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(३०) सर्व विभावधी उदासीन बने अत्यंत शुद्ध निजपर्यायने सहजपणे आत्मा भजे, तेने श्री जिने तीव्र ज्ञान दगा कही छे जे दशा माव्या विना कोई पण जीव बंधनमुक्त थाय नही, एवो सिद्धांत श्री जिने प्रतिपादन क्यों छे, जे अखंड सत्य छे.
कोईक जीवथी ए गहन दशानो विचार थई शक्वायोग्य छे, केमके अनादिधी अत्यत अज्ञान दशाए या जीवे प्रवृत्ति करी छे, ने प्रवृत्ति एकदम अमत्य, असार समजाई, तेनी निवृत्ति सूझे, एम बनवु वह कठण छे; माटे ज्ञानीपुरुपनो आश्रय करवारूप भक्तिमार्ग जिने निरूपण कर्यो छे, के जे मार्ग भाराघवाथी सुलभपणे ज्ञानदशा उत्पन्न थाय छे.
ज्ञानीपुरुपना चरणने विषे मन स्थाप्या विना ए भक्तिमार्ग सिद्ध थतो नथी, जेथी फरी फरी ज्ञानीनी आज्ञा आराघवातुं जिनागममा ठेकाणे ठेकाणे कथन कयु छ - ज्ञानी पुरुषना चरणमा मनन स्थापन थषु प्रथम कठण पडे छे, पण वचननी अपूर्वताथी, ते वचननो विचार करवाथी, तथा जानी प्रत्ये अपूर्व दृष्टिए जोवाथी, मननु स्थापन थर्बु सुलभ थाय छ