञानसे हो अपना जन्म कृतार्थ मानता हूँ ।। ६ ।।
तावत्तिष्ठति चिद्भूमौ दुर्भेद्याः कर्मपर्वताः ।
भेदविज्ञानवनं न यावत्पतति मूर्द्धनि ॥ ७ ॥
अर्थः-आत्मारूपी भूमिमें कर्मरूपी अभेद्य पर्वत, तभी तक निश्चलरूपसे स्थिर रह सकते हैं जब तक भेदविज्ञानरूपी वज्र इनके मस्तक पर पड़ कर इन्हें चूर्ण-चूर्ण नहीं कर डालता ।
भावार्थ:-जब तक भेदविज्ञान नहीं होता तभी तक कर्म आत्माके साथ लगे रहते हैं; परन्तु भेदविज्ञान होते ही कर्म एकदम नष्ट हो जाते हैं ।। ७ ।।
दुर्लभोऽत्र जगन्मध्ये चिद्रूपरुचिकारकः । ततोऽपि दुर्लभं शास्त्रं चिद्रपप्रतिपादकं ॥ ८ ॥ ततोऽपि दुर्लभो लोके गुरुस्तदुपदेशकः । ततोऽपि दुर्लभं भेदज्ञानं चिंतामणियथा ॥ ९ ॥
अर्थः ---जो पदार्थ चिद्रूपसे प्रेम करानेवाला है वह संसारमें दुर्लभ है उससे भी दुर्लभ चिद्रूपके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र है । यदि शास्त्र भी प्राप्त हो जाय तो चिद्रूपके स्वरूपका उपदेशक गुरु नहीं मिलता, इसलिये उससे गरुकी प्राप्ति दुर्लभ है । गुरु भी प्राप्त हो जाय तो भी जिस प्रकार चिन्तामणि रत्नकी प्राप्ति दुर्लभ है, उसीप्रकार भेदविज्ञानकी प्राप्ति भी दुष्प्राप्य है ।
भावार्थः-प्रथम तो चिद्रूपके ध्यानमें रुचि नहीं होती
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