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चौथा अध्याय !
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समान देखना- जानना इस आत्माका स्वभाव है । तथापि यह देखने में आता है कि यह बहुत थोड़े पदार्थोंको जानता - देखता है एवं पहले देखे सुने किसी एक पदार्थका स्मरण कर सकता है और किसी एकका नहीं । इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि कोई न कोई विरोधी पदार्थ अवश्य इसकी शक्तिका रोकने वाला है और वह शुभ-अशुभ कर्म ही है ।। १४-१५ ।।
सर्वेषामपि कार्याणां शुद्धचिपचितनं ।
सुखसाध्यं निजाधीनत्वादीहामुत्र सौख्यकृत् ॥ १६ ॥
अर्थः - संसार के समस्त कायोंमें शुद्धचिद्रूपका चिन्तन, मनन व ध्यान करना ही सुखसाध्य - सुखसे सिद्ध होनेवाला है; क्योंकि यह निजाधीन है । इसकी सिद्धिमें अन्य किसी पदार्थकी अपेक्षा नहीं करनी पड़ती और इससे इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें निराकुलतामय सुखकी प्राप्ति होती है ।। १६ ॥
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प्रोद्यन्मोहाद् यथा लक्ष्म्यां कामिन्यां रमते च हृत् । तथा यदि स्वचिद्रूपे किं न मुक्ति: समीपगा ॥ १७ ॥
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अर्थ ः— मोहके उदयसे मत्त जीवका मन जिस प्रकार संपत्ति और स्त्रियोंमें रमण करता है, उसीप्रकार यदि वही मन ( उनसे उपेक्षा कर ) शुद्धचिद्रूपकी ओर झुके – उससे प्रेम करे, तो देखते देखते ही इस जीवको मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ।
भावार्थ:- - मन चाहता तो यह है कि मुझे सुख मिले, परन्तु सुखका उपाय कुछ नहीं करता । उल्टा महाबलवान मोहनीय कर्मके फंदे में फँसकर कभी धन उपार्जन करता है और कभी स्त्रियोंके साथ रमण करता फिरता है । यदि यह
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