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छठा अध्याय ] परन्तु ऐसा कहनेसे मेरा कोई नुकसान नहीं होता क्योंकि ये मनुष्य अज्ञानी हैं-हित-अहितको जरा भी न पहिचाननेवाले हैं । मुझे तो इस बातका पूर्ण निश्चय है कि मैं शुद्धचैतन्यस्वरूप हूँ ।। १ ।।
उन्मत्तं भ्रांतियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूढं च सुप्तं निश्चितं प्राप्तमूच्छ जलवहनगतं बालकावस्थमेतत् । स्वस्याधीनं कृतं वा अहिलगतिगत व्याकुलं मोहधूतः सवं शुद्धात्मदृग्मीरहितमपि जगद् भाति भेदज्ञचित्ते ॥२॥
अर्थ:-जिस समय स्व और परका भेद-विज्ञान हो जाता है उस समय शुद्धात्मदृष्टिसे रहित यह जगत चित्तमें ऐसा जान पड़ने लगता है मानों यह उन्मत्त और भ्रान्त है । इसके दोनों नेत्र बन्द हो गये हैं यह दिग्विमूढ़ हो गया है । गाढ़ निद्रामें सो रहा है । मन रहित असैनी मू से बेहोश और जलके प्रवाहमें बहा चला जा रहा है । वालकके समान अज्ञानी है । मोहरूपी धूर्तीने व्याकुल बना दिया है, बावला और अपना सेवक बना लिया है ।
भावार्थ:-यदि शुद्धात्महप्टिसे देखा जाय तो वास्तवमें यह जगत उन्मत्त, भ्रान्त, मूच्छित, सुप्त और आकुलित आदि है और स्व-परके ज्ञान होनेपर यह ऐसा ही भासने लगता है सो ठीक भी है क्योंकि भेदविज्ञानीका लक्ष्य शुद्धचिद्रूपकी ओर रहता है और संसार अपने-अपने अभीष्ट लक्ष्यको लेकर काम करता है, आपसमें दोनोंका विरोध है इसलिये भेद विज्ञानीको संसारकी स्थिति अवश्य ही विपरीत जान पड़नी चाहिये ।। २ ।। त. ८
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