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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी ले जानेके लिये बहुत जल्दी चलने वाले वाहन ( सवारी ) हैं । कर्मरूपी धूलिके उड़ानेके लिये प्रबल पवन हैं और संसाररूपी वनको जलाने के लिये जाज्वल्यमान अग्नि हैं ।। ७ ।। क्व यांति कार्याणि शुभाशुभानि क्य यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपाः । क्व यांति रागादय एव शुद्धचिद्रपकोहंस्मरणे न विद्मः ॥ ८ ॥
अर्थ :-हम नहीं कह सकते कि-'शुद्धचिद्रूपोहं ' मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ, ऐसा स्मरण करते ही शुभ-अशुभ कर्म, चेतन-अचेतनस्वरूप परिग्रह और राग, द्वेष आदि दुर्भाव कहाँ लापता हो जाते हैं ?
भावार्थ :-शुद्धचिद्रूपके स्मरण करते ही शुभ-अशुभ समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, चेतन-अचेतनस्वरूप परिग्रहोंसे भी सर्वथा सम्बन्ध छूट जाता है और राग-द्वेष आदि महादुष्ट भाव भी एक ओर किनारा कर जाते हैं, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे अवश्य इस चिद्रूपका स्मरण ध्यान करें ।। ८ ।। मेरुः कल्पतरुः सुवर्णममृतं चिंतामणिः केवलं
साम्यं तीर्थकरो यथा सुरगवी चक्री सुरेंद्रो महान् । भूमृद्भूरुहधातुपेयमणिधीवृत्ताप्तगोमानवा
मर्येष्वेव तथा च चिंतनमिह ध्यानेषु शुद्धात्मनः ॥९॥
अर्थ :-जिस प्रकार पर्वतोंमें मेरु, वृक्षोंमें कल्पवृक्ष, धातुओंमें स्वर्ण, पीने योग्य पदार्थों में अमृत, रत्नोंमें चिन्तामणिरत्न, ज्ञानोंमें केवलज्ञान, चारित्रोंमें समतारूप चारित्र, आप्तोंमें तीर्थंकर, गायोंमें कामधेनु, मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवोंमें इन्द्र महान और उत्तम हैं उसीप्रकार ध्यानोंमें शुद्धचिद्रूपका ध्यान ही सर्वोत्तम है।
भावार्थ :--जिस प्रकार अन्य पर्वत मेरुपर्वतकी, अन्यवक्ष
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