________________
तृतीय अध्याय ]
अर्थः- इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि चिन्ताका अभाव, एकान्त स्थान, आसन्न भव्यपना, भेदविज्ञान और दूसरे पदार्थोमें निर्ममता ये शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें कारण हैंबिना इनके शुद्धचिद्रूपका कदापि ध्यान नहीं हो सकता ।।१२।।
नृस्त्रीतिर्यग्सुराणां स्थितिगतिवचनं नृत्यगानं शुचादि क्रीड़ा क्रोधादि मौनं भयहसनरारोदनस्वापशूकाः । व्यापाराकाररोगं नुतिनतिकदनं दीनतादुःखशंकाः श्रृंगारादीन् प्रपश्यन्नमिह भवे नाटकं मन्यते ज्ञः ॥१३॥
अर्थः-जो मनुष्य जानी है-संसारकी वास्तविक स्थितिका जानकार है वह मनुष्य, स्त्री, तिर्यंच और देवोंके स्थिति, गति, वचनको, नृत्य-गानको, शोक आदिको, क्रीड़ा, क्रोध आदि, मौनको, भय, हँसी, बुढापा, रोना, सोना, व्यापार, आकृति, रोग, स्तुति, नमस्कार, पीड़ा, दीनता, दुःख, शंका, भोजन और श्रृगार आदिको संसारमें नाटकके समान मानता है ।
भावार्थ:-जो मनुष्य अज्ञानी हैं वे तो मनुष्य, स्त्री, देव, देवांगना आदिके रहन-सहन आदिको अच्छा-बुरा समझते हैं । शोक और आनंद आदिके प्रसंग उपस्थित हो जाने पर दुःखी-सुखी हो जाते हैं; परन्तु ज्ञानीमनुष्य यह जानकर कि नाटकमें मनुष्य कभी राजा, कभी रंक और कभी स्त्री आदिका वेष धारण कर लेता है, उसी प्रकार इस जीवके कभी मनुष्य आदि पर्याय, कभी रोग-शोक और कभी सुख-दुःख सदा हुआ करते हैं-संसारका यह स्वभाव ही है, उसमें दुःख-सुख नहीं मानता ।। १३ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org