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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थ :-जो योगी मोक्ष-नित्यानन्दरूपी संपत्तिको प्राप्त हुये, होते हैं और होंगे, उसमें शुद्धचिद्रूपकी आराधना ही कारण है । बिना शुद्धचिद्रूपकी भलेप्रकार आराधनाके कोई मोक्षनित्यानंद नहीं प्राप्त कर सकता; क्योंकि यह शुद्धचिद्रूप ही आनन्दका मन्दिर है-अद्वितीय नित्य आनन्द प्रदान करनेवाला है ।।१६।।
द्वादशांगं ततो बाह्यं श्रुतं जिनवरोदितं ।
उपादेयतया शुद्धचिद्रूपस्तत्र भाषितः ॥१७॥
अर्थ :-भगवान जिनेन्द्रने अंगप्रविष्ट (द्वादशांग ) और अंगबाह्य-दो प्रकारके शास्त्रोंका प्रतिपादन किया है। इन शास्त्रोंमें यद्यपि अनेक पदार्थों का वर्णन किया है; तथापि वे सब हेय (त्यागने योग्य ) कहे हैं और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) शुद्धचिद्रूपको बतलाया है ।।१७।।
शुद्धचिद्रपसद्ध्यानाद्गुणाः सर्वे भवंति च । दोषाः सर्वे विनश्यति शिवसौख्यं च संभवेत् ॥१८॥
अर्थ :-शुद्धचिद्रूपका भलेप्रकार ध्यान करनेसे समस्त गुणोंकी प्राप्ति होती है। राग-द्वेष आदि सभी दोष नष्ट हो जाते हैं और निराकुलतारूप मोक्ष सुख मिलता है ।।१८।। चिद्रपेण च घातिकर्महननाच्छुद्धेन धाम्ना स्थितं
यस्मादत्र हि वीतरागवपुषो नाम्नापि नुत्यापि च । तद्विवस्य तदोकसो झगिति तत्कारायकस्यापि च सर्व गच्छति पापमेति सुकृतं तत्तस्य किं नो भवेत् ॥ १९ ॥
अर्थ :-शुद्धचिद्रूप( के ध्यान )से ज्ञानावरणा, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातिया कर्मोका नाश हो जाता
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