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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी है; किन्तु स्वर्ग-देवेन्द्र आदि पदोंमें विद्यमान आत्माको स्वस्थ नहीं कह सकते ।।१२।।
निश्चलः परिणामोऽस्तु स्वशुद्धचिति मामकः । शरीरमोचने यावदिव भूमौ सुराचलः ॥१३।।
अर्थ :-जिस प्रकार पृथ्वी में मेरु पर्वत निश्चलरूपसे गढ़ा हुआ है जरा भी उसे कोई हिला-चला नहीं सकता उसीप्रकार मेरी भी यही कामना है कि जब तक इस शरीरका संबंध नहीं छूटता तब तक इसी आत्मिक शुद्धचिद्रपमें मेरा भी परिणाम निश्चलरूपसे स्थित रहे, जरा भी इधर उधर न भटके ।।१३।।
सदा परिणतिर्मेऽस्तु शुद्धचिपकेऽचला । अष्टमीभूमिकामध्ये शुभा सिद्धशिला यथा ॥१४॥
अर्थ :-जिस प्रकार आठवीं पृथ्वी मोक्षमें, अत्यन्त शुभ सिद्धशिला निश्चलरूपसे विराजमान है उसीप्रकार मेरी परिणति भी इस शुद्धचिद्रूपमें निश्चलरूपसे स्थित रहे ।।१४।।
चलंति सन्मनींद्राणां निर्मलानि मनांसि न । शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानात् सिद्धक्षेत्राच्छिवा यथा ॥ १५ ॥
अर्थ :-जिस प्रकार कल्याणकारी सिद्धक्षेत्रसे सिद्ध भगवान् किसी रीतिसे चलायमान नहीं होते उसी प्रकार उत्तम मुनियोंके निर्मल मन भी शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे कभी चल-विचल नहीं होते ।।१५।।
मुनीश्वरैस्तथाभ्यासो दृढः सम्यग्विधीयते । मानसं शुद्धचिद्रपे यथाऽन्यतं स्थिरीभवेत् ॥ १६ ॥ अर्थ :- मुनिगण इस रूपसे शुद्ध चिद्रूपके ध्यानका दृढ़
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