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आठवां अध्याय । यदि रुचि हो जाय तो चिद्रूपके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र नहीं मिलता कदाचित् शास्त्र प्राप्त हो जाय तो उसका उपदेशक गुरु नहीं प्राप्त होता गुरुकी प्राप्ति हो जाय तो भेद विज्ञानकी प्राप्ति जल्दी नहीं होती, इसलिये भेद विज्ञानकी प्राप्ति सबसे दुर्लभ है ।। ८-९ ।।
भेदो विधीयते येन चेतनादेहकर्मणोः । तज्जातविक्रियादीनां भेदज्ञानं तदुच्यते ॥ १० ॥
अर्थः - जिसके द्वारा आत्सासे देह और कर्मका तथा देह एवं कमसे उत्पन्न हुई विक्रियाओंका भेद जाना जाय उसे भेदविज्ञान कहते हैं ।। १० ।।
स्वकीयं शुद्धचिद्रूपं भेदज्ञानं विना कदा । तपःश्रुतवतां मध्ये न प्राप्त केनचित् क्वचित् ॥ ११ ॥
अर्थः- शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति, बिना भेदविज्ञानके कदापि नहीं हो सकती, इसलिये तपस्वी या शास्त्रज्ञ किसी महानुभावने बिना भेदविज्ञानके आजतक कहीं भी शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति न कर पाई और न कर ही सकता है । जिसने शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति की है उसने भेदविज्ञानसे ही की है ।। ११ ।।
क्षयं नयति भेदज्ञश्चिद्रूपप्रतिघातकं ! क्षणेन कर्मणां राशिं तुणानां पावको यथा ॥ १२ ॥
अर्थः-जिस प्रकार अग्नि देखते देखते तृणोंके समूहको जलाकर खाक कर देती है, उसीप्रकार जो भेदविजानी है वह शुद्धचिद्रूपको प्राप्तिको नाश करनेवाले कम समूहको क्षणभर में समूल नष्ट कर देता है ।। १२ ।।
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