Book Title: Tattvagyan Mathi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 248
________________ २४० ध्यान, जप, तप, क्रिया मार ए सर्व थकी, अमे जणावेलु कोई वाक्य जो परम फळन तारण धारता हो तो, निश्चयपणे धारता हो तो, पाछळयी वृद्धि लोकसज्ञा, शास्त्रसंज्ञा पर न जती होय तो, जाय तो ते प्रातिवडे गई छे एम धारता हो ता, ते वाफ्यने घणा प्रकारनी धीरजवडे विचारवा धारता हो तो, लखवाने इच्छा थाय छे हजी आथी विशेषपणे निश्चयने विपे धारणा करवाने लखवु आगत्य जेवु लागे छ, तथापि चित्त अवकाशस्पे वर्ततु नथी, एटले जे लत्यु छे ते प्रबळपणे मानशो __ सर्व प्रकारे उपाधियोग तो निवृत्त करवा योग्य छे, तथापि जो ते उपाधियोग सत्सगादिकने अर्थे ज इच्छवामा आवतो होय, तेम ज पाछी चित्तस्थिति सभवपणे रहेती होय तो ते उपाधियोगमा प्रवर्तवू श्रेयस्कर छे. मुवई, वैशाख वद १४, बुध, १९४८ - - चित्तमा तमे परमार्थनी इच्छा राखो छो एम छे, तथापि ते परमार्थनी प्राप्तिने अत्यतपणे वाघ करवावाळा एवान

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