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छठा अध्याय
शुद्धचिपके स्मरणमें निश्चलताका वर्णन जानंति अहिलं हतं ग्रहगणैस्तं पिशाचैरुजा मग्नं भूरि परीषहै विकलतां नीतं जराचेष्टितं । मृत्यासन्नतया गतं विकृतितां चेद् भ्रांतिमन्तं परे चिद्रूपोऽहमिति स्मृतिप्रवचनं जानंतु मामंगिनः ॥ १ ॥
अर्थः -चिद्रूपकी चिन्तामें लीन मुझे अनेक मनुष्य-वावला, खोटे ग्रहोंसे और पिशाचोंसे ग्रस्त, रोगोंसे पीड़ित, भांतिभांतिके परीषहोंसे विकल, बुड्ढा, बहुत जल्दी मरनेवाला होने के कारण विकृत और ज्ञान शून्य हो घूमने वाला जानते हैं सो जानो परन्तु मैं ऐसा नहीं हूँ क्योंकि मुझे इस बात का पूर्ण निश्चय है कि मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ ।
भावार्थः-मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ ऐसा पूर्ण निश्चय हो जानेसे जब मैं उसकी प्राप्तिके लिये उपाय करता हूँ और ऐहिक कृत्योंसे सम्बन्ध छोड़ देता हूँ उस समय बहुतसे मनुष्य मुझे उदासीन जान पागल कहते हैं । कोई कहता है इस पर खोटे ग्रहोंने कोप किया है । वहुतसे कहते हैं यह किसी पिशाचके झपटमें आ गया है । अनेक कहते हैं इसे कुछ रोग हो गया है । बहुतसे कहते हैं परीषह सहते सहते यह व्याकुल हो गया है । एक कहता है, अजी, वह बुढा हो गया है इसलिये इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, दूसरा कहता है अभी इसकी मृत्यु बिल्कुल समीप है इसलिये इसे कुछ विकार हो गया है और अनेक कहते हैं यह व्यर्थ मुह उठाये घूमता फिरता है
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