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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी खंजो निःस्वोऽनधीतश्रुत इह बधिरः कुष्ठरोगादियुक्तः श्लाध्यः चिपचिंतापरः इतरजनो नैव सुज्ञानवादिः ॥ ११ ॥
अर्थ :-जो पुरुष शुद्धचिद्रूपकी चिन्तामें रत है-सदा शुद्धचिद्रूपका विचार करता रहता है वह चाहे दुर्वर्ण-काला, कबरा-बूचा, अंधा, बोना, कुबड़ा, नकटा, कुशब्द बोलनेवाला, हाथ रहित-ठूठा, गूंगा, लूला, गंजा, दरिद्र, मूर्ख, बहरा और कोढ़ी आदि कोई भी क्यों न हो विद्वानोंकी दृष्टि में प्रशंसाके योग्य है । सब लोग उसे आदरणीय दृष्टि से देखते हैं; किन्तु अन्य सुन्दर भी मनुष्य यदि शुद्धचिद्रूपकी चिन्तासे विमुख है तो उसे कोई अच्छा नहीं कहता।
भावार्थ :-चाहे मनुष्य कुरूप और निर्धन ही क्यों न हो यदि वह गुणी है तो अवश्य उसके गुणोंका आदर सत्कार होता है; किन्तु रूपवान धनी मनुष्य भी यदि गुणशून्य है तो कोई भी उसका मान नहीं करता । कुबड़ा, अंधा, लंगड़ा आदि होनेपर भी यदि कोई पुरुष शुद्धचिद्रूपमें रत है तो वह अवश्य आदरणीय है; ख्योंकि वह गुणी है और अन्य मनुष्य चाहे वह सुन्दर, सुडौल और धनवान ही क्यों न हो यदि शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे शून्य है, तो वह कदापि प्रशंसाके योग्य नहीं गिना जाता ।। ११ ।।
रेणूनां कर्मणः संख्या प्राणिनो वेत्ति केवली । न वेनीति क्य यांत्येते शुद्धचिपचिंतने ॥ १२ ॥
अर्थ :-आत्माके साथ कितने कर्मकी रेणुओं (वर्गणाओं) का सम्बन्ध होता है ? इस बातकी सिवाय केवलीके अन्य कोई भी मनुष्य गणना नहीं कर सकता; परन्तु न मालूम शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता करते ही वे अगणित भी कर्मवर्गणायें कहां लापता हो जाती हैं।
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