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आठवाँ अध्याय ]
[८१ चिद्रपच्छादको मोहरेणुराशिन बुध्यते ।
क्व यातीति शरीरात्मभेदज्ञानप्रभंजनात् ॥ १६ ॥
अर्थः-शरीर और आत्माके भेदविज्ञानरूपी महापवनसे चिद्रूपके स्वरूपको ढंकनेवाली मोहकी रेणुयें न मालूम कहाँ किनारा कर जाती है ?
भावार्थ:-जिस प्रकार जब तक बलवान पवन नहीं चलता तभी तक घूलिके रेणु इकठे रहते हैं; किन्तु पवनके चलते ही उनका पता नहीं लगता । उसी प्रकार जब तक शरीर और आत्माका भेदविज्ञान नहीं होता-वे भिन्न भिन्न नहीं जान लिये जाते तभी तक मोहका पर्दा आत्माके ऊपर पड़ा रहता है; परन्तु भेदविज्ञानके प्राप्त होते ही वह एकदम लापता हो जाता है ।। १६ ।।
भेदज्ञानं प्रदीपोऽस्ति शुद्धचिद्रपदर्शने ।
अनादिजमहामोहतामसच्छेदनेऽपि च ॥ १७ ॥
अर्थः-यह भेदविज्ञान, शुद्धचिद्रूपके दर्शन में जाज्वल्यमान दीपक है और अनादिकालसे विद्यमान मोहरूपी प्रबल अंधकारका नाश करनेवाला है ।
भावार्थ:-जिस प्रकार दीपकसे घट पट आदि पदार्थ स्पष्ट रूपसे दिखते हैं और अंधकारका नाश हो जाता है, उसीप्रकार भेदविज्ञानसे शुद्धचिद्रूपका भले प्रकार दर्शन होता है और मोहरूपी गाढ़ अंधकार भी बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है ।। १७ ।।
भेदविज्ञाननेत्रेण योगी साक्षादवेक्षते ।
सिद्धस्थाने शरीरे वा चिद्रूपं कर्मणोज्झितं ॥ १८ ॥ त. ११
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