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आठवाँ अध्याय
शुद्धचिपके प्राप्तिके लिये भेदज्ञानकी आवश्यकताका वर्णन छेत्रीसूचीक्रकचपवनैः सीसकारन्यूषयन्त्र
स्तुल्या पाथः कतकफलवद्धं पक्षिस्वभावा | शस्त्रीजायुस्वधितिसदृशा टंकवैशाखबद्वा प्रज्ञा यस्योद्भवति हि भिदे तस्य चिदुपलब्धिः ॥ १ ॥
अर्थ :- जिस महानुभावकी बुद्धि छैनी, सुई, आरा, पवन, सीसा, अग्नि, ऊषयंत्र ( कोलू ), कतकफल ( फिटकरी ), हंसपक्षी, छुरी, जायु, दांता, टांकी और वैशाखके समान जड़ और चेतनके भेद करनेमें समर्थ हो गई है, उसी महानुभावको चिद्रूपकी प्राप्ति होती है ।
भावार्थ:- जिस प्रकार छैनी, सुई, आरा मिले हुये पदार्थ के दो टुकड़े कर देते हैं, पवन गंधको जुदा उड़ाकर ले जाता है, सीसा सोने चांदीको शुद्ध कर देता है, अग्नि - सोना आदिको मैलसे शुद्ध कर देती है, कोलू - ईखके रसको जुदा कर देता है और छुरी आदि मिले हुये पदार्थ के कर डालते हैं, उसीप्रकार जिस महानुभावकी बुद्धिने भी अनादिकालसे एकमेक जड़ और चेतनको जुदा-जुदा कर पहचान लिया है, वही चिद्रूपका लाभ कर सकता है अन्य नहीं ||१|
टुकड़े टुकड़े
स्वर्ण पाषाणसूताद्वसनमिवमलात्ताम्ररूप्यादि हेम्नो
वा लोहादग्निरिक्षो रस इह जलवक र्दमात्के किपक्षात् । ताम्रं तैलं तिलादेः रजतमिव किलोपायतस्ताम्रमुख्यात् । दुग्धान्नीरं घृतं च क्रियत इव पृथक् ज्ञानिनात्मा शरीरात् ॥ २॥
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