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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी समस्त व्यवहारको कईबार मैंने जाना; क्षेत्र, नदी, पर्वत आदि खंड और समस्त जगतके स्वभावको भी पहिचाना परन्तु मोहकी तीव्रतासे “ मैं शुद्धचिद्रूप हूँ" इस बात को मैं निश्चय रूपसे कभी न जान पाया ।
भावार्थः-देखनेमें आता है कि संसारमें प्रायः मनुष्य लोककी विभूति और जाति आदिके गौरवको उत्तम समझते हैं और उसीको हितकारी मान उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करते हैं परन्तु मैं ने इन सबको भले प्रकार-जान-देख और प्राप्त कर लिया किन्तु अभी तक तुझे केवल शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति कभी नहीं हुई ।। १४ ।।
शीतकाले नदीतीरे वर्षाकाले तरोरधः । ग्रीष्मे नगशिरोदेशे स्थितो न स्वे चिदात्मनि ॥ १५ ॥
अर्थः-बहुत बार मैं शीतकालमें नदीके किनारे, वर्षा कालमें वृक्षके नीचे और ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतकी चोटियों पर स्थित हुआ; परन्तु अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें मैंने कभी स्थिति न की ।।१५।।
विहितो विविधोपायैः कायक्लेशो महत्तमः । स्वर्गादिकांक्षया शुद्धं स्वस्वरूपमजानता ॥ १६ ॥
अर्थ :--" मुझे स्वर्ग आदि सुख की प्राप्ति हो” इस अभिलाषासे मैंने अनेक प्रयत्नोंसे धोरतम भी कायक्लेश तप भी तपे परन्तु शुद्धचिद्रूपको ओर जरा भी ध्यान न दियास्वर्ग चक्रवर्ती आदिके सुखके सामने मैंने शुद्धचिद्रूप सुखको तुच्छ समझा ।। १६ ।।
अधीतानि च शास्त्राणि बहुवारमनेकशः । मोहतो न कदा शुद्धचिद्रूपप्रतिपादकं ॥ १७ ॥
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