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आठवाँ अध्याय ]
[ ७७ अपने चित्तको द्रव्य आदिकी चिन्ताकी ओर नहीं झुकने देते ॥ ४ ॥
नात्मध्यानात्परं सौख्यं नात्मध्यानात् परं तपः । नात्मध्यानात्परो मोक्षपथः क्वापि कदाचन ॥ ५ ॥
अर्थः-- ( क्योंकि ) इस आत्मध्यानसे बढ़कर न तो कहीं किसी कालमें कोई सुख है, न तप है और न मोक्ष ही है अर्थात् जो कुछ है सो यह आत्मध्यान ही है, इसलिये इसीको परम कल्याणका कर्ता समझना चाहिये ।। ६ ।।
केचित्प्राप्य यशः मुखं वरवधू रायं सुतं सेवक स्वामित्वं वरवाहनं वलसुहृत्पांडित्यरूपादिकं । मन्यते सफलं स्वजन्म मुदिता मोहाभि भूता नरा
मन्येऽहं च दुरापयात्मवपुषोज्ञप्त्या भिदः केवलं ॥ ६ ॥
अर्थः-मोहके मदमें मत्त बहुतसे मनुष्य कीत्ति प्राप्त होनेसे ही अपना जन्म धन्य समझते हैं । अनेक इन्द्रियजन्यसुख, सुन्दर स्त्री, धन, पुत्र, उत्तम सेवक, स्वामीपना और उत्तम सबारीयोंकी प्राप्तिसे अपना जन्म सफल मानते हैं और बहुतोंको बल, उत्तम मित्र, विद्वत्ता और मनोहररूप आदिकी प्राप्तिसे संतोष हो जाता है; परन्तु मैं आत्मा और शरीरके भेद विज्ञानसे अपना जन्म सफल मानता हूँ ।
भावार्थ:-यह जीव अनादिकालसे इस संसारमें घूम रहा है । कई बार इसे कोति, सुख, उत्तम स्त्री, धन, पुत्र और सेवक प्राप्त हो चुके हैं । बहुत बार यह स्वामी-राजा भी हो गया है । इसे उत्तम सवारी, बल, मित्र, विद्वान और रूप आदिकी भी अनेक बार प्राप्ति हो चुकी है; परन्तु मोहके जालमें फँसनेके कारण इसे जरा भी होश नहीं होता और
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