________________
पाँचवाँ अध्याय ] कई बार पाया; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी मुझे कभी भी प्राप्ति न हुई ।।१०।।
शौचसंयमशीलानि दुर्धराणि तपांसि च । . . शुद्धचिद्रपसद्ध्यानमंतरा धृतवानहं ॥ ११ ॥
अर्थ :-मैं ने अनंतबार शौच, संयम व शीलोंको धारण किया, भांति भांतिके घोरतम तप भी तपे; परन्तु शुद्धचिद्रूपका कभी ध्यान नहीं किया ।।११।।
एकेन्द्रियादिजीवेषु पर्यायाः सकला धृताः । अजानता स्वचिद्रपं परस्पर्शादि जानता ॥ १२ ॥
अर्थ :--में अनेक बार एकेद्रिय, दो-इंद्रिय, ते-इन्द्रिय, चौ-इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय हुआ । एकेन्द्रिय आदिमें वृक्ष आदि अनंत पर्यायोंको धारण किया, दूसरेके स्पर्श, रस, गंध आदिको भी जाना; परन्तु स्वस्वरूपचिद्रूपको आज तक न पाया, न पहिचाना ।।१२।।
ज्ञातं दृष्टं मया सर्व सचेतनमचेतनं । स्वकीयं शुद्धचिद्रपं न कदाचिच्च केवलं ॥ १३ ॥
अर्थ :--मैंने संसारमें चेतन-अचेतन समस्त पदार्थोंको भले प्रकार देखा-जाना; परन्तु केवल शुद्धचिद्रूप नामक एक पदार्थको कभी मैंने न जाना न देखा ।। १३ ।।
लोकज्ञाति श्रुतसुरनृपति श्रेयसां भाभिनीनां यत्यादीनां व्यवहतिमखिलां ज्ञातवान् प्रायशोऽहं । क्षेत्रादीनामशकलजगतो वा स्वभावं च शुद्धचिद्रपोऽहं ध्रुवमिति न कदा संसृतौ तीबमोहात् ॥१४॥
अर्थः-संसारमें लोक, ज्ञाति, शास्त्र, देव और राजाओंकी विभूतियोंको, कल्याण, स्त्रियों और मुनि आदिके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org