Book Title: Tattvagyan Mathi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REARRAHATMAIMIL IMPRATIMATLAN DHARAJ ALLIANTARIKAAWAIMAANTIL HENRYAMJiji tillustatittwitUAWAL"tituur fatuallu illults Ri Hit!!! if11S. ia }}+ ROHITA RISHIJAN SANDIT PIRITUTIPTETTIMROM ) Lism }} IIffals1}{n \\{{ HTTERamin mahitithin alliant A}}}} श्रीमद् राजचद्र प्रणीत मायी तत्त्वज्ञान t ures... LLBAHanuntiy shyam Ha 1 .Minutt....AMM.in... 1011015...|| THEW 2013 rugs until I Meh ffMAITRI MA.TA. M U BLEIWILD BILLISTISCH Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मनुभाई भ. मोदी, अध्यक्ष श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन अगास, वाया आणंद पोस्ट बोरिया-३८८१३ (गुजरात) चौथी आवृत्ति प्रत ३२०० विक्रम संवत् २०४२ ईस्वी सन् १९८६ मुद्रक वर्द्धमान मुद्रणालय वाराणसी-२२१००१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहो सन्पुष्पना वचनामृत, मुद्रा अने सत्समागम । सुपुप्त चतनने नागृत करनार, पडती वृत्ति स्थिर राखनार, दर्शनमात्रयी पण निर्दोप, अपूर्व स्वभावने प्रेरख, स्वरूप प्रतीति, अप्रमत्त सयम भने पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभावना कारणमूत, छेले अयोगी स्वभाव प्रगट करी अनत अव्यावाघ स्वरूपमा स्थिति करावनार। विकाळ जयवत पों! ॐ शाति शाति शाति -श्रीमद् रामचन्द्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका गद्य विभाग - नंबर विषय १ पुष्पमाळा २ महानीति ३ वत्रीस योग ४ स्मृतिमा राखवा योग्य महावाक्यो ५ वचनामृत थोडा वाक्यो प्रमादने लीधे आत्मा० ८ अनंतानुवधी क्रोध ९ नीचेना दोप न आववा जोईए १० कर्म ए जड वस्तु छे० ११ कर्मगति विचित्र छे निरंतर मैत्री, प्रमोद० १२ वीजु काई गोघ मा० १३ निरावाधपणे जेनी मनोवृत्ति वह्या करे छे० १४ भाई, आटलु तारे अवश्य करवा जेवु छे० १५ समजीने अल्पभाषी थनारने० ir m x two ७२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ नीना नियमो पर बहु लश आप १८ महावीरना वोधने पात्र कोण ? १९ हे जीव ! तु भ्रमा मा० २० विश्वासथी पर्ती अयथा० २१ 'मणुछतु' 'वाचा वगरनु । २२ सहज प्रकृति २३ वचनावली २४ पुराणपुरपने नमोनम २५ जीव स्वभावे दोपित छे. २६ जे जे प्रकारे आत्माने चितन कर्यों होय २७ हे परमकृपालदेव ! २८ मुमुनु जीवने आ पाळने विपे० २९ नियनियम ३० सब विभावधी उदासीन ३१ जे पाय परिणामथी अनत० ३२ अनतानुबधानो बीजो प्रकार रख्यो छे० ३३ प्रथम पदमा एम मा छे थे. २४ एवंभूत दृष्टिपी० १०० १०६ ११. ११२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ ११३. ११४ ११४ ११६ ११८ ११९ ११९ ३५ समस्त विश्व घj करीने० ३६ करवा योग्य कई का होय. ३७ "ज्ञाननं फळ विरति छे" . ३८ सर्व जीव सुखने इच्छे छे० ३९ सत्पुरुषोना अगाध गम्भीर सयमने० ४०. आत्मदशाने पामी० ४१ अपार महा मोहजळने० ४२ हे काम । हे मान ! हे संगउदय । ४३ हे सर्वोत्कृष्ट सुखना० ४४ जेम भगवान जिने निरूपण कयुं छे० ४५ सर्वज्ञोपदिष्ट नात्मा० ४६ प्राणीमात्रनो रक्षक ४७ वीतरागनो कहेलो० ४८ अनन्य शरणना आपनार० (छ पद) ४९ आत्मसिद्धि अर्थ ५० मनने लईने आ वधुं छे० ५१ चित्तमा तमे परमार्थनी० ५२ एकातमां अवगाहवाने अर्थे आत्मसिद्धि० ५३ क्षमापना १२० १२१ १२१ १२२ १२३ २०१ २३९ २४० २४१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ १२९ १३० १३२ १३२ १३३ पद्य विभाग - १ प्रथारम्भ २ नामिनादन नाथ ३ प्रमु प्राथना-जळहळ ज्याति स्वरूप ४ ससारमा मन बरे० ५ मुनिने प्रणाम ६ काळ कोईने नहि मूके ७ घम विप ८ सवमा य धर्म ९ भक्निो उपदेश १० ब्रह्मचय विषे सुभापित ११ सामाय मनोरथ १२ तृष्णानी विचित्रता १३ अमुल्य तत्त्व विचार १४ जिनेश्वरनी वाणी १५ पूणमालिका मगल १६ अनित्यादि भावना १७ सुखी सहेली हो १८ मिन्न मिन्न मत देखीएक १३७ १३९ १४१ १४२ १४३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६२ १६४ १९ लोक पुरुषसंस्थाने कह्यो। २० आज भने उछरग० होत आसवा परिसवा० मारग साचा मिल गया० २३ बीजा साधन बहु काँ० २४ विना नयन पावे नही० २५ हे प्रभु, हे प्रभु २६ यम नियम सजम० २७ जड भावे जड परिणमे० २८ जिनवर कहे छे ज्ञान तेने० २९ अपूर्व अवसर एवो० ३० मूळ मारग साभळो० ३१ पथ परमपद वोध्यो० ३२ धन्य रे दिवस० ३३ जड ने चैतन्य बन्ने० ३४ सद्गुरुना उपदेशथी. ३५ इच्छे जे जोगी जन० ३६ आत्मसिद्धि १६८ १७३ १७५ १७७ १७९ १८१ १८३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचन्द्र प्रणीत तत्त्वज्ञान माथी (१) पुष्पमाळा रात्रि व्यतिक्रमी गई प्रभात थयु, निद्राथी मुक्त थया भावनिद्रा रळवानो प्रयत्ल करजो व्यतात राणि अने गई जिंदगी पर दप्टि फेरवी जामो सफळ पयेला वसतने माटे आनद मानो, अने आजनो दिवस पण सफळ यरो निप्पळ थयेला दिवसने माटे पश्चात्ताप परी निष्फळता विस्मृत बरो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ क्षण क्षण जतां अनतकाळ व्यतीत थयो, छता सिद्धि थई नही. ५ सफळजन्य एक्के बनाव ताराथी जो न बन्यो होय तो फरी फरीने शरमा ६ अघटित कृत्यो थया होय तो गरमाईने मन, वचन, कायाना योगथी ते न करवानी प्रतिज्ञा ले ७ जो तुं स्वतत्र होय तो संसारसमागमे तारा आजना दिवमना नीचे प्रमाणे भाग पाड :(१) १ प्रहरभक्तिकर्तव्य (२) १ प्रहर-धर्मकर्तव्य. (३) १ प्रहर---आहारप्रयोजन (४) १ प्रहर-विद्याप्रयोजन (५) २ प्रहर-निद्रा. (६) २ प्रहर-ससारप्रयोजन. ८प्रहर ८ जो तुं त्यागी होय तो त्वचा वगरनी वनितानु स्वरूप विचारीने ससार भणी दृष्टि करजे, ९ जो तने धर्मनुं अस्तित्व अनुकूळ न आवतुं होय तो नीचे कहु छु ते विचारी जजे : Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) तु जे स्थिति भोगवे छे ते शा प्रमाणथी? (२) आवती काल्ना वात शा माटे आणी शकतो नथी? (३) तु जे इच्छे छे ते शा मार मळतु नथी ? (४) चित्रविचित्रतानु प्रयोजन शु छ ? १० जो तने अस्तित्व प्रमाणभूत लागतु होय भने तेना मूळतत्त्वनी आशका होय तो नीचे कहु छु - ११ सय प्राणीमा समदृष्टि - १२ किंवा कोई प्राणीने जीवित यरहित करवा नही, गजा उपरात तैनाथी काम रेवु नही १३ क्विा सत्पुरुषो जे रस्ते चाल्या ते १४ मूतत्त्वमा क्याय भेद नथी, मात्र राष्टिमा भेद छ एम गणी आशय समजी पवित्र धममा प्रवतन करजे १५ तु गम त घम मानतो होय तेनो मने पक्षपात नथी, मात्र कहवानु सात्पय वे जे राहथी मसारमळ नाश थाय त भक्ति, ते धम अने ते सदाचारने तु सेवजे १६ गमे तटला परता हो तोपण मनयी पवित्रताने विस्मरण कर्या वगर ाजनो दिवस रमणीय करजे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 १७ आजे जो तु दुपातमा दोरातो हो तो मरणने म्मर १८ तारा दुसमुसना धनावोनी नोष आजे कोन दुःख आपवा तत्पर चाय तो भारी जा. १९ राजा हो के रण हो-गमे ते हो, परन्तु मा विचार विचारी सदाचार भणी आवजो के मा काथाना पुद्गल योटा वसतने माटे मात्र साडारण हाथ भूमि मागनार छे. २० तु राजा हो तो फिकर नही, पण प्रमाद न कर, कारण नीचमा नीच, अ-'ममा अधम, व्यभिचारलो, गर्भपातनो, निर्वगनो, चण्डालनो, कसाईनो अने वेश्यानो, एवो कण तु खाय छे तो पछी ? २१ प्रजाना दुःख, अन्याय, कर एने तपासी जई माजे ओछा कर तु पण हे राजा ! काळने घेर आवलो पल्पो छे २२ वकील हो तो एथी अर्ण विचारने मनन करो जजे २३ श्रीमत हो तो पैसाना उपयोगने विचारजे रळवानु कारण आजे शोधीने कहेजे २४ घान्यादिकमा व्यापारथी थती असत्य हिंसा संभारी न्यायसंपन्न व्यापारमा आजे तारु चित्त खेंच. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ जो तु कसाई होय तो तारा जीवना सुवगो विचार ___करी भजना दिवसमा प्रवेश कर २६ तो तु समजणो बाळक होय तो विद्या भणी अने आज्ञा भणी -ष्टि कर २७ जो तु युवान होय ता उद्यम बने ब्रह्मचय भणी दष्टि कर २८ जो तु वृद्ध होय तो मोत भणी -ष्टि करी आजना दिवसमा प्रवश कर २९ जो तु स्त्री होय तो तारा पति प्रत्येनी धमकरणीन समार,-दोप थया हाय तनी क्षमा याच अने युटुब भणी प्टि कर ३० जा तु कवि होय तो असभवित प्रासाने सभारा जई आजना दिवसमा प्रवश कर ३१ जो तु कृपण होय तो,३२ जो तु अमलमस्त होय तो नेपोलियन बानापाटने बने स्थितिथी स्मरण कर __३३ गई पारे कोई कृत्य अपूण रह्य, हाय तो पूर्ण परवानो सुविचार करी माजना दियसमा प्रवेश कर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आजे गई बारमनी माग्म सन्या धानी हो तो विवेकची ममय, गनिने परिणामने विचार जना दिवनमा प्रवेगार ३५ पग मृफना पाप है, जोता जर है, अने माथे मरण रह्यं छे, ए विचान चालना दिवसमा प्रवेश पर ३६ अघोर कर्म करवामा शाजे तारे पाच होय तो राज पुत्र हो तो पण निशाचरी मार करी अजना दिवममा प्रवेश करने. ३७ भाग्यशाली हो तो नेना आनदमा वीजाने भाग्यगारी करजे, परंतु दुर्भाग्यगाली हो तो अन्यनुं वन करता रोकाई आजना दिवममा प्रवेश करजे ३८ धर्माचार्य हो तो तारा अनानार भणी फटाक्षदृष्टि करी आजना दिवसमा प्रवेश करजे ३९ अनुचर हो तो प्रियमा प्रिय एवा शरीरना निभाव नार तारा अधिराजनी निमकहलाली इच्छो आजना दिवममा प्रवेश करजे ४० दुराचारी हो तो तारी आरोग्यता, भय, परतत्रता, स्थिति अने सुस एने विचारी माजना दिवसमा प्रवेग करजे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ दुःखी हो तो ( आजनी ) आजीविका जेटली आशा राखी आजता दिवसमा प्रवेश करजे ४२ धमकरणोनो अवश्य वखत मेळवी आजनी व्यवहार सिद्धिमा तु प्रवेश करज ४३ वदापि प्रथम प्रवेशे अनुवळता न होय तो पण रोज जता दिवसनु स्वरूप विचारी आजे गर्भ त्यारे पण ते पवित्र वस्तुनु मनन परजे ४४ आहार, विहार, निहार ए मवधीनी वारी प्रक्रिया तपासी आजना दिवममा प्रवेश करजे ४५ तु कारीगर हो तो आळस अने शक्तिना गेरउपयोगनो विचार करी जई आजना दिवसमा प्रवश करजे ४६ तु गमे त धधार्थी हो, परतु आजीविकाथै अन्याय सपन्न द्रय उपाजन करीश नहीं ४७ ए स्मृति ग्रहण कर्या पछी शौच क्रियायुक्ता थई भगवद् भक्तिमा लीन थई क्षमापना याच ४८ मसारप्रयाजनमा जो तु तारा हितने अर्थे अमुक समुदायनु अहित परी नाखतो हो तो अटवजे ४९ जुलमीने, कामीने, अनाडाने उत्तेजन आपतो हो सो अटकज Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० मोठामा बोलो पण अर्व प्रहर धर्मकर्तव्य भने विद्या संपत्तिमा ग्राह्य करजे. ५१ जिंदगी टूकी छे, अने जंजाळ लावी छे, माटे जंजाळ ___ढूंकी कर तो सुखरूपे जिंदगी लावी लागशे. ५२ स्त्री, पुत्र, कुटुब, लक्ष्मी इत्यादि वघा सुख तारे घर होय तोपण ए सुखमा गोणताए दु.ल रा छ एम गणी आजना दिवसमा प्रवेश कर ५३ पवित्रतानु मूळ सदाचार छे. ५४ मन दोरगी थई जतु जाळववाने,५५ वचन शात, मधुर, कोमळ, सत्य अने शौच वोल्वानी सामान्य प्रतिज्ञा लई आजना दिवसमा प्रवेश करजे. ५६ काया मळमूत्रनुं अस्तित्व छे, ते माटे 'हु आ शु अयोग्य प्रयोजन करी आनद मार्नु छु ?' एम आजे विचारजे. ५७ तारे हाथे कोईनी आजीविका आजे तूटवानी होय तो, ५८ आहारक्रियामा हवे ते प्रवेश कों मिताहारी अकबर सर्वोत्तम वादशाह गणायो. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ जो नाजे दिवसे तने सूवानु मन याय, तो ते घखते ईश्वरभक्तिपरायण थजे, के सत्शास्त्रनो लाभ लई लेजे ६० हु समजु छु के एम थ दुघट छे, तो पण अभ्यास सवनो उपाय छ ६१ चाल्यु आवतु वैर आजे निर्मूळ कराय तो उत्तम, नहीं तो तेनी सावचती राखजे ६२ तेम नवु पर वधारीश नही, कारण वैर करी फेटा काळनु सुख भोगवचु छ ए विचार तत्वनानोओ करे छे ६३ महारभी, हिंसायुक्त यापारमा आजे पडवु पहेतु होय तो अटकजे ६४ बहोळी रक्ष्मी मठता छता आजे अन्याययी कोईनो जाव जतो होय तो अटक्जे ६५ वखत अमूल्य छे ए वात विचारी आजना दिवसनी २,१६००० विपळनो उपयोग करजे ६६ वास्तविर सुम्प मात्र विरागमा छे माटे जजाळ मोहिनीथी आजे अभ्यतरमोहिनी वधारीश नही Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ नवगगनो दिवस होय तो माग पहेली ग्वतंत्रता प्रमाणे चालणे ६८ कोई प्रभारनी निष्पापी गम्मत किंवा अन्य कई निप्पापी माधन आजनी आनंदनीयताने माटे गोधजे. ६९ सुयोजक कृत्य करवामा दोराबु होय तो दिलब करवानो आजनो दिवम नथी, कारण आज जेवो मगळदायक दिवस बीजो नयी ७० अधिकारी हो तो पण प्रजाहित भुलीग नहीं, कारण जेतुं । राजानु) तु लूण खाय छ, ते पण प्रजाना मानीता नोकर छे. ७१ व्यावहारिक प्रयोजनमा पण उपयोगपूर्वक विवेकी रहेवानी सतप्रतिज्ञा मानी आजना दिवसमा वर्तजे. ७२ सायंकाळ थया पछी विशेप गान्ति लेजे ७३ आजना दिवममा बाटली वस्तुने बाधन अणाय तो ज वास्तविक विचक्षणता गणाय (१) आरोग्यता (२) महत्ता (३) पवित्रता. (४) फरज ७४ जो आजे ताराथी कोई महान काम थतु होय तो तारा सर्व सुखनो भोग पण आपी देजे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ करज ए नीच रज ( क + रज) छे करज ए गमना हाथथी नीपजे ती वस्तु छे, ( कर+ज) कर ए राक्षसी राजानी जुलमी कर उपरावनार छ ए होय तो आजे उतारजे, अने नवु करता अटकजे ७६ दिवस सवधी कृत्यना गणितभाव हवे जोई जा ७७ सवारे स्मृति पापी छे छता कई अयोग्य ययु होय तो पश्चात्ताप पर बने शिक्षा रे ७८ कई परोपकार दान, लाभ के अयनु हित करीने आन्यो हो तो आनद मान, निरभिमानी रहे ___७९ जाणता अजाणता पण विपरीत थयु होय तो हवे ते माटे अटकजे ८० व्यवहारना नियम राखजे भने नवराशे ससारनी निवृत्ति शोधजे ८१ आज जेयो उत्तम दिवम भोगव्यो, तवी तारी जिंदगी भोगववाने माटे तु आनदित्त था तो ज आo८२ आज जे पळे तु मारी पथा मनन कर छे, ते ज ताफ आयुष्य समजी सवृत्तिमा दोराजे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ सत्पुरुष विदुरना कह्या प्रमाणे आजे एव कृत्य करजे के रात्रे सुखे मुवाय ८४ आजनो दिवम सोनेरी छे, पवित्र छे, कृतकृत्य थवारप छे, एम सत्पुरुषोए का, छ, माटे मान्य कर. ८५ जेम वने तेम आजना दिवम संबंधी, स्वपत्नी संबंधी पण विषयासक्त ओछो रहेजे. ८६ आत्मिक अने शारीरिक शक्तिनी दिव्यतानु ते मूळ छे, ए ज्ञानीमोनु अनुभवसिद्ध वचन छे ८७ तमाकु सूघवा जेवु नानु व्यसन पण होय तो आजे पूर्ण कर -( ० ) नवीन व्यसन करता अटक ८८ देश, काळ, मित्र ए सघळानो विचार मर्व मनुष्ये आ प्रभातमा स्वशक्ति समान करवो उचित छ. ८९ आजे केटला सत्पुरुपोनो समागम थयो, आजे वास्तविक आनदस्वरूप शु थयु ? ए चितवन विरला पुरुषो करे छे ९० आजे तुं गमे तेवा भयकर पण उत्तम कृत्यमा तत्पर हो तो नाहिम्मत थईश नही. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ शुद्ध सच्चिदानद, करुणामय परमेश्वरली भक्ति ए आजना वारा सत्कृत्यनु जीवन छे ९२ तारु, तारा कुटुम्बनु, मित्रनु, पुत्रनु, पलीनु, माता पितानु, गुरुनु, विद्वानु, सत्युम्पनु यथाशक्ति हित, सन्मान, विनय लामनु क्तव्य थयु होय तो आजना दिवसनी त सुगधी छे ९३ जेने घेर ा दिवस घलेश वगरना, स्वच्छतायो, शौचताया, मपथी संतोपथी, सौम्यताथी, स्नेहथी, सम्यतापी, मुखपी जशे तने घेर पवित्रतानो वास छ ९४ कुशल बने याद्यागरा पुत्रो, मागावलवनी धमयुक्त अनुचरो सदगुणी गुदरी, मपीट कुट्य, सत्पुरष जेवी पोताना दगा जे पुरुपनी हो सेनो आजनो दिवस आपणे मधळाने बदनीय छ १५ ए सर्व लगणमयुक्त थवा ज पुरुष विचक्षणवाथी प्रयत्न परे छ लेनो दिवस हापणने माननीय छ ९६ एयी प्रतिमावदार वर्तन ज्या मची रह्य छे ते पर अापणी पटायादृष्टिना रखा छे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ भले तारी आजीविका जेटलु तु प्राप्त करतो हो, परतु निस्पाधिमय होय तो उपाधिमय पेलु राजनुन्व इच्छी तारो आजनो दिवस अपवित्र करीग नही. ९८ कोईए तने कडबु कयन कह्य होय ते ववतमा सहन__ शीलता-निरुपयोगी पण, ९९ दिवसनी भूल माटे रात्रे हसजे, परतु तेवू हसवु फरीथी न थाय ते लक्षित रावजे. १०० आजे कई बुद्धिप्रभाव वधार्यो होय, आत्मिक शक्ति उजवाळी होय, पवित्र कृत्वनी वृद्धि करी होय तो ते,१०१ अयोग्य रीते आजे तारी कोई शक्तिको उपयोग करीश नही,-मर्यादालोपनथी करवो पडे तो पापभीर रहेजे १०२ सरळता ए धर्मनु वीजस्वरूप छे. प्रज्ञाए करी __ सरळता सेवाई होय तो आजनो दिवस सर्वोत्तम छे. १०३ वाई, राजपत्नी हो के दीनजनपत्नी हो, परंतु मने तेनी कई दरकार नथी मर्यादाथो वर्तती मे तो शु पण पवित्र ज्ञानीओए प्रगसी छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सद्गुणयी रोने जो तमारा उपर जगतना प्रशस्त मोह हो तो हे बाई, तमने हु वन्न करु छु १०५ बहुमान, ननभाव, विशुद्ध अत करणयी परमात्माना गुण सवधी चितवन, श्रवण, मनन, कीर्तन, पूजा, अर्चा ए मानीपुरुषोए वाण्या छे, माटे आजनो दिपम शोभावजो १०६ सतशीलवान मुसी छे दुराचारी दुमी छै ए बात जो मा य न होय तो अत्यारथी तमे रुप राखी ते वात विचारी जुओ १०७ आ सघळानो सहेलो उपाय भाजे वही दच छु के दोपने ओळखी दोपने टाळवा १०८ वी टूकी के क्रमानुक्रम गर्ने त स्वरूप आ मारी कहेली, पवित्रताना पुप्पोथी छवायेली माळा प्रमातना वखतमा, सायकाळे अने अय अनुकूल निवृत्तिए विचारवाथी मगळदायक थशे विशेष सुबहु । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानीति १ भत्य पण करुणामय बोलवु. २ निर्दोष स्थिति राखवी, ३ वैरागी हृदय रामवं. ४ दर्शन पण वैरागी राखयु. ५ डुगरनी तळेटीमा वधारे योग साचवो ६ वार दिवस पत्नीसंग त्यागवो ७ आहार, विहार, आळस निद्रा इ० ने वश करवा. ८ ससारनी उपाधिथी जेम बने तेम विरक्त थवं. ९ सर्व-सगउपाधि त्यागवी १० गृहस्थाश्रम विवेकी करवा. ११ तत्त्वधर्म सर्वज्ञतावडे प्रणीत करवो १२ वैराग्य अने गभीरभावथी बेसबु. १३ सघळी स्थिति तेमज. १४ विवेकी, विनयी अने प्रिय पण मर्यादित बोलवु. १५ साहस कर्तव्य पहेला विचार राखवो. १६ प्रत्येक प्रकारयो प्रमादने दूर करवो. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ १७ सघळ कर्तव्य नियमित ज राखवू १८ शुक्ल भावयी मनुष्यनु मन हरण करबु १९ शिर जता पण प्रतिज्ञा भग न करवी २० मन, वचन अने बायाना योग बडे परपत्नी त्याग २१ वेश्या, कुमारी, विधवानो तेमज त्याग । २२ मन, वचन, काया अविचारे वापरु नही २३ निरीक्षण करु नहीं २४ हावभावयो मोह पामु नही २५ धातचीत कर नही २६ एकाते रहु नहीं २७ स्तुति करु नही २८ चितवन करू नही २९ शृगार वाचु नही ३० विरोप प्रसाद लउ नही ३१ स्वादिष्ट भोजन लउ नही ३२ सुगधी द्रव्य वापरु नहीं ३३ स्नान मजन कर नही ३५ वाम विषयने सरित भावे याचु नही Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वीर्यनो व्याघात करु नही. ३७ वधारे जळपान करु नही ३८ कटाक्ष दृष्टिथी स्त्रीने नीरखु नही. ३९ हसीने वात करु नही. (स्त्रीथी) ४० शृंगारी वस्त्र नीरखु नही. ४१ दपतीसहवास सेवू नही. ४२ मोहनीय स्थानकमा रहु नहीं ४३ एम महापुरुषोए पाळवु. हु पाळवा प्रयत्नी छु ४४ लोकनिंदाथी डर नही ४५ राज्यभयथी त्रासु नही. ४६ असत्य उपदेश आप नही ४७ क्रिया सदोषी करु नही ४८ अहपद राखु के भाखु नही ४९ सम्यक् प्रकारे विश्व भणी दृष्टि करूं. ५० नि स्वार्थपणे विहार करु ५१ अन्यने मोहनी उपजावे एवो देखाव करु नही. ५२ धर्मानुरक्त दर्शनथी विचरु. ५३ सर्व प्राणीमा समभाव राखु. ५४ क्रोधी वचन भाखु नही. . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ पापी पचन भाखु नही ५६ असत्य आना भाख नहीं ५७ अपथ्य प्रतिना आपु नही ५८ सृष्टिसौदर्यमा मोह गवुनही ५९ सुख दुप पर समभाव कर ६० रात्रिभोजन कर नहीं ६१ जेमाथा नो, ते सेवु नहीं ६२ प्राणीने दुख पाय एवं मृपा भासू नहीं ६३ अतिथिनु समान कर ६४ परमारमानी भक्ति कर ६५ प्रत्येक स्वयबुधन भगवान मानु ६६ तने दिन प्रति पूज ६७ विद्वानोन समान बापु ६९ विद्वानोथो माया फर नहीं ६९ मायावीन विद्वान कह नही ७० कोई दर्शनने निन्दु नही ७१ अधमनी स्तुति करु नही ७२ एक्पपी मतभेद बाधु नही ७३ मज्ञान पक्षने माराघु नहीं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मात्मप्रशंसा इच्छु नही. ७५ प्रमाद कोई कृत्यमा कर नही. ७६ मासादिक आहार करु नहीं. ७७ तृप्णाने गमावू ७८ तापची मुक्त थवु ए मनोजता मानु. ७९ ते मनोरथ पार पाडवा परायण यबु ८० योगवडे हृदयने शुक्ल कर. ८१ असत्य प्रमाणधी वातपूर्ति करुं नही. ८२ असभवित कल्पना करु नही. ८३ लोक अहित प्रणीत करं नहीं. ८४ ज्ञानीनी निंदा करु नही. ८५ वैरीना गुणती पण स्तुति करु ८६ वैरभाव कोईची राखु नही. ८७ मातापिताने मुक्ति वाटे चढावु ८८ रूडी वाटे तेमनो बदलो आएं ८९ तेमनी मिथ्या आज्ञा मानु नही. ९० स्वस्त्रीमा समभावयी वर्तुं ९२ उतावळो चालू नही. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ९३ जोसभेर पार नहीं ९४ मराडयी चार नहा ९५ उच्द सल वस्त्र पहेरु नही ९६ घम्त्रनु अभिमान करु नही ९७ वधारे वाळ राखु नहीं ९८ चपोचप वस्त्र सजु नहीं ९९ अपवित्र वस्त्र पहेर नही १०० ऊनना वस्त्र पहेरवा प्रयत्न पर १०१ रेशमी वस्त्रनो त्याग धरु १०२ शात चाल्यो चालु १०३ साटो भपको वा ही १०४ उपदेशाने द्वेषषी जोउ नहीं १०५ द्वेषमानो त्याग वरु १०६ राग दृष्टिधी एक वस्तु आराधु नहीं १०७ वरीना सत्य वचनने भान आपु १०८ १०९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ वाळ राखु नही. (०) ११७ कचरो राखु नहीं. १९८ गारो कर नही-आगणा पासे. ११९ फळियामा अस्वन्त्रता राखं नहीं. (साधु) १२० फाटल कपडा राखु नही. (साध) १२१ अणगळ पाणी पीउं नही. १२२ पापी जळे नाहु नही. १२३ वधारे जळ डोळु नही. १२४ वनस्पतिने दु.ख आपु नही. १२५ अस्वच्छता राखु नही. १२६ पहोरनुं राधेलु भोजन करु नही. १२७ रसेंद्रियनी वृद्धि करु नही १२८ रोग वगर औषवनु सेवन करुं नही. १२९ विषयर्नु औषध खाउ नही. १३० खोटी,उदारता से नही. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ कृपण थाउ नही १३२ आजीविका सिवाय कोईमा माया करु नहीं १३३ आजीविका माटे घम बोधु नही १३४ वखतनो अनुपयोग फरु नही १३५ नियम वगर कृत सेवु नही १३६ प्रतिज्ञा, प्रत तोडु नही १३७ सत्य वस्तुनु सहन करु नहीं १३८ तत्त्वज्ञानमा शकित थाउ नही १३९ तत्त्व आराधता लोप निंदाथी हरु नही १४० तत्त्व आपता माया करू नहीं १४१ स्वाथन धम भाखु नहीं १४२ चारे वर्गने महन रु १४३ धम बढे स्वाथ पेदा करु नहीं १४४ धर्म बड़े अर्थ पेदा कर १४५ जडता जोईने आक्रोश पामु नही १४६ खेटनी स्मृति आणु नही १४७ मिथ्यात्वने विसजन कर १४८ बसत्यने सत्य कहु नही १४९ शृगारने उत्तेजन आपु नही Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ १५० हिंसा वडे स्वार्थ चाह नही. १५१ सृप्टिनो सेद वचार नही १५२ खोटी मोहिनी पैदा करूं नही. १५३ विद्या विना मुखं रई नही १५४ विनयने आराधी रहं. १५५ मायाविनयनो त्याग करु. १५६ अदतादान लउ नही. १५७ क्लेश कर नही. १५८ दत्ता अनीति लउं नही. १५९ दुखी करीने धन लउं नही. १६० खोटो तोल तोळु नही. १६१ खोटी माक्षी पूर्श नही. १६२ खोटा सोगन खाउं नही १६३ हासी करुं नही. १६४ समभावथी मृत्युने जो १६५ मोतथी हर्प मानवो. १६६ कोईना मोतथी हसवु नही १६७ विदेही हृदयने करतो जउ १६८ विद्यानु अभिमान करूं नही. w Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ १६९ गुरुनो गुरु बनु नही १७० अपूस आचायने पूजु नहीं १७१ खोटु अपमान तेने आपु नहीं १७२ अकरणीय व्यापार करु नही १७३ गुण वगरनु वेक्तत्व सेवु नहीं १७४ तत्त्वन तप अकाळिक कर नहीं १७५ शास्त्र वाचू १७६ पोताना मिथ्या तकने उत्तेजन आपु नहीं १७७ सर्व प्रकारनी क्षमाने चाहु १७८ सतोपनी प्रयाचना करू १८९ स्वात्मभक्ति कर १८० सामाय भक्ति करू १८१ अनुपासक थाउ १८२ निरभिमानी थाउ १८३ मनुष्य जातिनो भेद न गण १८४ जहनी क्ष्या साउ १८५ विशेषयी नयन ठहा कर १८५ सामान्ययो मित्रमाव राखु १८७ प्रत्येक वस्तुनो नियम पर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ १८८ सादा पोशाकने चाहु १८९ मधुरी वाणी भाखु. १९० मनोवीरत्वनी वृद्धि करुं १९१ प्रत्येक परिषह सहन करु १९२ आत्माने परमेश्वर मानु १९३ पुत्रने तारे रस्ते चडाव. ( पिता इच्छा करे छे) १९४ खोटा लाड लडावु नही १९५ मलिन राखु नही १९६ अवळी वातथी स्तुति करु नही , १९७ मोहिनीभावे नीरखु नही , १९८ पुत्रीनु वेशवाळ योग्य गुणे करु , १९९ समवय जोउ २०० समगुण जोउ २०१ तारो सिद्धात त्रुटे तेम ससारव्यवहार न चलाएं २०२ प्रत्येकने वात्सल्यता उपदेश. २०३ तत्त्वथी कटाळु नही २०४ विधवा छु तारा धर्मने अगीकृत करु. ( विधवा इच्छा करे छे.) २०५ सुवासी साज सजु नही Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ २०६ धमक्या करु २०७ नवरी रह नही २०८ तुच्छ विचारपर जल नही २०९ सुखनी अदेखाई कर नही २१० ससारन अनित्य मानु २११ शुद्ध ब्रह्मचर्यनु सेवन करु २१२ परपेर जउ नहीं २१३ पोई पुरुष साथे यात पर नही २१४ चचळताथी चालु नही, २१५ ताळी दई वात करु नही २१६ पुष्प-रमण राखु नहीं २१७ पाईना वह्याथी रोप आणु नहीं २१८ विदडयी खेद मानु नही २१९ मादष्टिथी वस्तु नीरखु नही २२० हृदययी वीजु रूप राखु नही २२१ गम्पनी शुद्ध भक्ति करु ( सामान्य ) २२२ नीतिथी चालु २२३ वारी माना तोड नही १२४ अपिनय पर नहीं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ २२५ गळ्या विना दूध पीउं नही. २२६ ते त्याग ठरावेली वस्तु उपयोगमा लउ नही. २२७ पापथी जय करी मानद मानु नही. २२८ गायनमां वधारे अनरक्त थउ नही २२२ नियम तोडे ते वस्तु खाउ नही. २३० गृह-सौंदर्यनो वृद्धि करु. २३१ सारा स्थाननी इच्छा न कर २३२ अशुद्ध आहार-जळ न लउ ( मुनित्व भाव ) २३३ केश लोचन करु. २३४ परिषह प्रत्येक प्रकारे सहन करु २३५ तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करु २३६ कदमूळनु भक्षण न करु २३७ कोई वस्तु जोई राचु नही २३८ आजीविका माटे उपदेशक थाउ नही (२) २३९ तारा नियमने तोडु नही २४० श्रुतज्ञाननी वृद्धि करु २४१ तारा नियमनु मंडन करु २४२ रस-गारव थउ नही. २४३ पाय घारु नही. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A what 3 4 is rait ” | My raist Alw14年 A. Mun 4} et is A Lon,} * 本事了w Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ हृदयने लोवुरूप राम्बु २६४ हृदयने जळरूप रालु. २६५ हृदयने तेलरूप रासु. २६६ हृदयने अग्निम्प राखु. २६७ हदयने आदर्शरूप राख २६८ हृदयने समुद्रस्प रात २६९ वचनने अमृतल्प राखु. २७० वचनने निद्रारूप राखु २७१ वचनने तपारूप राख. २७२ वचनने स्वाधीनरूप राखु. २७३ कायाने कमानरूप राखु २७४ कायाने चचळरूप राखु. २७५ कायाने निरपराधी राखु. २७६ कोई प्रकारनी चाहना राख नही. ( परमहस ) २७७ तपस्वी छु, वनमा तपश्चर्या कर्या करु. (तपस्वीनी इच्छा ) २७८ शीतळ छाया लउ छु. २७९ समभावे सर्व सुख सपादन करुं छु. २८० मायाथी दूर रहु छु. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ १८१ प्रपचने त्यागु छु २८२ सव त्यागवस्तुने जाणु छु २८३ खोटी प्रशसा करु नही (मु०७० उ० गृ० सामा य २८४ खोटु आळ आपु नहो २८५ खोटी वस्तु प्रणीत का नही २८६ कुटबक्लेश करु नही (गृ० उ०) २८७ अभ्याख्यान धारु नहीं ( सा०) २८८ पिशुन थउ नही २८९ असत्पथी राचु नही (२) २९० खडखड हसु नहा (स्त्री) २९१ कारण विना मा मलकावु नही २९२ कोई वेळा हस नहीं २९३ मनना मानद करता आत्मानदने चाहु २९४ सर्वने यथातथ्य भान आपु (गृहस्थ) २९५ स्थितिनो गर्व करु नहीं २९६ स्थितिनो खद पर नहीं २९७ साटो उद्यम कर नहा २९८ अनुधमी रह नहीं २९९ खोटी सलाह आप नही (ग) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ३०० पापी मलाह आ नही. ३०१ न्याय विरुद्ध कृत्य करूं नही. ( २-३ ) ३०२ खोटी आगा कोईने या नहीं. ( गु०म०व०३०) ३०३ असत्य वचन आपु नही. ३०४ सत्य वचन भग करु नहीं ३०५ पाच समितिने धारण करु. ( म० ) ३०६ अविनययी वेसु नही ३०७ खोटा मडळमा जउं नही. (गृ० मु० ) ३०८ वेश्या मामी दृष्टि करुं नही. ३०९ एना वचन श्रवण करुं नही. ३१० वाजिंत्र साभळू नही. . ३११ विवाहविधि पूछु नही. ३१२ एने वखाणु नही. ३१३ मनोरम्यमा मोह मान नही. ३१४ कर्माधर्मी करु नही (गृ० ) ३१५ स्वार्थे कोईनी आजीविका तोडु नही. ( गृ०) ३१६ वध वधननी शिक्षा करु नही. ३१७ भय, वात्सल्यथी राज चलावु (रा.) . ३१८ नियम वगर विहार करं नही. (मु०) . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ३३ ३१९ विषयनी स्मृतिए ध्यान धर्या विना रह नहीं (मुरु गृ०७० उ०) ३२० विपयनी विस्मृति ज कर (मु० गृ० उ०) ११ सब प्रकारनी नीति शीखु (मु० गुरु ७० उ०) र भयभाषा भाखु नहीं ४१३ अपशब्द बोलु, ही १२४ कोईने शिखडावु नही ३२५ असत्य मर्म भापा भावु नही ३२६ लीघेलो नियम वर्णोपरी रीत तोडु नहीं ३२७ पूठचोय करु नहीं ३२८ अतिथिनो तिरस्कार करु नही (गृ० उ०) ३२९ गुप्त वात प्रसिद्ध करु नहीं (गृ०२०) ३३० प्रसिद्ध करवा योग्य गुप्त राखु नही ३३१ विना उपयोगे द्रप रळु नहीं (म० उ०७०) ३३२ अयोग्य करार कराव नही (गृ०) ३३३ वधारे याज रउ नही ३३४ हिसाबमा भुलाबु नही ३३५ स्यूल हिंसाधी आजीविका चलावु नहीं ३३६ द्रव्यनो खोटो उपयोग पर नहीं । Page #42 --------------------------------------------------------------------------  Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ दिवसे भोग भोग नहीं ३५७ दिवसे स्पश करु नहीं ३५८ अवमापाए बोलावु नही ३५९ कोईनु व्रत भगा नहीं ३६० झाझे स्थळे भटकु नही ३६१ स्वाथ बहाने काईना त्याग मुसा नहीं ३६२ क्रियाशाळीने निदु नहीं ३६३ नग्न चित्र निहाल नहीं ५६४ प्रतिमाने निदु नही ३६५ प्रतिमाने नीरखु नहीं ३६६ प्रतिमाने पूजु ( केवळ गृहस्थ स्थितिमा) ३६ पापयी घम मानु नहो ( सव ) ३६८ सत्य वहेवारने छोडु नही (सव) । ३६९ टळ करु नहीं ३७० नग्न सूट नही ३७१ नग्न नाह नहीं । ३७२ आछा लूगडा पहेरु नहीं ३७३ झाझा अलकार पहेरु नही ३७४ अमर्यादाथी चाल नहीं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ उतावळे सादे बोल नहीं. ३७६ पति पर दाव राखु नही (स्त्री) ३७७ तुच्छ संभोग भोगववो नही. (गृ० उ०) ३७८ खेदमा भोग भोगववो नही ३७९ सायकाळे भोग भोगववो नहीं. ३८० सायकाळे जमवु नही ३८१ अरुणोदये भोग भोगववो नही. ३८२ ऊधमाथी ऊठी भोग भोगववो नही. ३८३ ऊघमाथी ऊठी जमवु नही. ३८४ शौचक्रिया पहेला कोई क्रिया करवी नही. ३८५ क्रियानी काई जरूर नथी. (परमहंस) ३८६ ध्यान विना एकाते रहु नही (मु०० उ०प०) ३८७ लघुशकामा तुच्छ थाउं नही. ३८८ दीर्घशंकामा वखत लगाडु नही. ३८९ ऋतुऋतुना शरीरधर्म साचवु (गृ०) ३९० आत्मानी ज मात्र धर्मकरणी साचवु. (मु०) ३९१ अयोग्य मार, बधन करु नही. ३९२ आत्मस्वतत्रता खोउ नही. (मु० गृ० न०) ३९३ बंधनमा पड्या पहेला विचार करु. (सा०) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ पूर्वित भोग मभाग नही (मु० गु०) ३९५ अयोग्य विद्या साधु नही (मु० गृ० ७० उ०) ३९६ बोचू पण नहीं ३९७ वण सपनी वस्तु ल र नहीं ३९८ नाहू नहीं (मु०) ३९९ दातण करु नहीं ४०० ससारमुख चाहु नही ४०१ नीति विना ससार भोगवु नही (गृ०) ४०० प्रसिद्ध रीते कुटिरताथी भोग वणवु नही (ग०) ४०३ विरहाय गयु नही (मु० गृ० प्र०) ४०४ अयोग्य उपमा आपु नहीं (मु० गृ० ० उ०) ४०५ स्वाप माटे क्रोध का नहीं (मु० गृ०) ४०६ वादया प्राप्त करु नही (उ०) ४०७ अपवादयी सेद करु नही ४०८ धर्मद्रन्यना उपयोग करी श नहीं (गृ०) ४०९ दावे-धममा पाळु (गृ०) ५१० सयसग परित्याग करु (परमहस) ४११ तारो बोलो मारो घम विसारु नही (मर्व) ४१२ स्वप्नानद खेद करू नहीं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ आजीविक विद्या सेवू नही. (म०) ४१४ तपने वेचुं नही (गृ० ब्र०) ४१५ वे वखतथी वधारे जमुं नही. (गृ० मु० ज० उ०) ४१६ स्त्री भेळो जमु नही (गृ० उ०) ४१७ कोई माथे जमु नही (स०) ४१८ परस्पर कवळ आपुं नही, लउं नही. (म०) ४१९ वधारे ओछु पथ्य सावन करं नही. (स०) ४२० नीरागीना वचनोने पूज्यभावे मान आपं. ४२१ नीरागी ग्रन्यो वांच. ४२२ तत्त्वने ज ग्रहण करूं ४२३ निर्माल्य अध्ययन करुं नही. ४१४ विचारशक्तिने खोलव ४२५ ज्ञान विना तारो धर्म अंगीकृत करुं नही. ४२६ एकातवाद लउं नही. ४२७ नीरागी अध्ययनो मुखे कर ४२८ धर्मकथा श्रवण करूं. ४२९ नियमित कर्तव्य चूकुं नही ४३० अपराधशिक्षा तोडुं नही. ४३१ याचकनी हासी करु नही Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सत्पात्रे दान आपु ४३३ दीननी दया खास ४३४ दुखीनो हासी करु नहीं ४३५ क्षमापना वगर पपन करु नहीं ४३६ आळसने उत्तेजन आएं नही ४३७ सृष्टिक्रम विष्ट कर्म कर नहीं ४३८ स्त्रीगण्यानो त्याग वरु ४३९ निवृत्ति माधन ए विना सपळ श्यागु छु ४४. ममलेष बरु नहो ४४१ परदु से दाग ४२ अपराधी पर पण क्षमा पर w३ अयोग्य लेरा लत नहीं we बापजनो विजय जावं ४४५ धनवव्या दम्प यापता माया न बने w६ नम्र वीर यथो सत्य योय ४४७ परमहसनी हाँसी पर नहीं ४८ बाद जोताही मादामा जोई हर्नु नहीं ४५० प्रवाही पदार्पा मोढ़ षोउ नाही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ च्वी पडावु नही. ४५२ अयोग्य रबी पडावू नही. ४५३ अधिकारनो गैरउपयोग कर नही. ४५४ खोटी हा कह नही. ४५५ क्लेगने उत्तेजन बापु नही. ४५६ निंदा कत नहीं ४५७ कर्तव्य नियम कुं नही. ४५८ दिनचर्यानो गेरउपयोग कर नही. ४५९ उत्तम शक्तिने साध्य कर, ४६० शक्ति वगरनं कृत्य करूं नही ४६१ देश काळादिने बोलखु. ४६२ कृत्यतुं परिणाम जोड. ४६३ कोईनो उपकार ओळवू नही. ४६४ मिथ्या स्तुति करुं नही. ४६५ खोटा देव स्थापुं नही. ४६६ कल्पित धर्म चलावु नही. ४६७ नृष्टिस्वभावने अवर्म कह नही. ४६८ सर्व श्रेष्ठ तत्त्व लोचनदायक मानु. ४६९ मानता मानु नही. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० अयोग्य पूजन कर नहीं ४७१ रात्रे शीतळ जळयी नाहु नही ४७२ दिवमे त्रण यखत नाहु नहीं ४७३ माननी अभिलापा राखु नहीं ४७४ आरापादि सेवु नही ४७५ बोजा पामे वात करु नहा ४७६ टूकु लप राखु नही ४७७ उमाद सेवु नहो १७८ रोद्रादि रसनो उपयोग करु नहीं ४७९ शात रसने निदु नहीं ४८० सत्कर्ममा आहो आवु नही (मु० ग०) ४८१ पाछो पाहवा प्रपल पर नहा ४८२ मिय्या हठ एउ नहीं ४८३ अवाचने दुःस आपु मही ४८४ सोडीलानी सुपगाति बधार ४८५ नीतिगास्त्रने मान आपु ४८६ हिंसक धमन पळगु नही ४८७ अनापारी धमने पटगु नही ४८८ मिथ्यावादीने पळगु नहीं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ शृगारी धर्मने बळगुं नही. ४९० अज्ञान धर्मने वळगुं नही. ४९१ केवळ ब्रह्मने वळगुं नही. ४९२ केवळ उपासना सेवू नही. ४९३ नियतवाद से नहीं ४९४ भावे सृष्टि अनादि अनत कहु नही. ४९५ द्रव्ये सृष्टि सादिअत कहुं नहीं ४९६ पुरुषार्थने निन्दु नही. ४९७ निष्पापीने चचळताथी छळू नही. ४९८ शरीरनो भत्सो करुं नही. ४९९ अयोग्य वचने वोलावु नही. ५०० आजीविका अर्थे नाटक करुं नही. ५०१ मा, बहेनथी एकाते रहु नही. ५०२ पूर्व स्नेहीओने त्या आहार लेवा जउं नही. ५०३ तत्त्वधर्मनिंदक पर पण रोष धरवो नही ५०४ धीरज मूकवी नही. ५०५ चरित्रने अद्भुत करवं. ५०६ विजय, कीति, यश सर्वपक्षी प्राप्त करवा. ५०७ कोईनो घरसंसार तोडवो नही. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ अतराय नाखवी नही ५०. सुक्ल धम सडवो नही ५१० निवाम गाल आराधव ५११ त्वरित भाषा बोलवी नहा ५१२ पापप्रय गृथु नही ५१३ क्षौर समय मौन रहु ५१४ विषय समय मौन रह ५१५ फ्लेश समय मौन रह ५१६ जळ पीता मौन रह ५१७ जमता मौन रहु ५१८ पशुपद्धति जळपान करु नही ५१९ यूदको मारी जळमा पडु नही ५२० स्मशाने वस्तुमात्र चाखु नही ५२१ न्घु गयन करु नही ५२२ वे पुरुषे साये सूवु नही ५२३ वे स्त्रीए साये मूव नहीं ५२४ शास्त्रनी आशातना पर नहीं ५२९ गुरु आनिम्नी समज ५२६ स्वार्षे योग, तप माघ नही Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ देगाटन पानं. ५२८ देगाटन कार नही. ५२९ नोमाने स्थिरता कर ५३० सभामा पान सा नही. ५३१ स्वस्त्री साथे मर्यादा सिवाय फर नहीं ५३२ भूलनी विम्मति करवी नही. ५३३ क० कलाल, मोनीनी दुकाने बैसव नही. ५३४ कारीगरने त्या (गुरुत्वे) जव नही ५३५ तमाकु मेववी नही. ५३६ सोपारी वे वखत खावी ५३७ गोळ कूपमा नाह्वा पडुनही. ५३८ निराश्रितने आश्रय आपुं. ५३९ समय विना व्यवहार वोलवो नहीं ५४० पुत्र लग्न कर. ५४१ पुत्री लग्न करूं. ५४२ पुनर्लग्न करुं नहीं ५४३ पुत्रीने भणाव्या वगर रहुं नही. ५४४ स्त्री विद्यागाळी शोधु, करु. ५४५तिओने धर्मपाठ शिखडावु. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ प्रत्येप गृह शाति विराम राषयां ५४७ उपरेशनने समान मापु ५४८ अनत गुणधमपी भरेला सृष्टि छ एम मानु ५४९ कोई पाउ तत्त्व यडे परी दुलियामांयी दुम जो एम मानु ५५० दुप भने स्वद भ्रमणा छ ५५१ माणस चाहे ते करायो ५५२ शौर्य, बुद्धि इ० नो सुसद उपयोग परु ५५३ कोई काळे मने दु सो मानु नहीं ५५४ सृष्टिना दुम प्राणन यह ५५५ सर्व साध्य मनोरष धारण कर ५५६ प्रत्येक तत्वज्ञानीओने परमेश्वर मातृ ५५७ प्रत्यकनु गणतत्त्व ग्रहण करु ५५८ प्रत्येक्ना गुणने प्रफुल्लित करु ५५९ वुटुबन स्वर्ग बनाय ५६० सृष्टिन स्वर्ग बनायु तो कुटुदन मोक्ष बनायु ५६१ तत्त्वा सुष्टिो सुखी करता हु स्थाप अपु ५६२ सृष्टिना प्रत्येक (-) गुणनी वृद्धि मक ५६३ सृष्टिना दाखल यता सुधी पाप पुण्य छे एम मान Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ५६४ ए सिद्धात तत्त्वधर्मनो छे; नास्तिकतानो नयी एम मार्नु. ५६५ हृदय शोकित करु नही. ५६६ वात्सल्यताथी वैरीने पण वश करूं. ५६७ । जे करे छे तेमा असंभव न मानु ५६८ का न कर, उथापु नही; मडन कर ५६९ राजा छतां प्रजाने तारे रस्ते चडावु ५७० पापीने अपमान आपु. ५७१ न्यायने चाहु, वर्तुं. ५७२ गुणनिधिने मान आपु. ५७३ तारो रस्तो सर्व प्रकारे मान्य राखु ५७४ धर्मालय स्थापुं ५७५ विद्यालय स्थापु ५७६ नगर स्वच्छ राखु ५७७ वधारे कर नाखु नही ५७८ प्रजा पर वात्सल्यता धरावु ५७९ कोई व्यसन सेवु नही. ५८० वे स्त्री परणु नही. ५८१ तत्त्वज्ञानना प्रायोजनिक अभावे वीजी परणु ते अपवाद. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ब ( ) पर राममा जोड ५८३ सेवक तत्त्वन राम ५८४ बमान क्रिया सनी दर ५८५ मान क्रिया सयवा माटे ५८६ वपटने पण जाणवू ५८७ असूया से नहीं ५८८ धम भाजा सवपी श्रेष्ठ मानु छु ५८९ सदगति धमीज मवीश ५९० सिद्धांत मानी, प्रणीत परीश ५९१ धर्म महात्मायोने समान दई। ५९२ शान विना सपळी याचनाओ त्याग ५९३ मिक्षाचरी याचना सवु छु ५९४ चतुर्मास प्रवास कई नही ५९५ जेनी तें ना कही त माट शोधु के पारण मागु नही ५९६ देहपात करू नही ५९७ व्यायामादि सेवीश ५९८ पौपधादिक प्रत सेवु छु, ५९९ यापेरो मात्रम सवु छु ६०० अकरणीय क्रिया, शान साधु नहीं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ६०१ पाप व्यवहारना नियम वांच नहीं ६०२ धुत-रमण करुं नही. ६०३ रा क्षौर-कर्म करावु नही. ६०४ ठासोठांस मोड ताणु नही. ६०५ अयोग्य जागृति भोग नहीं ६०६ रसस्वादे तनधर्म मिथ्या करु नही. ६०७ एकात गारीरिक धर्म आरावू नही ६०८ अनेक देव पूजें नही ६०९ गुणस्तवन सर्वोत्तम गणु. ६१० सद्गुणतु अनुकरण करु. ६११ शृगारी जाता प्रभु मानुं नही. ६१२ सागर प्रवास करु नही ६१३ आश्रम नियम्गेने जाणु. ६१४ क्षौर-कर्म नियमित राखवु ६१५ ज्वरादिकमां स्नान करवु नही ६१६ जळमा डूबकी मारवी नही ६१७ कृष्णादि पाप लेश्यानो त्याग करुं छु ६१८ सम्यक समयमा अपध्याननो त्याग करु छ ६१९ नाम भक्ति सेवीश नही. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० मा कमा पाणी पीउ नही ६२१ आहार अते पाणी पीउ नहीं ६२२ चालता पाणी पीउ नही ६२३ रात्रे गळ्या विना पाणी पीठ नहीं ६२४ मिथ्या भाषण वरु नहीं ६२५ सत् शब्दोने समान मापु १२६ अयोग्य यावं पुरुष नीरस नही ६२७ अयोग्य वचन भाखु नहीं ६२८ उघाडे शिर येसु नही ६२९ वारवार अवयवो नीरसु नहीं ६३० स्वम्पनी प्रशसा पहनही ६३१ पाया पर गृद्धभावे राचु नही ६३२ मार भोजन करू नहीं ६३३ तीत्र हृदय राख नहीं ६३४ मानार्थे कृत्य का नही ६३५ पीत्यर्थे पुण्य करु नही ६३६ फल्पित कथा दष्टात सत्य कह नहीं ६३७ अजाणी वाटे राने चालु नहीं ६२८ शक्तिलो गेरउपयोग पर नहो । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ६३९ स्त्रीपक्षे धन प्राप्त करुं नही. ६४० बंध्याने मातृभावे सत्कार दउं. ६४१ अकृत धन लउं नहो. ६४२ वळदार पाघडी बाधु नही. ६४३ वळदार चलोठो पहेरु नही. ६४४ भलिन वस्त्र पहे. ६४५ मृत्यु पाछळ रागथी रोउ नही. ६४६ व्याख्यानशक्तिने आराधु. ६४७ धर्मनामे क्लेशमा पडु नही. ६४८ तारा धर्म माटे राजद्वारे केस मूक नही ६४९ बने त्या सुधी राजद्वारे चढु नही. ६५० श्रीमंतावस्थाए वि० शाळाथी करूं ६५१ निर्घनावस्थानो शोक करु नही. ६५२ परदु खे हर्ष धरूं नही. ६५३ जेम बने तेम धवळ वस्त्र सगँ. ६५४ दिवसे तेल नाखु नही. ६५५ स्त्रीए रात्रे तेल नाखवु नही. ६५६ पापपर्व सेवु नही. ६५७ धर्मी, सुयशी एक कृत्य करवानो मनोरथ धरावं छु. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ गाळ साभळु पण गाळ द नहीं ६५९ गुक्ल एकातनु निरतर सेवन कर छु ६६० सर्व धाक मेळापमा जउ नही ६६१ झाड तळे रात्रे शयन करु नही ६६२ वा काठे रात्र वेमु नही ६६३ एक्य नियमने तोडु नही ६६४ तन, मन धन, वचन अने आत्मा समर्पण कर छु ६६५ मिथ्या परद्रव्य त्यागु छु ६६६ अयाग्य शयन त्यागु छु ६६७ अयोग्य दान त्यागु छु ६६८ बुद्धिनी वृद्धिना नियमो तजु नही ६६९ दासत्व-परम-राम त्यागु छु ६७० धमधूर्तता त्याग छु ६७१ मायाथी निवतु छु ६७२ पापमुक्त मनोरथ स्मृत करु छु ६७३ विद्यादान देता छल त्यागु छु ६७४ सतने सक्ट आपु नहीं ६७५ यजाण्यान रस्ता बतावू ६७६ वे भाव राखु नही Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. ६७७ वस्तुमा मेळभेळ करु नही. ६७८ जीवहिंसक व्यापार करु नही .६७९ ना कहेला अथाणादिक सेवु नही ६८० एक कुळमा कन्या आयु नही, लउ नही. ६८१ सामा पक्षना सगा स्वधर्मी ज खोळीश ६८२ धर्मकर्तव्यमा उत्साहादिनो उपयोग करीश ६८३ भाजीविका अर्थे सामान्य पाप करता पण कपतो जईश ६८४ धर्ममित्रमा माया रमु नही ६८५ चतुर्वर्णी धर्म व्यवहारमा भूलीश नही ६८६ सत्यवादीने सहायभूत थईश. ६८७ धूर्त त्यागने त्यागु छु. ६८८ प्राणी पर कोप करवो नहीं ६८९ वस्तुनुं तत्त्व जाणवु ६९० स्तुति, भक्ति, नित्यकर्म विसर्जन करुं नही ६९१ अनर्थ पाप करु नही ६९२ आरभोपाधि त्यागु छु ६९३ कुसग त्यागु छु 1.६९४ मोह त्यागु छु Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९५ दोपनु प्रायश्चित्त करीश ६९६ प्रायश्चित्तादिकनी विस्मृति नहीं कर ६९७ सघळा करता धर्मवग प्रिय मानीश ६९८ तागे घम त्रिकरण गुद्ध सेवामा प्रमाद नहीं कर बनीस योग सत्पुरुषो नीचेना वोस योगना सग्रह परी आत्मान उज्ज्वळ करवान कहे छ १ गिष्य पोताना जैवो थाय तने माटे तेन धुतादिर ज्ञान मापवु *२ पोताना आचायपणानु जे मान हाय तना अयने योध यापचो बने प्रयास करता * पाठातर-१ मौसमाधा योग पाटे गिप्ये आपाय पाम बागचना परया थानार्य बाPITना श्रीगा पाग प्रवाशवी नही Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आपत्तिकाळे पण धर्मनुं दृढपणु त्यागवू नही. ४ लोक, परलोकना सुखना फळनी वाछना विना तप करवू ५ शिक्षा मळी ते प्रमाणे यत्नाथो वर्तवू, अने नवी शिक्षा विवेकथी ग्रहण करवी ६ ममत्वनो त्याग करवो. ७ गुप्त तप करवु ८ निर्लोभता राखवी. ९ परिषह उपसर्गने जीतवा. १० सरळ चित्त राखवु. ११ आत्मसंयम शुद्ध पाळवो १२ समकित शुद्ध राखवु. १३ चित्तनी एकाग्न समाधि राखवी. १४ कपटरहित आचार पाळवो १५ विनय करवायोग्य पुरुषोनो यथायोग्य विनय करवो. १६ सतोषथी करीने तृष्णानी मर्यादा टूकी करी नाखवी. १७ वैराग्य भावनामा निमग्न रहेव १८ मायारहित वर्तवु. १९ शुद्ध करणीमा सावधान थवु. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सवरने आदरवो अने पापने रोक्वा २१ पोताना दोप समभावपूर्वक टाळवा २२ सर्व प्रकारना विषयथी विरत रहे २३ मूळगुणे पचमहाबत विशुद्ध पाळवा २४ उत्तरगुणे पचमहाव्रत विशुद्ध पाळवा २५ उत्साहपूर्वक कायोत्सर्ग करवो २६ प्रमादरहित पान ध्यानमा प्रवर्तन करवु २७ हमेशा आत्मचारित्रमा सूक्ष्म उपयोगयी वतवु २८ ध्यान, जिद्रियता अर्थे एकाग्नतापूर्वक करवू २९ मरणात दुखथी पण भय पामवो नही ३० स्त्रीआदिकना सगने त्यागवो ३१ प्रायश्चित्त विशुद्धि करवी ३२ मरणकाले आराधना परवी ए एकेको योग अमूल्य छ सघळा सग्रह करनार परिणामे अनत सुखने पामे छ वि० स० १९४० चैत्र Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिमा राखवा योग्य महावाक्यो :१ एक भेदे नियम ए ज आ जगतनो प्रवर्तक छे. २ जे मनुष्य सत्पुरुषोना चरिवरहस्यने पामे छे, ते मनुष्य परमेश्वर थाय छे. ३ चंचळ चित्त ए ज सर्व विषम दुःख मूळियु छ ४ झाझानो मेळाप अने थोडा साथे अति समागम ए बन्ने समान दुखदायक छ ५ समस्वभावीतुं मळवु एने ज्ञानीओ एकात कहे छ ६ इन्द्रियो तमने जीते अने सुख मानो ते करता तेने तमे जीतवामा ज सुख, आनद अने परमपद प्राप्त करशो. ७ राग विना ससार नथी अने ससार विना राग नथी. ८ युवावयनो सर्वसग परित्याग परमपदने आपे छे. ९ ते वस्तुना विचारमा पहोचो के जे वस्तु अतीद्रिय स्वरूप छे. १० गुणीना गुणमा अनुरक्त थाओ वि० स० १९४० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ वचनामृत १ आ तो बखर सिद्धात मानजो के सयोग, वियोग, सुख दुख, ग्वेद, आनद, अणराग, अनुराग इत्यादि योग कोई व्यवस्थित कारणने लईने रह्या छ २ एकात भावी के एकात यायदोषने समान न आपजो ३ कोईनो पण समागम करवा योग्य नथी छता ज्या सुधी तेवी दशा न थाय त्या सुधी सत्पुरुपनो समागम अवश्य सेववो घटे छे ४ जे कृत्यमा परिणामे दुस छे तेने ममान आपता प्रथम विचार करो ५ कोईने अतकरण आपशो नही, आपो तैनाथी भिन्नता राखशो नही, भिन्नता राखो त्या अत करण आप्यु तन माया समान छ ६ एक भोग भोगवे छे छता कमनी वृद्धि नथी फरतो, अने एव भोग नयी भोगवतो छता धमनी वृद्धि परे छ ए आश्चयकारण पण समजवा योग्य मपा छे ७ योगानुयोगे बनेलु कृत्य घड सिद्धिने आपे छे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ८ आपणे जेनाथी पटंतर पाम्या तेने सर्वस्व अर्पण करतां अटकशो नही. ९ तो ज लोकापवाद सहन करवा के जेथी ते ज लोको पोते करेला अपवादनो पुन पश्चात्ताप करे. १० हजारो उपदेशवचनों, कथन साभळवा करतां तेमाना घोडा वचनो पण विचारवां ते विशेष कल्याणकारी छे. ११ नियमथी करेलुं काम त्वरायी थाय छे, घारेली सिद्धि आपे छे; आनंदना कारणरूप घई पडे छे १२ ज्ञानीमोए एकत्र करेला अद्भुत निधिना उपभोगी थाओ १३ स्त्रीजातिमा जेटलु मायाकपट हे तेटलु भोळपणं पण छे. द्धे १४ पठन करवा करता मनन करवा भणी बहु लक्ष आपजो १५ महापुरुषना आचरण जोवा करता तेनुं अन्तःकरण जोवु ए वधारे परीक्षा छे. १६ वचनसप्तशती पुन पुन. स्मरणमा राखो. १७ महात्मा वुं होय तो उपकारबुद्धि राखो; सत्पुरुषना समागममा रहो; आहार, विहारादिमा अलुब्ध अने Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमित रहो सत्शास्त्रनु मनन करो, रुची थेणिमा लय राखो १८ ए एक्के न होय तो ममजीने आनद राखता शीखो १९ वतनमा बाल्क थाओ, सत्यमा युवान थाओ, ज्ञानमा वृद्ध थाओ २० राग करवो नही, परवो तो सत्पुस्प पर फरवो, द्वेष फरवो नही, करवो तो कुशील पर करवो २१ अनतज्ञान, जनतदर्शन अनतचारित्र अने अनतवीर्यथी अभेद एवा यात्मानो एक पळ पण विचार करो २२ मनने का क्यु तेणे जगतने वश कयु। २३ आ ससारन शुक्रवो ? अनत वार थयेली माने आजे स्त्रीरूपे भोगवीए छीए २४ निग्रथता धारण करता पहेला पूर्ण विचार करजो, ए लईने खामी आणया करता अल्पारमी थजो । २५ समथ पुग्पो पल्याणनु स्वरूप पोकारी पोवारीने कही गया, पण कोई विरलाने ज ते ययाय समजायु २६ स्त्रीता स्वरूप पर मोह यतो अटकाववाने वगर त्वचान तेनु रूप वारवार चितववा योग्य छ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ कुपात्र पण सत्पुरुषना मूकेला हस्तथी पात्र थाय छे. जेम छाशथी शुद्ध थयेलो सोमल शरीरने नीरोगी करे छे २८ आत्मानु सत्य स्वरूप एक शुद्ध सच्चिदानंदमय छे, छता भ्रातिथी भिन्न भासे छे, जेम त्रासी आख करवाथी चद्र बे देखाय छे २९ यथार्थ वचन ग्रहवामा दभ राखशो नही के आपनारनो उपकार ओळवशो नही ३० अमे बहु विचार करीने आ मूळतत्त्व शोध्य छे के गुप्त चमत्कार ज सृष्टिना लक्षमा नथी ३१ रडावीने पण बच्चाना हाथमा रहेलो सोमल लई लेवो ३२ निर्मळ अत करणथी आत्मानो विचार करवो योग्य छे. ३३ ज्या 'हु' माने छे त्या 'तु' नथी; ज्या 'तु' माने छे त्या 'तु' नथी. ३४ हे जीव ! हवे भोगथी शात था, गात विचार तो खरो के एमा कयु सुख छे ? ३५ बहु कटाळीने ससारमा रहीश नही ३६ मत्ज्ञान अने सत्शीलने साथे दोरजे. ३७ एकथी मैत्री करीश नही, कर तो आखा जगतथी करजे. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ महा सौंदययी भरेली देवागनाना क्रीडा विलास निरीक्षण करता छता जेना अत वरणमा कामधी विशेष विशेष विराग छूटे छे तेने प य छे तेने त्रिकाळ नमस्कार छ ३९ भोगना वखतमा योग साभर ए हळुकर्मीनु एभण छे ४० आटलु होय तो ह मोक्षनी इन्छा करतो नथौ आखी मृष्टि सतगीलने सवै नियमित आयुष्य, नीरोगी शरीर, अचळ प्रेमी प्रेमदा, आक्ति अनुचर, कुळदीपय पुत्र, वनपयत बाल्यावस्था आत्मतत्त्वनु चितवन ४१ एम कोई काळे थवानु नथी, माटे हु तो मोक्षने ज इच्छु छु ४२ सृष्टि सर्व अपेक्षाए अमर थशे ? ४३ कोई अपेक्षाए हु एम कहु छु के सृष्टि मारा हाथथी चालतो होत तो बहु विवकी धोरणथी परमानदमा विराजमान होत १४४ शुक्ल निजनावम्याने हु बहु मान्य करु छु ४५ सृष्टिीलामा गातभावयो तपश्चर्या करवी ए पण उत्तम छे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ एकातिक कथन कथनार ज्ञानी न कही शकाय, ४७ शुक्ल अंत करण विना मारा कथनने कोण दाद आपशे? ४८ ज्ञातपुत्र भगवानना कयननी ज बलिहारी छे ४९ हु तमारी मूर्खता पर हसु छु के-नयी जाणता गुप्त चमत्कारने छता गुरुपद प्राप्त करवा मारी पासे का पचारो? ५० अहो ! मने तो कृतघ्नी ज मळता जणाय छे, मा केवी विचित्रता छ । ५१ मारा पर कोई राग करो तेथी हु राजी नथी, परतु कंटाळो आपशो तो हु स्तब्ध थई जईश अने ए मने पोसाशे पण नही. ५२ हुं कहुं छु एम कोई करशो ? मारूं कहेलुं सघळु मान्य राखशो ? मारा कहेला घाकडे धाकड पण अगीकृत करशो ? हा होय तो ज हे सत्पुरुष । तुं मारी इच्छा करजे. ५३ संसारी जीवोए पोताना लाभने माटे द्रव्यरूपे मने हसतो रमतो मनुष्य लीलामय कर्यो। ५४ देवदेवीनी तुषमानताने शु करीशु ? जगतनी तुष मानताने शु करीशु ? तुषमानता सत्पुरुषनी इच्छो. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ हु सच्चिदानः परमारमा छु ५६ एम समजो के तुम नमारा माना दिनु माटे परवरवानी अभिरापा राम्ता छता एपी निराशा प्राप्त यई तो ते पातमा या महित जछे ५७ तमारा शुभ विचारमा पार पडा, नहीं दायर चित्तथी पार पडया छो एम ममत्रो ५८ ज्ञानीओ अतरग खेद अने हपया हित हाय छ ५९ ज्या सुधा ते तत्वना प्राप्ति नहा थाप त्या मुधी मोसनी तात्पपता मळी नयी ६० नियम पाठवानु दद करता छता नया पती पर मनोज दोष छ म मानीग्रोनु कह रहे ६१ मसारम्पी कुटुबने घेर आपणा मामा पराणा दायर ६२ एज भाग्यशाली के जे दुर्भाग्यपाळीनी दया पाय छे ६३ शुभ द्रव्य ए गुम भावनु निमित्त महपिओ पहे ? ६४ स्थिर चित्त करीने धर्म मन गुरूर ध्यानमा प्रवृत्ति परा ६५ परिमनी मूळ पापनु मुळ छ ६६ जे कृत्य करवा वखते व्यामोहमयुक्त खेदमा छा, अने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामे पण पस्ताओ छो, तो ते कृत्यने पूर्वकर्मनो दोप ज्ञानीओ कहे छे ६७ जडभरत अने जनक विदेहीनी दशा मने प्राप्त थाओ. ६८ सत्पुरुषना अत करणे आचर्यो किंवा कह्यो ते धर्म. ६९ अंतरग मोहनथि जेनी गई ते परमात्मा छे ___७० व्रत लईने उल्लासित परिणामे भागशो नही ७१ एकनिष्ठाए ज्ञानीनी आज्ञा आराधता तत्त्वज्ञान प्राप्त थाय छे. ७२ क्रिया ए कर्म, उपयोग ए धर्म, परिणाम ए बघ, भ्रम ए मिथ्यात्व, ब्रह्म ते आत्मा अने शका ए ज शल्य छे शोकने सभारवो नही, आ उत्तम वस्तु ज्ञानीमोए मने आपी ७३ जगत जेम छे तेम तत्त्वज्ञाननी दृष्टिए जुओ ७४ श्री गौतमने चार वेद पठन करेला जोवाने श्रीमत् महावीरस्वामीए सम्यक्नेत्र आप्या हता. ७५ भगवतीमा कहेली पुद्गल नामना परिव्राजकनी कया तत्त्वज्ञानीओनु कहेलु सुंदर रहस्य छे. ' Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE मौतम मानी पनो परकम बने गुण ७७ सयाने पामीने 4 ग म पात्र शिक्षारोमो पण मारमहिन माणको २८ मा जागे बस अचाप में भारी पारसी माहिर मारा राणी मपी युदरत ७९ मग परमेरपर गाय ऐपम मोपदे से ८. सारापपा गाम अनप तस्वप्टिर पुन पुन अपरोसो जीर्ण मराय तो फरोमर पर एवं मरण या माग्य के ८२ अवता पेयो एको महादाप मन सागसो नपी ८३ मग माग होत सा बही न मागोता ८४ पातुने वस्तुगते जुओ ५ पर्मन मूळ वि. ८५ नाम दिया । जेनापी अपिता प्राप्त पाय ८७ वीरता एस पासपी पण समत्रो Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अहपद, कृतघ्नता, उत्सूत्रप्ररूपणा, अविवेक धर्म ए माठी गतिना लक्षणो छे. ८९ स्त्री, कोई अग लेशमात्र सुखदायक नथी छता मारो देह भोगवे छे. .९० देह अने देहार्थममत्व ए मिथ्यात्व लक्षण छे. -९१ अभिनिवेशना उदयमा उत्सूत्रप्ररूपणा न थाय तेने हु महाभाग्य, ज्ञानीओना कहेवाथी कहुं छु " ९२ स्याद्वाद शैलीए जोतां कोई मत असत्य नथी. . . ९३ स्वादनो त्याग ए आहारनो खरो त्याग ज्ञानीओ.कहे छे ९४ अभिनिवेश जेवु एक्के पाखड नथी. '९५ आ काळमा आटलु वध्युं .-झाझा मत, झाझा तत्त्व ज्ञानीओ, झाझी माया अने झाझो परिग्रहविशेष ___९६ तत्त्वाभिलापाथी मने पूछो तो हु तमने नीरागी धर्म बोधी शकुं खरो. ९७ आखा जगतना शिष्य थवारूप दृष्टि जेणे वेदी नयी ते सद्गुरु थवाने योग्य नथी ९८ कोई पण शुद्धाशुद्ध धर्मकरणी करतो होय तो तेने करवा दो. . , , .. ,": Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ आरमानो धर्म आत्मामा न छ १०० मारा पर सघळा सरळ भावयी हुकम चलायो तो हु । राजी छु १०१ हु ससारथी लेश पण रागसयुक्त नयी छता तेने ज भोग छ, माई में त्याग्यु नपी । १०२ निर्विकारी दशाथी मने एकलो रहेवा दो १०३ महावीरे जे ज्ञानयी आ जगतने जोय छे ते शान सव आत्मामा छ, पण माविर्भाव फरवु जाईए । १०४ बहु छकी जाओ तो पण महावीरनो आमा तोडशो नही गमे तेवी शुका थाय छो पण मारी वती वीरने निःशक गणजो १०५ पाश्वनाथ स्वामीनु ध्यान योगीओए अवश्य स्मर जोईए छे नि -ए नागनी छत्रछाया वळानो पार्वनाथ ओर हतो! १०६ गजसुकुमारनी क्षमा अने राजेमतो रहनेमीने बोधे छे ते बोध मने प्राप्त थामो १०७ भोग भोगवता सुधी (ज्या सुधी ते कर्म छे त्या सुधी) मने योग ज प्राप्त रहो! Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ १०८ मर्व शाम्मन पा तत्त्व भने मन्य हे एम कहुं तो मा अहपद नथी. १०९ न्याय मने बहु प्रिय छे. वीरनी गैली ए ज न्याय छे, समजवु दुर्लभ छे ११० पवित्र पुरुपोनी कृपादृष्टि ए ज मम्यदर्शन छ १११ भर्तृहरिए कहेलो त्याग विशुद्ध बुद्धिथी विचारता धणी ऊवंशानदशा थता सुधी वर्ते छे. ११२ कोई धर्मथी हु विरुद्ध नयी. सर्व धर्म हु पाळु छु तमे सघळा धर्मथी विरुद्ध छो एम कहेवामां मारो . . . उत्तम हेतु छे. ११३ तमारो मानेलो धर्म मने कया प्रमाणथी वोवो छो ते मारे जाणवु जरूरनुं छे. ११४ शिथिल बंध दृष्टियो नीचे आवीने ज विखेराई जाय (--जो निर्जरामा आवे तो) ११५ कोई पण शास्त्रमा मने शका न हो. ११६ दुःखना मार्या वैराग्य लई जगतने आ लोको भ्रमावे छे ११७ अत्यारे, हु कोण छु एनु मने पूर्ण भान नथी. : ११८ तुं सत्पुरुषनो शिष्य छे. . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ ए ज मारी आगगक्षा छ १२० मने कोई गजसुकुमार जेवा वखत आवो १२१ कोई राजेमती जेवो वरत मावा । १२२ सत्पुरुषो पहेता नयी करता नथी, छता ती सत्पुरुषता निर्विकार मुखमुद्रामा रही छ १२३ सस्थानविचयध्यान पूर्वधारीओने प्राप्त थतु हो एम मानव योग्य लागे छे तम पण सन घ्यायन करो १२४ आत्मा जेवो कोई देव नयी . १२५ कोण भाग्यशाळी ? अविरति सम्यग्दृष्टि के विरति ? १२६ काईनी आजीविका तोडशा नहीं वि० स० १९४३ कातिक १ थोडा वाक्यो १ विशाळ बुद्धि, मध्यस्थता, तरळता अने जितेंद्रियपणु । आटला गुणो जे आत्मामा होय त तत्त्व पामवानु उत्तम पानछे २ जगतमा नीरागीत्व, विनयता अने सत्पुरुषना आशा ए Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही मळवायी ना आत्मा अनादिकाळथी रखडयो, पण निरुपायता थई ते थई हवे आपणे पुरुषार्थ करवो उचित छे. जय थाओ! ३ परमात्माने घ्याववाघी परमात्मा थवाय छे, पण ते ध्यावन, आत्मा सत्पुरुषना चरणकमळनी विनयोपासना विना प्राप्त करी शकतो नथी. ए निग्रन्थ भगवान, सर्वोत्कृष्ट वचनामृत छे. ४ बाह्यभावे जगतमा वर्ता अने अंतरंगमा एकात शीतली भूत-निलेप रहो, ए ज मान्यता भने वोधना छे. ५ इच्छा वगरनुं कोई प्राणी नथी. विविव आशाथी तेमा पण मनुष्यप्राणी रोकायेलुं छे. इन्छा, आशा ज्या सुपी अतृप्त छे, त्या सुधी ते प्राणी अधोवृत्तिवत् छे. इच्छा जयवाळु प्राणी ऊर्ध्वगामीवत् छे. ६ तेने मोह शो, अने तेने शोक शो, के जे सर्वत्र एकत्व ( परमात्मस्वरूप ) ने ज जुए छे. ७ तृषातुरने पायानी महेनत करजो अतृषातुरने तृपातुर थवानी जिज्ञासा पेदा करजो. जेने ते पेदा न थाय तेवु होय, तेने माटे उदासीन रहेजो. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दष्टिविप गया पछी गमे ते शास्त्र, गमे ते अक्षर, गमे ते कथन, गमे ते स्थळ प्राये अहितनु कारण थतु नथी ९ जीवने ज्या सुधी सतनी जोग न पाय त्या सुधी मतमतातरमा मध्यस्थ रहे योग्य छ १० गमे तेटली विपत्तिो पडे, तथापि मानी द्वारा सासारिक फळनी इच्छा करवी योग्य नथी । ११ जेनी प्राप्ति पछी मनतकाळनु याचकपणु मटी सव काळने माटे अयाचषपणु प्राप्त होय छे एवा जो कोई होय तो ते तरणतारण जाणीए छोए, तेने भजो १२ सर्व प्रकारना भयने रहेवाना स्थानकरूप आ ससारने विषे मात्र एक वैराग्य ज अभय छे १३ जने मृत्युनी साये मित्रता होय, अथवा जे मृत्युथी भागी छूटी शके एम होय, अथवा हु नही ज मरु एम 'जेने निश्चय होय ते भले सुखे सूए । -(थी तीयकर-छ जीव निकाय अध्ययन ) १४ विषम भावना निमित्तो बळवानपणे प्राप्त थया छता 1, जे पानीपुरुष अविषम उपयोगे वा छे, वर्ने छ, मने _भविष्यकाळे व ते सर्वने वारवार नमस्कार! Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ परमभक्तिची स्तुति करनार प्रत्ये पण जेने राग नथी अने परमद्वेषयी परिषह-उपसर्ग करनार प्रत्ये पण जेने द्वेष नधी, ते पुरुपरूप भगवानने वारंवार नमस्कार ! १६ जेने कोई पण प्रत्ये रागद्वेप रह्या नयी ते महात्माने वारंवार नमस्कार ! १७ वीतराग पुरुषना समागम विना, उपासना विना, आ जीवने मुमुक्षुता केम उत्पन्न थाय ? सम्यक्ज्ञान क्याथी थाय? सम्यकदर्शन क्याथी थाय ? सम्यक्चारित्र क्याथी थाय ? केमके ए त्रणे वस्तु अन्य स्थानके होती नथी. १ प्रमादने लोवे आत्मा मळेलु स्वरूप भूली जाय छे २ जे जे काळे जे जे करवान छे तेने सदा उपयोगमा , राख्या रहो ३ क्रमे करीने पछी तेनी सिद्धि करो. ४ अल्प आहार, अल्प विहार, अल्प निद्रा, नियमित वाचा, नियमित काया अने अनुकूळ स्थान ए मनने वश करवाना उत्तम साधनो छे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्रेष्ठ वस्तुनी जिज्ञासा करवी एज आत्मानी श्रेष्ठता छे कदापि ते जिज्ञासा पार न पडी तोपण जिज्ञासा ते पण ते ज अशवत् छे ६ नवा कम बाघवा नही अने जूना भोगधो लेवा, एवी जेनी अचळ जिससा छे ते, त प्रमाण वर्ती शके छ ७ जे कृत्यनु परिणाम धर्म नयी, ते वृत्य मूठथी ज करवानी इच्छा रहेका देवी जोईती नथी । ८ मन जो शाशील थई गय होय तो 'द्रव्यानुयोग विचारयो योग्य छ, प्रमादी थई गयु होय हो 'चरणवरणानुयोग' विचारवो योग्य छ, अने कपायी पई गयु होय तो 'धर्मक्यानुयोग' विचारवो योग्य छ, जह पई गय होय तो गणितानुयोग' विचारयो योग्य छ ९ कोई पण कामनी निराशा इच्छवी, परिणामे पछी जेटली सिद्धि यई तेस्रो लाम, आम करयाथी सतोषी रहेवाने १. पृथ्वी मवधी क्लेश पाय तो एम समजी लेजे पे ते साये आववानी नथी, कल्टो हुने देह आपी जवानो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ छु; वळी ते कई मूल्यवान नथी. स्त्री सुबधी क्लेश, शंकाभाव थाय तो आम समजी अन्य भोक्ता प्रत्ये हसजे के ते मळमूत्रनी खाणमां मोही पडयो, (जे वस्तुनो आपणे नित्य त्याग करीए छीए तेमा !) धन सबंधी निराशा के क्लेश थाय तो ते ऊंची जातना काकरा छे एम समजी मंतोप राखजे; क्रमे करीने तो तु नि स्पृही थई शकीश. ११ तेनो तुं बोघ पाम के जेनाथी समाधिमरणनी प्राप्ति थाय १२ एक वार जो समाधिमरण थयुं तो सर्व काळना असमाधिमरण टळशे. १३ सर्वोत्तम पद सर्वत्यागीनुं छे. कारतक, १९४३ (८) सत्पुरुषोने नमस्कार - अनतानुवधी क्रोध, अनंतानुवधी मान, अनंतानुबंधी माया अने मनतानुबंधी लोभ ए चार तथा मिथ्यात्वमोहिनी, मिश्रमोहिनी, सम्यक्त्वमोहिनी ए त्रण एम ए Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ सात प्रकृति ज्या सुधी क्षयोपशम, उपशम के क्षय पती नथी त्या सुपी सम्यकदति यदु समवतु नथी ए सात प्रकृति जेम जेम मदताने पामे तेम तेम सम्यक् वनो उदय पाय छे ते प्रकृतिमोनी प्रथि छेदवी परम दुर्लभ छ जेनी ते प्रथि छेनाई सेने आत्मा हस्तगत थवो सुलभ छ वल शानीयोए राज ग्रंथिने भदवानो फरी फरीने बोध कयों छे जे आत्मा अप्रमादपणे ते भेदवा भणी दृष्टि आपशे ते आत्मा आत्मत्वने पामशे ए नि संदेह छे सद्गुरुना उपदेश विना अने जीवनी सत्पात्रता दिना एम थबु अटश्यु छ तेनी प्राप्ति करीने ससारतापथी अत्यत तपायमान आत्माने शीतळ करवो एज कृत कृत्यता छ "धर्म" ए वस्तु बहु गुप्त रही छे ते पाहा सयो घनथी मळयानी नयी अपूर्व अतरसशोधनयी ते प्राप्त थाय छे ते अतर्सशोधन कोईक महाभाग्य सद्गुरु-अनुग्रहे पामे छ एक भवना थोडा सुख माटे अनत भवतु अनत दुस नहीं वधारखानु प्रयल सत्पुरुषो करे छ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यात्पद आ वात पण मान्य छे के बननार छे ते फरनार नथी अने फरनार छे ते बननार नथी. तो पछी धर्मप्रयलमा, आत्मिक हितमा अन्य उपाधिने आधीन थई प्रमाद शु धारण करवो ? आम छे छता देग, काळ, पात्र, भाव जोवा जोईए सत्पुरुषोनुं योगवळ जगतनुं कल्याण करो. प्रणाम-नीराग श्रेणी समुच्चये. वाणिया, महा सुद १४, बुध, १९४५ नोचेना दोष न आववा जोईए :१ कोईथी महा विश्वासघात. २ मित्रथी विश्वासघात. ३ कोईनी थापण ओळववी. ४ व्यसननु सेव, ५ मिथ्या आळनु मूक. ६ खोटा लेख करवा. ७ हिसाबमा चूकवq. ८ जुलमी भाव कहेवो. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ निर्दोषने अल्प मायाथी पण छेतरवो । १० यूनाधिक तोळी आप ११ एकने बदले बीजु अथवा मिश्र वरीने आपवु १२ कर्मादानी षधो १३ लाच के अत्तादान ए वाटेथी कई रळवु नही ए जाणे सामा य व्यवहार गुद्धि उपजीवन अर्थ कही गयो ( अपूण ) __ पवाणिया, माह, १९४५ (१०) नीरागी महात्मामओने नमस्कार कर्म ए जड़ वस्तु छ जे जे आत्माने ए जडपी जेटलो जेटलो आत्मबुद्धिए समागम छे तेटली तेटली जडतानी एटले अबोधतानी ते आत्माने प्राप्ति हाय, एम अनुभव थाय छे आश्चयता छे, पोते जड़ एता चेतनने अचेतन मनावी रह्या छ । चेतन चेतनभाव भूली जई तेने स्वस्व रूप जमाने छ जे पुरुषो ते कमसयोग अने तेना उदये उत्पन्न ययेला पर्यायोने स्वस्वरूप नयी मानता अने पूर्व सयोगो सत्तामा छ, नेने अबध परिणाम भोगवी रह्या छ, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते आत्माओ स्वभावनी उत्तरोत्तर ऊर्वश्रेणी पामी शुद्ध चेतनभावने पामगे, आम कहेवु सप्रमाण छै. कारण अतीत काळे तेम थयु छे, वर्तमान काळे तेम थाय छ, अनागत काळे तेमज चशे. ___ कोई पण आत्मा उदयी कर्मने भोगवठा समत्वश्रेणीमां प्रवेश करी अवघ परिणामे वर्तशे, तो खचीत चेतनशुद्धि पामशे. ___ आत्मा विनयी थई, सरळ अने लघुत्वभाव पामी सदैव सत्पुरुपना चरणकमळ प्रति रह्यो, तो जे महात्मामोने नमस्कार कर्यों छे ते महात्मामोनी जे जातिनी रिद्धि छे, ते जातिनी रिद्धि संप्राप्य करी शकाय. अनंतकाळमा का तो सत्पात्रता थई नयी अने का तो सत्पुरुष (जेमा सद्गुरुत्व, सत्संग अने सत्कथा ए रह्या छे ) मळ्या नथी, नहीं तो निश्चय छ, के मोक्ष 'हथेळीमा छ, ईषत्प्राग्भारा एटले सिद्ध-पृथ्वी पर त्यार पछी छे. एने सर्व शास्त्र पण संमत छे, (मनन करशो) अने आ कथन त्रिकाळ सिद्ध छे ववाणिया, फाल्गुन सुद ९, १९४५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ कर्मगति विचित्र छे निरतर मत्री, प्रमोद, करुणा अने उपेक्षा भावना राखशो • मत्री एटले सव जगतथी निर्वरबुद्धि, प्रमोद एटले "कोई पण आत्माना गुण जोई हपं पामवो, करुणा एटले मसारतापथी दुखी यात्माना दुसथी अनुक्पा पामवी, बने उपेक्षा एटले निस्पृह भाव जगतना प्रतिवषने विसारा आत्महितमा आवद् ए भावनाओ क्ल्याणमय भने पात्रता आपनारी छ । मोरबी, चत्र पद ९, १९४५ (१२) । वीजु काई शोध मा मात्र एक सत्पुरुषने शोधीने 'तेना चरणकमळमा सर्व भाव अर्पण करो दई वयों जा पछी जो मोक्ष न मळे तो मारी पासेथी लेजे सत्पुरुष एज में निशदिन जने आत्माना उपयोग छ, मास्त्रमा नथी अने साभळ्यामा नथी, छता अनुभवमा आवे तेवु जेनु क्थन छ, “असरण स्पृहा नथी एवी जेर्न Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त आचरणा छ वाकी तो कई का जाय तेम नथी अने आम कर्या विना तारो कोई काळे छूटको थनार नधी, आ अनुभवप्रवचन प्रमाणिक गण. ___ एक सत्पुरुषने राजी करवामां, तेनी सर्व इच्छाने प्रशसवामा, ते ज सत्य मानवामा आखी जिंदगी गई तो उत्कृष्टमा उत्कृष्ट पंदर भवे अवश्य मोक्षे जईश. मोहमयी, आसो वदी १०, शनि, १९४५ (१३) निरावाघपणे जेनो मनोवृत्ति वह्या करे छे; संकल्पविकल्पनी मदता जेने थई छे, पचविषयथी विरक्तबुद्धिना अकुरो जेने फूटया छै; क्लेशना कारण जेणे निर्मूळ काँ छे, अनेकात दृष्टियुक्त एकातदृष्टिने जे सेव्या करे छे; जेनी मात्र एक शुद्ध वृत्ति ज छे, ते प्रतापी पुरुष जयवान वों. आपणे तेवा थवानो प्रयत्न करवो जोईए. वि० सं० १९४५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) माई, आटल तारे अवश्य करवा जेषु छे -- ।१ देहमा विचार करनार बैठो छे ते दहथी भिन्न छ? " ते सुखी छ के दुःखी ? ए सभारी ले २ दुख लागशे ज, अने दुखना कारणो पण तने दृष्टि गोचर थशे, तेम छता कदापि न थाय तो मारा० कोई भागने वाची जा, एटले सिद्ध थशे ते टाळवा माटे जे उपाय छ ते एटलो ज के तेयो बाह्याभ्यतर रहित पवु ३ रहित थवाय छ, और दशा अनुभवार्य छ ए प्रतिना ' पूर्वक कहु छु ४ ते साधन माटे सर्वसगपरित्यागी थवानी आवश्यकता छ निपथ सद्गुरुना चरणमा जईने पडवु योग्य छ ५ जेवा भावधी पडाय तेवा भावी सव काळ रहेवा माटेनी विचारणा प्रथम करी ले जो तने पूवकर्म बळवान लागता होय तो अत्यागी, देशत्यागी रहोने पण ते वस्तुने विसारीश नही । ६ प्रथम गमे तेम करी तु तारु जीवन जाण जाणवु शा माटे के भविष्यसमाधि पवा भत्यारे अप्रमादो थव Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ते आयुष्यनो मानसिक आत्मोपयोग तो निवेदमा राख. ८ जीवन बहु टूकु छे, उपाधि वह छे, अने त्याग थई शके तेम नथी तो नीचेनी वात पुन. पुन. लक्षमा राख. १ जिज्ञासा ते वस्तुनी राखवी २ संसारने बंधन मानवं. ३ पूर्वकर्म नथी एम गणी प्रत्येक धर्म सेव्या जवो. तेम छता पूर्वकर्म नडे तो शोक करवो नही. .४ देहनी जेटली चिंता राखे छे तेटली नही पण एथी __अनत गणी चिंता आत्मानी राख, कारण अनत भव एक भवमा टाळवा छे. ५ न चाले तो प्रतिश्रोती था ६ जेमाथी जेटलु थाय तेटलु कर. ७ परिणामिक विचारवाळो था. ८ अनुत्तरवासी थईने वर्त. - ९ छेवटनु समये समये चूकीश नही. ए ज भळामण अने ए ज धर्म. वि० स० १९४६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समजीने अल्पभापो थनारने पश्चात्ताप करवानो पोहो ज अवसर समवे छे हे नाथ ! सातमी तमतमप्रभा नरकनी वेदना मळी होत तो वखते सम्मत करत, पण जगतनी मोहिनीसम्मत थती नयी पूवना अशुभ कर्म उदय आध्ये वेदता जो शोच फरो छो तो हव ए पण ध्यान राखो के नवा बाधता परिणाम तवा वो बधाता नयो ? । यात्माने ओळखवो होय तो आरमाना परिचयी थवू, परवस्तुना त्यागी पद् जेटला पातानी पुद्गलिक मोटाई इच्छे छ, तेटला हलका सभव ___ प्रशस्त पुरुषनी भक्ति करो, तनु स्मरण करो, गुण चितन करो मुबई, वि० स० १९४६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहज जे पुस्य मा ग्यमा सहन नोव करे हे, ते पुरुष मारे प्रयम सहज ते ज पुरुष लसे हे. तेनी हमणा एयी दगा अतरगमा रही छे के गांक विना सर्व मंसारी इच्छानी पण तेणे विस्मृति करी नाली छ. ते काईक पाम्यो पण छे, मने पूर्णनो परम मुमुदु छे, छेला मागंनो नि शंक जिज्ञासु छे. हमणा जे आवरणो तेने उदय माव्या छ, ते आवरणोथी एने खेद नयी, परंतु वस्तुभावमा यती मंदतानो खेद छे. ___ ते धर्मनी विधि, अर्थनी विधि, कामनी विधि, अने तेने आधार मोक्षनी विधिने प्रकाशी शके तेवो छे. घणा ज थोडा पुरुषोने प्राप्त थयो हो एवो ए काळनो 'क्षयोपशमी पुरुष छे. तेने पोतानी स्मृति माटे गर्व नथी, तक माटे गर्व नथी; तेम ते माटे तेनो पक्षपात पण नथी; तेम छता कंईक बहार राखवू पडे छे, तेने माटे खेद छे. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेनु अत्यारे एक विषय विना बोजा विषय प्रति ठेकाशु नयी ते पुरुष जोके तीक्ष्ण उपयोगवाळो छ, तथापित तीक्ष्ण उपयोग यौजा कोई पण विषयमा वापरवा ते प्रीति परापतो तभी हा नो १४ नोचेना नियमो पर बहु लक्ष माप --- ' १ एक बात करता तेनी अपूर्णतामा अवश्य दिना बीजी पात न करवी जोईए २ कहेनारनी वाल पूण साभळवी जोईए ३ पोर धीरजया तेना सदुतर आपली जोईए ४ जेमा मात्मश्लाघा रे आत्महानि न होय ते वाव उच्चारखो जोईए १५ धर्म सबधी हमणा बहु ज ओछी वात करवी ६ लोकोयी धर्मव्यवहा नही मुबई, पौष सुद , बुध, १९४६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) महावीरना बोधने पात्र कोण ? १ सत्पुरुषना चरणनो इच्छक, २ सदैव सूक्ष्म बोधनो अभिलाषी, ३ गुण पर प्रशस्तभाव राखनार, ४ ब्रह्मवतमा प्रीतिमान, ५ ज्यारे स्वदोष देखे त्यारे तेने छेदवानो उपयोग राखनार, ६ उपयोगथी एक पळ पण भरनार, ७ एकातवासने वखाणनार, ८ तीर्थादि प्रवासनो उछरंगी, . ९ आहार, विहार, निहारनो नियमी, १० पोतानी गुरुता दवावनार, एवो कोई पण पुरुप ते महावीरना वोधने पात्र छे, सम्यक्दशाने पात्र छे. पहेला जेवु एक्के नथी. मुवई, फागण सुद ६, १९४६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ हे जीव तु भ्रमा मा, तने हित कहु छु अतरमा सुख छ, यहार शोधवाथी मळशे नही बतरनु सुख अवरनी समश्रेणीमा छे स्थिति थवा माटे बाह्य पदार्पोनु विस्मरण कर, आश्चय भूल । । समश्रेणी रहेवी बहु दुलभ छ, निमित्ताधीन वृत्ति फरी फरी चल्ति पई जशे, न थवा अचळ गभीर उप योग राख आ क्रम यथायोग्यपणे चाल्यो आयो तो तु जीवन स्याग करतो रहीश, मझाईश नही, निभय थईश भ्रमा मा तने हित कहु छु। मा मारु छे एवा भावनी व्याख्या प्राये न कर आ तेनु छ एम मानी न बेस ा माटे आम करवु छे, ए भविष्यनिर्णय न करी रास __ मा माटे आम न पयु होत तो सुख थात एम स्मरण न कर ___ आटल मा प्रमाणे होय तो सार एम आग्रह न करी राख Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आणे मारा प्रति अनुचित कर्यु एवं सभारता न शीख आणे मारा प्रति उचित कयुं एवु स्मरण न राख. __. आ मने अशुभ निमित्त छे एवो विकल्प न कर. ____आ मने शुभ निमित्त छे एवी दृढता मानी न वेस.. : आ न होत तो हु बंधात नही एम अचळ व्याख्या नही करीश. पूर्वकर्म वळवान छे, माटे आ बधो प्रसग मळी आव्यो एवं एकातिक ग्रहण करीग नही. पुरुषार्थनो जय न थयो एवी निराशा स्मरीश नही. वीजाना दोपे तने बधन छ एम मानीश नही तारे निमित्त पण वीजाने दोष करतो भुलाव. तारे दोषे तने वधन छे ए सतनी पहेली शिक्षा छे . तारो दोष एटलो ज के अन्यने पोतानु मानवं, पोते पोताने भूली जवु ए वधामा तारो लागणी नथी, माटे जुदे जुदे स्थळे तें सुखनी कल्पना करी छे हे मूढ | एम न कर” ए तने ते हित कह्य. अतरमा सुख छे. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतमा कोई एवु पुस्तक वा रख या काई एवो साक्षी त्राहित तमने एम नथी यही शकतो के मा सुखनो मार्ग छे, वा तमारे आम वतवू वा सवने एक ज क्रमे गवू एज सूचवे छ के त्या कई प्रबळ विचारणा रही छ एक भोगी यवानो बोध करे छ एक मोगी पवानो बोध करे छ ए माथी कोने सम्मत करीशु? बन्ने शा भाटे बोष पर छे ? बन्ने कोन बोध कर छ ? कोना प्ररवाथी परे छ? कोने कोईनो अने पोईन कौईनो बोध का लागे छ ? एना कारणोश छ ? तेनो साक्षी योण छ ? तमे शुधाच्छो छो? ते क्याथी मळशे वा शामा छ ? ते कोण मेळवशे? क्या थईने लावतो? लाववान कोणाशीखवशे? । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा शोख्या छोए ? शीख्या छो तो क्याथी शीख्या छो? अपुनतिरूपे शील्या छो ? नही तो शिक्षण मिथ्या ठरशे. जीवन शु छ ? जीव शु छे ? तमे शु छो? तमारी इच्छापूर्वक का नथी थतुं ? ते केम करी शकशो? वाघता प्रिय छे के निरावाघता प्रिय छे ? ते क्या क्या केम केम छ ? एनो निर्णय करो अंतरमा सुख छ; बहारमा नथी. सत्य कहुं छु. हे जीव, भूल मा, तने सत्य कहुं छु सुख अतरमा छे ते बहार शोधवाथी नहो मळे. अतरनु सुख अतरनी स्थितिमा छे, स्थिति थवा माटे बाह्य पदार्थो सवधीनु आश्चर्य भूल. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति रहेवी बहु विकट छ, निमित्ताधीन फरी फरी वृत्ति परित थई जाय छे एनो दढ उपयोग राखको जोईए ए क्रम यथायोग्य पलान्यो आवीश तो तु मझाईश नहीं, निर्भय पईश हे जीव ! तु भूल मा पावते वखन उपयाग चूकी पोईने रजन परवामा, कोईथी रजन पवामा, वा मननी निर्वळताने लीधे अन्य पासे मद यई जाय छे ए भूल पाय छे, नपर मुबई, फागण, १९४६ (२०) विवासयी वर्ती अयया वर्तनारा आजे पस्तायो __'पर छे" मुबई, अपाड वद ५, रवि १९४६ (२१) १ 'अणु छनु 'वाचा वगरनुमा जगत सो जुआ मुबई, अपार पद ११, धनि, १९४६ पाठातर १ करावे हे २ अणछनु ३ यामाधारन Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ दृष्टि एवो स्वच्छ करो के जेमा सूदममा मूक्ष्म दोप पण देखाई शके, अने देतायाथी क्षय थई शके. मुबई, अपाड वद १२, रवि, १९४६ (२२) सहज प्रकृति १ परहित ए ज निजहित समजवू, अने परदुःख ए पोतानु दुःख समजवू २ सुख दुख ए वन्ने मननी कल्पना छे. ३ क्षमा ए ज मोक्ष नो भव्य दरवाजो छे ४ सघळा साथे नम्रभावथी वम, ए ज खरु भूषण छे ५ शात स्वभाव ए ज सज्जनतानु खरं मूळ छे. ६ खरा स्नेहीनी चाहना ए सज्जनतानु खास लक्षण छे ७ दुर्जननो ओछो सहवास ८ विवेकवुद्धिथी सघळु आचरण करवं. ९ द्वेषभाव ए वस्तु झेररूप मानवी १० धर्मकर्ममा वृत्ति राखवी. ११ नीतिना वाधा,पर पग न ,मूकवो. १२ जितेंद्रिय थवु, . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नानचर्चा अने विद्याविलासमा तथा शास्त्राध्ययनमा गूया १४ गमीरता राखवी १५ ससारमा रह्या छता ने ते नीतिथी भोगवता ध्वा, विदेही दशा राखवी १६ परमात्मानी भक्तिमा गूथावु १७ परनिंदा एज सबळ पाप मानव १८ दुजनता करी पावतू ए ज हार, एम मानवू १९ आत्मनान अने सज्जनसगत राखवा (२३) वचनावली १ जीव पोताने भूली गयो छे, मने तेथी सन्सुखनो तेने वियोग छ, एम सव धर्म सम्मत का छे २ पोताने भूलो गयारूप अनान, शान मळवायी पाश __ पाय छे, एम frt मानयु ३ नाननी प्राप्ति पानी पासपी पवी जोईए. ए स्वामाविर समजाय छ, वा जीव लोकलज्जादि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणोथी अनानीनो आधय छोडतो नथी, ए ज अनतानुवधी कपायन मूळ छे. ४ ज्ञाननी प्राप्ति जेणे उच्छवी, तेणे ज्ञानीनी इन्छाए वर्तवं एम जिनागमादि मर्व मास्त्र कहे छे. पोतानी इच्छाए प्रवर्तता अनादि काळयी रखडयो. ५ ज्या सुधी प्रत्यक्ष ज्ञानीनी इच्छाए, एटले आज्ञाए नही वाय, त्या सुधी अज्ञाननी निवृत्ति थवी संभवती नथी. ६ ज्ञानीनी आज्ञानु आराधन ते करी शके के जे एकनिष्ठाए, तन, मन, धननी आसक्तिनो त्याग करी तेनी भक्तिमा जोडाय. ७ जोके ज्ञानी भक्ति इच्छता नथी परंतु मोक्षाभिलाषीने ते कर्या विना उपदेश परिणमतो नथी, अने मनन तथा निदिध्यासनादिनो हेतु थतो नथी, माटे मुमुक्षुए ज्ञानीनी भक्ति अवश्य कर्तव्य छे एम सत्पुरुपोए का छे. ८ आमा कहेली वात सर्व शास्त्रने मान्य छे. ।। ९ ऋषभदेवजोए अठ्ठाणु पुत्रोने त्वराथी मोक्ष यवानों एज उपदेश कर्यो हतो. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० परीक्षित राजाने शुकदेवजीए एज उपदेश पर्यो छ ११ अनत बाळ सुधी जीव निज छदे चालो परिश्रम करे घोपण पोते पोताथी मान पामे नही परतु पानीनी आनानो आराधक असमुंहूतमा पण केवळज्ञान पामे १२ शास्त्रमा कहेली आशामो पराक्ष छ भने ते जीवने अधिकारी थवा माटे कही छे, मोक्ष थवा माटे शानीनी प्रत्यक्ष आना माराधवी जोईए १३ आ मानमागनी थेणी कही, ए पाम्या विना वीजा मागपी मोक्ष नथी ...१४ ए गुप्त तत्त्वने जे आराधे छ, त प्रत्यक्ष अमृतने पामी अभय पाय छे इति शिवम् ____ मुबई, माह सुद, १९४७ (२४) पुराणपुरुषने नमोनम • आ लाद त्रिविध तापथी मामुळल्याकुळ छ झासवाना पाणीने लेवा दोडी तुपा छिपाक्वा हन्छे छे, एवा दोन छ अज्ञानने सोधे स्वस्मनु विस्मरण भई अदापो भयार Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभ्रमण तेने प्राप्त थयु छ समये समये अतुल खेद, ज्वरादिक रोग, मरणादिक भय, वियोगादिक दु.खने ते अनुभवे छे, एवी अशरणतावाळा मा जगतने एक सत्पुरुष ज शरण छे, सत्पुरुपनी वाणी विना कोई ए ताप अने तृषा छेदी शके नही एम निश्चय छे माटे फरी फरी ते सत्पुरुषना चरणनु अमे ध्यान करीए छीए. संसार केवळ अशातामय छे. कोई पण प्राणीने अल्प पण शाता छे, ते पण सत्पुरुषनो ज अनुग्रह छे, कोई पण प्रकारना पुण्य विना शातानी प्राप्ति नथी, अने ए पुण्य पण सत्पुरुपना उपदेश विना कोईए जाण्युं नयी; धणे काळे उपदेशेलु ते पुण्य रूढिने आधीन थई प्रवर्ते छे; तेथी जाणे ते ग्रथादिकथी प्राप्त थयेलु लागे छे, पण एनु मूळ एक सत्पुरुष ज छे, माटे अमे एम ज जाणीए छीए के एक अश शाताथी करीने पूर्णकामता सुधीनी सर्व समाधि तेतु सत्पुरुप ज कारण छे, आटली बची समर्थता छता जन कई पण स्पृहा नथी, उन्मत्तता नथी, पोतापणु नथी, गर्व नथी, गारव नथी, एवा आश्चर्यनी प्रतिमारूप सत्पुरुषनं अमे फरी फरी नामरूपे स्मरीए छीए. .. .' त्रिलोकना नाथ वश थया छे जेने एवा छता “प Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एवी कोई अटपटी दशायी वर्ते छे के जेनु सामा य मनुष्य ने ओळखाण थवु दुलभ छे, एका सत्गुरुपने अमे फरी फरी स्तवीए छीए एक समय पण केवळ असगपणाधी रहे ए निरोक्ने वश करवा करता पण विवट काय छे, तेवा असगपणाथी विकाळ जे रहा छ, या सत्पुरुपना अत करण, ते जोई अमे परमाश्चय पामी नमीए छीए हे परमात्मा । अमे तो एम ज मानीए छीए में आ काळमा पण जीवनो मोष होय तेम छता जन प्रथोमा क्वचित् प्रतिपादन थयु छे ते प्रमाणे आ काळे मोक्ष न होय, ता मा क्षत्रे ए प्रतिपादन तु राय, अने अमने मोक्ष आपवा करता सत्पुरुषना ज चरणनु ध्यान करीए अने सनी समीप ज रहीए एवो याग आप हे पुरुषपुराण ! अमे तारामा बने सत्पुरुपमा पई भद होय एम समजवा नथी, तारा करता अमने तो सत्पुरुप ज विशेष लागे छ, कारण के तु पण तेने आधीन ज रह्यो छ अने अमे सत्पुरुपने ओळख्या विना तने ओळखी शक्या नही, ए ज तारु दुधटपणु अमने सत्पुरुष प्रत्ये प्रेम सपजाव छ कारण के तु वश छता पण तेओ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्मत नयो, अने ताराची पग मरळ छे, माटे हवे तुं महे तेम गए. है नाय ! तारे गोटुं न गायु के अमे तारा करता पण ग्रु पने विगेप स्तबीए छोए. जगत आन्दु तने स्तवे है; तो पछी मे एक तारा मामा वेठा रहीम तेगा तेमने हां ग्नबननी भगक्षा दे, अने च्या तने न्यूनपण पण है? शाना पुरुषो विकाटनी वान जाणता उता प्रगर करना नयी, एममारे पूछय, ते मंदभमा एम जगाय हे केनरीजा वीरेशापारमाधिक यात मिहार मानी दो निमाजियान प्रमिद ग फरे, अने मानौनी पर नुमना की जाय जेनी प्रशारनी धारा नयो, या मानापूरपने मनापनी होयामी उसामा आयटर पर 2. सोनीगो शान यता नयों के भी वर्ग मान मारे गाम, अने जाने का माननी पाई Sri vitrit; मनोमानी Trm “ममा " for fearrन. प्रायः नाम ४, शनि, १४ -TEM Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) जीव स्वभाव (पाताना समजणनी भरे) दोपित छ, त्या पछी तेना दोष भणी जोवु ए अनुक्पानो त्याग करवा जेनु थाप छ, भने मोटा पुष्पो तेम आचरवा इच्छता नयी कळियुगमा अमत्मगथी अने अणसमजणथी भूरभररे रस्ते न दाराय एम बनवु बहु मुश्केल छ मुबई, असाड वद ४, १९४७ (२६) जे जे प्रकार आत्माने चिंतन कर्यो होय ते ते प्रकारे ते प्रतिमासे छे _ विषयात्तपणाथी मढताने पामेली विचारशवितवाळा जोवन आत्मानु नित्यपणु भासतु नयी एम घणु परीने देखाप छे, तेम थाय छ, त यथार्थ छ, केम अनित्य एवा विषयने विपे आत्मबुद्धि होवाथी पोतानु पण अनित्यपणु भासे छे विचारवानने मात्मा विचारवान लागे छ शूयपणे चितन फरलारने आत्मा शून्य लागे छ, अनित्यपणे चिंतन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनारने अनित्य लागे छे, नित्यपणे चिंतन करनारने नित्य लागे छे. हा. नो १-६० - (२७) हे परमकृपाळु देव ! जन्म, जरा, मरणादि सर्व दुखोनो अत्यत क्षय करनारो एवो वीतराग पुरुपनो मुळ मार्ग आप श्रीमदे अनत कृपा करी मने आप्यो, ते अनत उपकारनो प्रतिउपकार वाळवा हं सर्वथा असमर्थ छु; वळी आप श्रीमत् कई पण लेवाने सर्वथा नि स्पह छो, जेथी हु मन, वचन, कायानी एकाग्रताथी आपना चरणारविन्दमा नमस्कार करु छु आपनी परमभक्ति अने वीतराग पुरुषना मुळधर्मनी उपासना मारा हृदयने विषे भवपर्यंत अखड जाग्रत रहो एटलु मागु छु ते सफळ थाओ | ॐ शाति. शाति. शातिः आश्विन, १९४८ (२८) मुमुक्षु जीवने आ काळने विषे संसारनी प्रतिकूळ दशाओ प्राप्त थवी ते तेने ससारथी तरवा बराबर छे , अनंतकाळथी अभ्यासेलो एवो आ संसार स्पष्ट विचारवानो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ धवत प्रतिकूल प्रमगे विरोपे होय छे, ए वात निश्चय मरवा याग्य छे ए (प्रतिकूळ ) प्रसग ना गमवार वेदवामा भावे तो जीवने निर्वाण ममीपनु साधन छे व्यावहारिक प्रसगोनु नित्य चित्रविचित्रपणु छे मात्र कल्पना तेमा सुख अने कल्पनाए दुख एयी तेनी स्थिति छ अनुवूळ कल्पनाए ते अनुकूळ भास छ, प्रतिकूल पनाए ते प्रतिकूळ मासे छ, अने ज्ञानीपुरपोए ते बय कल्पना करवानी ना कही छे विचारवानने शोक घटे नही, एम श्री तीयपर कहता हता मुबई, फागण १९५० ( २९ ) नित्यनियम * श्रीमसरमगुरुभ्यो नम सवारमा ऊठी ईपिथिको प्रतिक्रमी रात्रि दिवस जे क अठार पापस्थानमा प्रवृत्ति थई होय, सम्यग्ज्ञान दशन चारित्र सवधी तथा पचपरमपद सबधी जे पर्द अपराध थयो होय, कोई पण जीव प्रति किंचित्मात्र पण Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराध कर्यो होय, ते जाणता अजाणता थयो होय, ते सर्व क्षमाववा, तेने निंदवा, विशेष निदवा, आत्मामांयी ते अपराध विमर्जन करी नि शल्य थ, रात्रिए शयन करतो वखते पण ए ज प्रमाणे परव श्री मत्पुरुषना दर्शन करी चार घढी माटे मर्व मावध व्यापारथी निवर्ती एक आसन पर स्थिति करवी. ते समयमा ‘परमगुरु' ए शब्दनी पांच माळाओ गणी वे घडी सुधी सत्शास्त्र अध्ययन करवं त्यार पछो एक घडी कायोत्सर्ग करी श्री सत्पुरुषोना वचनोनु ते कायोत्सर्गमा रटण करी मद्वत्तिनु अनुसंधान करवु. त्यार पछी अरधी घडीमा भक्तिनी वृत्ति उजमाळ करनारा एवा पदो (आज्ञानुसार) उच्चारवा अरपी घडीमा 'परमगुरु' शब्दनु कायोत्सर्गरूपे रटण करव, अने 'सर्वज्ञदेव' ए नामनी पाच माळा गणवी. ___ हाल अध्ययन करवा योग्य शास्त्रो :-वैराग्यशतक, इद्रियपराजयशतक, शातसुधारम, अव्यात्मकल्पद्रुम, योगदृष्टिसमुच्चय, नवतत्त्व, मूळपद्धति कमंग्रथ, धर्मविदु, आत्मानुशासन, भावनावोध, मोक्षमार्गप्रकाग, मोक्षमाळा, उपमितिभवप्रपंच, अध्यात्मसार, श्री आनदघनजी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ चोवीशीमाथी नीचेना स्तवनो १, ३, ५, ७, ८, ९, १०, १३, १५ १६, १७, १०, २२ सात व्यसन ( जुगर मास, मदिरा वेश्यागमन, शिकार चोरी, परस्या) नो त्याग "जूवा आमिष, मदिरा दारी, आहटन, चोरी, परनारी, एहि सप्त व्यमन दुखदाई दुरितमळ दुर्गातिषे जाई " ए सप्तन्यसननो त्याग रात्रिभोजननो त्याग अमुक सिवाय सर्वं वनस्पतिनो त्याग अमुक् तिथिए अत्याग वनस्पतिना पण प्रतिबंध अमुक रसनो त्याग अब्रह्मचर्य नो त्याग, परिप्रपरिमाण शरीरमा विशेष रोगात उपद्रवी, बेभानपणायी, राजा अथवा देवादिना बळातारथी अत्रे विदित करेल नियममा प्रवर्तया अशक्त थवाय तो ते माटे पश्चात्तापन स्थानक ममजदु स्वेच्छाएं कराने ते नियममा यूनाधि कता कइ पण करवानी प्रतिना सत्पुरुपनो आज्ञाए ते नियम मा फरफार करवायी नियमभग नही वनाम, १९५० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ (३०) सर्व विभावधी उदासीन बने अत्यंत शुद्ध निजपर्यायने सहजपणे आत्मा भजे, तेने श्री जिने तीव्र ज्ञान दगा कही छे जे दशा माव्या विना कोई पण जीव बंधनमुक्त थाय नही, एवो सिद्धांत श्री जिने प्रतिपादन क्यों छे, जे अखंड सत्य छे. कोईक जीवथी ए गहन दशानो विचार थई शक्वायोग्य छे, केमके अनादिधी अत्यत अज्ञान दशाए या जीवे प्रवृत्ति करी छे, ने प्रवृत्ति एकदम अमत्य, असार समजाई, तेनी निवृत्ति सूझे, एम बनवु वह कठण छे; माटे ज्ञानीपुरुपनो आश्रय करवारूप भक्तिमार्ग जिने निरूपण कर्यो छे, के जे मार्ग भाराघवाथी सुलभपणे ज्ञानदशा उत्पन्न थाय छे. ज्ञानीपुरुपना चरणने विषे मन स्थाप्या विना ए भक्तिमार्ग सिद्ध थतो नथी, जेथी फरी फरी ज्ञानीनी आज्ञा आराघवातुं जिनागममा ठेकाणे ठेकाणे कथन कयु छ - ज्ञानी पुरुषना चरणमा मनन स्थापन थषु प्रथम कठण पडे छे, पण वचननी अपूर्वताथी, ते वचननो विचार करवाथी, तथा जानी प्रत्ये अपूर्व दृष्टिए जोवाथी, मननु स्थापन थर्बु सुलभ थाय छ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ मानीपुरुषना आश्रयमा विरोध करनारा पंचविषयादि दोषो छे ते दोष यवाना माधनथी जेम बने तम दूर रहे अने प्राप्त साधनमा पण उदासीनता राखवी अथवा ते ते साधनोमाघो अहबुद्धि छोडी दई, रोगरूप जाणी प्रवत घटे अनाटि दोपनो एवा प्रसगमा विशेष उदय थाय छ केमके आत्मा ते गोपने छैनवा पोतानी स मुख लावे छ ये, ते स्वरूपातर करी तेने मा छे अने जागतिमा शिथिल करी नाखी पोताने विषे एकाप्रबुद्धि करावी दे छे ते एवाप्रबुद्धि एवा प्रकारनी होय छे फे 'मने आ प्रवृत्तिथी तेवो विशेष वाघ नहीं पाय, ह अनुक्रमे तेने छोडी अने करता जागृत रही' ए आदि भ्रातशा ते दोप कर छे जेपी ते दापना मवध जीव छोहतो नपी, अपवा ते दोष वधे छ सैनो लदा तेने आवी शकता नयी ए विरायी साधननो वै प्रकारयो त्याग पई शके छ एक ते साधना प्रसगनी निवृत्ति, बोजो प्रकार विचारया घरी सेनु हुन्छपण समजावु। विधारथी परो तुच्छपणु समजावा माटे प्रथम ते पचविषयादिना साधननी निवृत्ति करषी यधार योग्य छ, अमवे तेपी विचारनो अपार प्राप्त पाय छे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ते पंचविपयादि मावनी निवृत्ति मर्वया करवान जीवनु बळ न नालत होय त्यारे, क्रमेक्रमे, दे देशे तेनो त्याग करवो घटे, परिग्रह तया भोगोपभोगना पदार्थनो अल्प परिचय करवो घटे. एम करवायी अनुक्रमे ते दोष मोळा पटे, अने आययभक्ति दढ घायः तथा ज्ञानीना वचनोनु आत्मामा परिणाम पई तीवनानदया प्रगटी जीवन्मुक्त थाय जीव कोईक वार आवी वातनो विचार करे, तेथी अनादि अभ्यामनु बळ घटव कठण पडे, पण दिन दिन प्रत्ये, प्रमगे-प्रसगे मने प्रवृत्ति प्रवृत्तिए फरो फरी विचार करे, तो अनादि अभ्यामनं बळ घटी, अपूर्व अभ्यासना सिद्धि थई सुलभ एवो आश्रयभक्तिमार्ग सिद्ध धाय मवई, फागण वद ७, रवि, १९५१ - (३१) जे कषाय परिणामयी अनत मसारनो सबध थाय ते कपाय परिणामने जिनप्रवचनमा 'अनतानवधी' सजा कहीं छे जे कपायमा तन्मयपणे अप्रगस्त (माठा) भावे नावापयोगे आत्मानी प्रवृत्ति छे, त्या 'अनतानुवघी'नो सभव Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे मुख्य करीने अहो कह्या छे ते स्थानके ते स्पायनो विशेष ममव छ सनदव सदगुरु अने सन्घमनो जे प्रकारे द्वाह थाय, अवज्ञा थाम, तथा विमुखमाव थाय, ए आदि प्रवृत्तियी तमज असतदव, असतगुरु तथा अमत्पमना जे प्रकार आग्रह थाप, त मवधा कृतकृत्यता माय थाय, ए आदि प्रवत्तिथी प्रवतता 'जनतानुबधी कपाय' सभव छ, अथवा नीना वचनमा स्त्रीपुत्रादि भावोने जे मर्यादा पछी इच्छना निवस परिणाम कह्या छे, ते परिणाम प्रक्तता पण 'अनतानुवघी' होवा योग्य छ सक्षेपमा 'अनतानुबधी पाय'नी व्याख्या ए प्रमाणे जणाय छ । मुबई, असाड सुद ११, बुध, १९५१ अनतानुरघो क्रोध, मान, माया अने लोभ सम्पकत्व मिवाय गया मभवे नहीं एम जे बहेवाय छे ते यथार्थ छे ससारी पदार्योने विषे जीवने तीव्र स्नेह विना एवा क्रोप मान, पाया अने लोभ हाय नही, के जे कारण तेने अनत मसारनो अनुबध याय जे जीवने समारा पदार्थो विप तीन स्नह वततो हाय तने पाई प्रसगे पण अनंतानुवधी प्रावमापी काई पग उन्य श्रवा मभवे छ अने ज्या सुधी तीन स्नेह से पार्थोमा होय त्या सुपी अवश्य परमायमाग Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाळो जीव ते न होय. परगार्धमार्गनुं लक्षण ए छे के अपरमार्थने भजता जीव बवा प्रकारे कायर धया करे, सुखे अथवा दु.से दुखमां कायरपणु कदापि वोजा जीवोनुं पण सभवे छे, पण संमारसुखनी प्राप्तिमा पण कायरपण, ते सुखनुं अणगमवापणु, नीरसपण परमार्थमार्गी पुरुषने होय छे तेवु नीरसपणु जीवने परमार्थज्ञाने अथवा परमार्थज्ञानीपुस्पना निश्चये थवु सभवे छे, वीजा प्रकारे थवु संभवतु नथी परमार्थज्ञाने अपरमार्थरूप एवो आ ससार जाणी पछी ते प्रत्ये तीव्र एवो क्रोध, मान, माया के लोभ कोण करे ? के क्याथी थाय ? जे वस्तुनु माहात्म्य दृष्टिमाथी गयु ते वस्तुने अर्थे अत्यत क्लेश थतो नथी ससारने विषे भ्रान्तिपणे जाणेलु सुख ते परमार्थज्ञाने भ्रान्ति ज भासे छे, अने जेने भ्रान्ति भासी छे तेने पछी तेनु माहात्म्य शु लागे? एवी माहात्म्यदृष्टि परमार्थनानीपुरुषना निश्चयवाळा जीवने होय छे, तेनु कारण पण ए ज छे. कोई ज्ञानना आवरणने कारणे जीवने व्यवच्छेदक ज्ञान थाय नही, तथापि सामान्य एवु ज्ञान, ज्ञानीपुरुषनी श्रद्धारूपे थाय छे वडना बीजनी पेठे परमार्थ-वडन वीज ए छ. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्र परिणामे, भवभयरहितपणे नानीपुरुष के सम्यक् दृष्टि जीवने क्रोध, मान, माया के लाभ होय नही जे ससारअर्थे अनुवध कर छे, ते करतापरमायने नामे, भ्रान्ति गत परिणामे अमद्गुरु, देव धर्मने भजे छे, ते जीवने घणु करी अनतानुबधी क्रोध, मान, माया, लोम थाय छ, कारण ये बीजी ससारनो क्रियाओ घणु करी अनत अनुवध परवावाळी नथी, मात्र अपरमायने परमाय जाणी आग्रह जीव भज्या करे, ते परमाथनानी एवा पुरुष प्रत्ये, देव प्रत्ये, धर्म प्रत्ये निरादर छ, एम कहेवामा घणु करी यथार्थ छे ते सद्गुरु, देव, घम प्रत्ये असतगुर्वादिक्ना आग्रहथी माठा चोपथी, आगातनाए, उपेक्षाए प्रवत एवो सभव छे तेमज त माठा सगथी तेनी ससारवासना परिच्छेद नही थती होवा ता ते परिच्छेद मानी परमाथ प्रत्ये उपेपर रहे छे, ए ज अनतानुबघी क्रोध मान, माया, लोभनो आकार छ मुबई वीजा अ० वद ६, १९४९ 'अनतानुवधी नो दाजो प्रकार रख्यो छे ते विष विकोपार्थ नाचे रख्याथी जाणशो - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० . उदयथी अथवा उदामभावसंयुक्त मदपरिणत बुद्धिथी भोगादिने विषे प्रवृत्ति थाय त्या सुधीमा जानीनी आज्ञा पर पग मूकीने प्रवृत्ति थई न सभवे, पण ज्या भोगादिने विपे तीन तन्मयपणे प्रवृत्ति थाय त्या ज्ञानीनी आज्ञानी कई अंकुशता सभवे नही, निर्भयपणे भोगप्रवृत्ति संभवे. जे निवंस परिणाम कह्या छे, तेवा परिणाम वर्ते त्या पण 'अनतानुवंधी' सभवे छे. तेम ज 'हु समजु छु', 'मने बाघ नथी' एवा ने एवा वफममा रहे, अने 'भोगथी निवृत्ति घटे छे', अने वळी कई पण पुरुषत्व करे तो थई शकवा योग्य छता पण मिथ्याजानथी ज्ञानदशा मानी भोगादिक'मा प्रवर्तना करे त्या पण 'अनतानुवघी' सभवे छे जानतमा जेम जेम उपयोगन शद्धपणु थाय, तेम तेम स्वप्नदशानुं परिक्षीणपणु सभवे मुबई, अपाड, १९५१ प्रथम पदमां एम का छे के : हे मुमुक्षु । एक आत्माने जाणता समस्त लोकालोकने जाणीश. अने सर्व जाणवानु फळ पण एक आत्मप्राप्ति छे, माटे आत्माथी जुदा एवा वीजा भावो जाणवानी वारवारनी इच्छाथी तुं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ निवर्त अने एक निजस्वरूपने विधे दप्टि दे, जे दृष्टिथी समस्त सृष्टि मेयपणे तार विप देयाशे तत्वम्बम्प एवा सनशास्त्रमा महला मागनु पण आ तत्त्व छे, एम तत्व मानोओए कह्य छ, तथापि उपयोगपूवर ते समजावू दुएम छे ए मार्ग जुदो छ, अने ननु स्वरूप पण जुदु छ, जेम मात्र क्यनज्ञानीओ बहे छ तम नयी माटे ठकाण टेवाण जईन का पूछे छे । केमय त अपूर्व भाक्नो अथ ठेवाणे ठेवाणयी प्राप्त थवा योग्य नयो । वीजा पदनो सक्षप अथ हैं ममक्ष । यमनियमादि जे साधनो सर्व शास्त्रमा महा छे ते उपर पहरा अथथा निष्फळ ठरो एम पण नयी कमर त पण धारणने अर्षे छ त कारण या प्रमाण छ आत्म मान रही शवे एयी पात्रता प्राप्त थवा, तथा तमा स्थिति थाय तेवी योग्यता आववा ए पारणो उपश्या छे तत्वमानाआए एयी एवा हायी ए साधना महा छ, पण जीवनी समजणा सामटो पर होवाथी त साधनामोज अटकी रहो अथवा से मापन पण अभिनिवा परिणाम प्रहा आगळीथा जेम पाळपने ना देगाहवामा आये, तेम सत्व पानीआए ए सरवन वत्व पा.' याणिया, पा०३० १४, १९५१ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ( ३४ ) एवंभूत दृष्टिथी ऋजुसूत्र स्थिति कर ऋजुसूत्र दृष्टिथी एवंभूत स्थिति कर नैगम दृष्टिथी एवभूत प्राप्ति कर एवंभूत दृष्टिथी नैगम विशुद्ध कर सग्रह दृष्टिथी एवभूत था एवभूत दृष्टिथी सग्रह विशुद्ध कर व्यवहार दृष्टिथी एवभूत प्रत्ये जा एवंभूत दृष्टिथी व्यवहार विनिवृत्त कर शब्द दृष्टिथी एवंभूत प्रत्ये जा एवंभूत दृष्टिथी शब्द निर्विकल्प कर. समभिरूढ दृष्टिथी एवभूत अवलोक एवभूत दृष्टिथी समभिरूढ स्थिति कर. एवभूत दृष्टिथी एवभूत था एवंभूत स्थितिथी एवंभूत दृष्टि शमाव. ॐ शातिः शाति शाति. हा० नो० २-१६ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ ( ३५) समस्त विश्व घणु करीने परकथा तया परवृत्तिमा घा जाय छे, तमा रही स्थिरता फ्याथी प्राप्त थाय ? आवा अमूल्य मनुष्यपणानो एक समय पण परवृत्तिए जवा देवा योग्य नयी, अने कई पण तम थया करे छ तनो उपाय बई विनापे करी गवषवा योग्य छ पानीपुरुपनो निश्चय थई अतभेद न रहे तो आत्म प्राप्ति साव सुलभ छ, एवु ज्ञानी पावारी गया छता केम लाको भूल ? मुबई आसा सुर १३, १९५१ परवा योग्य घई का होय ते विस्मरणयोग्य न होय एटलो उपयोग परी प्रमै पराने पण तेमा अवश्य परिणति करवी पटे रयाग, वराग्य, सपशम अने भक्नि मुमा जीवे महज स्वभावरूप करी मुक्या विना आत्मदशा म आव? पण शिपिन्पणाची प्रमापी ए वात विस्मृत पई जाप छ मुबई, आसो मुद १३, १९५१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ( ३७ ) "ज्ञाननु फळ विरति छे." वीतरागनु आ वचन सर्व मुमुक्षुओए नित्य स्मरणमा राखवा योग्य छ जे वाचवाथी, समजवाथी तथा विचारवाथी आत्मा विभावथी, विभावना कार्योथी अने विभावना परिणामथी उदास न थयो, विभावनो त्यागी न थयो, विभावना कार्योनो अने विभावना फळनो त्यागी न थयो, ते वाचव, ते विचार अने ते समजवु अज्ञान छे विचारवृत्ति साथे त्यागवृत्ति उत्पन्न करवी ते ज विचार सफळ छे, एम कहेवानो ज्ञानीनो परमार्थ छे. ववाणिया, फागण वद ११, १९५३ ( ३८ ) ॐ नम. सर्व जीव सुखने इच्छे छ दुःख सर्वने अप्रिय छे दुःखथी मुक्त थवा सर्व जीव इच्छे छे. वास्तविक तेनु स्वरूप न समजावाथी ते दु.ख मटतु नथी ते दुःखना आत्यतिक अभावनु नाम मोक्ष कहीए छीए. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यत वीतराग यया विना आत्यतिक मोन होय नही सम्यग्नान विना धीतराग थई शकाय नहीं मम्यग्दर्श विना ज्ञान असम्यक् कहेवाय छे वस्तुनी जे स्वभावे स्थिति छ, त स्वभाव ते वस्तुनी स्थिति समजावी तने सम्यग्नान कहीए छोए __सम्यग्नानदानी प्रतीत थयेला आत्मभावे वतनु ते धारित छ ए प्रणेनी एकताथी मोल पाय जीव स्वाभाविक छ परमाणु स्वाभाविक छे जीव अनत छ परमाण अनत छ जीव बने पुद्गलनो माग अनादि छ ज्या सुधा जीवने पुद्गलमवघ छ, त्य सुधी सकम पीव वहयाय भावसममा पर्ता जीव छ नावामन बाजु नाम यिभाव वहेवाय छे भाववर्मना हेतुपी जीव पुद्गल ग्रहे छ तथी वजमान परीर अन औदारितादि पारीरनो पोप थाप मापरमपी विमुख पाय तो निनावपरिणामी पाप Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन विना वास्तविकपणे जीव भावकर्मथी विमुख न थई शके सम्यग्दर्शन थवानो मुख्य हेतु जिनवचनथी तत्त्वार्थप्रतीति थवी ते छे. हा. नो. ३-६ ( ३९ ) सत्पुरुषोना अगाध गभीर संयमने नमस्कार अविषम परिणामथी जेमणे काळकूट विष पीधु एवा श्री ऋषभादि परमपुरुषोने नमस्कार. परिणाममा तो जे अमृत ज छे, पण प्रथम दशाए काळकूट विषनी पेठे मूझवे छे, एवा श्री सयमने नमस्कार तं ज्ञानने, ते दर्शनने अने ते चारित्रने वारवार नमस्कार जेनी भक्ति निष्काम छे एवा पुरुषोनो सत्सग के दर्शन ए महत् पुण्यरूप जाणवा योग्य छे. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ ( ३ ) २ पारमार्थिक हतुविदोषयों पत्रादि उसवानु बनी वक्तु नयी जे मनित्य छे जे अगार छे अने जे अशरणम् छे ते आ जीवने प्रीतिन धारण वेम थाय छे ते वात रात्रि दिवस विचारया योग्य छे एष्टि अने ज्ञानीनी दष्टिने पश्चिम पूर्व जेटली वरावत छे नानीनी दृष्टि प्रथम निरालबन छ, रचि उत्पन करती नथी, जीवनी प्रकृतिन मळती आवतो नयी; सभी जीव से ष्टिमा विवा तो नयी, पण जे जीयोए परिषह पीने पाडावाळ सुधा ते दृष्टि आराधा क्यू तं गर्व दुःखना यस्य निर्वाणने पापा से, तेरा चपायो पाया छे जीवन प्रमान्मां अनादियो रवि छ, पण वेमा रति रखा योग्य पादपातु नमी ॐ मुंबई आगो गुद ८, रवि, १९५३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ( ४० ) आत्मदशाने पामी निर्द्वन्द्वपणे यथाप्रारब्ध विचरे छे, ___ एवा महात्माओनो योग जीवने दुर्लभ छे तेवो योग बन्ये जीवने ते पुरुषनी ओळखाण पडती नथी, अने तथारूप ओळखाण पड्या विना ते महात्मा प्रत्ये दृढाश्रय थतो नथी ज्या सुधी आश्रय दृढ न थाय त्या सुधी उपदेश परिणाम पामतो नथी. उपदेश परिणम्या विना सम्यग्दर्शननो योग बनतो नथी. सम्यग्दर्शननी प्राप्ति विना जन्मादि दुखनी आत्यतिक निवृत्ति वनवा योग्य नथी तेवा महात्मा पुरुपोनो योग तो दुर्लभ छे, तेमा मशय नथी. पण आत्मार्थी जीवोनो योग बनवो पण कठण छ तोपण क्वचित् क्वचित् ते योग वर्तमानमा वनवा योग्य छे सत्समागम अने सत्शास्त्रनो परिचय कर्तव्य छे. ॐ मुबई, कार्तिक वद १२, १९५४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपार महा मोहजळने अनत अतराय छता धीर रही जे पुरुष सर्या ते श्री पुरुष भगवानने नमस्कार अनत काळपी जपान भवतु थतु हतु ते नानने एक समयमात्रमा जात्यांतर करी जेणे भवनिवृत्तित्प क्यु ते पल्याणमूर्ति सम्यादशनने नमस्कार निपत्तियागमा सत्ममागमनी वृत्ति रासको योग्य छ मुबई, अपाड सुद ११, गुरु, १९५४ हे काम ! हे मान । है मगउदय ! हे बघनवर्गणा हे मोह ! हे मोहत्या ! हे शिथिलता ! समेशा माटे अतराय करो छोर परम अनुग्रह परीने हा अनुसूळ याओ ! अनुमूळ पाओ हा नो २१९ (४३) हे सर्वोत्कृष्ट मुन्ना हेनुभव सम्पनन । तने अत्यंत भक्तिपी नमस्कार हो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आ अनादि अनंत संसारमा अनंत अन्त जीवो तारा आश्रय विना अनंत अनंत दु न्वने अनुभवे छे । तारा परमानुग्रहथी स्वस्वरूपमा रुचि थई. परम वीतराग स्वभाव प्रत्ये परम निश्चय मान्यो. कृतकृत्य थवानो मार्ग ग्रहण थयो हे जिन वीतराग ! तमने अत्यंत भक्तियी नमस्कार करु छु तमे आ पामर प्रत्ये अनत अनत उपकार को छ हे कुदकुंदादि आचार्यो! तमारा वचनो पण स्वरूपानुसंघानने विषे आ पामरने परम उपकारभूत थया छे ते माटे हु तमने अतिशय भक्तिथी नमस्कार करुं छु हे श्री सोभाग ! तारा सत्समागमना अनुग्रहयो आत्मदशानुं स्मरण थयु ते अर्थे तने नमस्कार हो हा. नो. २-२० जेम भगवान जिने निरूपण कयु छे तेम ज सर्व पदार्थनु स्वरूप छे. भगवान जिने उपदेशेलो आत्मानो समाधिमार्ग श्री गुरुना अनुग्रहयी जाणी, परम प्रयत्नथी उपासना करो. हा. नो २-२१ - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ { ४५) (१) सवनोपदिष्ट आत्मा मद्गुरटपाए जाणीने निरतर .. सेना ध्यानना अर्थे विचर० सयम अने तपपूर्वर(२) अहो! मर्वोत्कृष्ट मातरममय मामार्ग-- ___अहो ! ते सर्वोत्कृष्ट शातरसप्रधान मागना मुए गर्वन ग्व - ___ अहा! ते मर्वोत्कृष्ट गात रम सुप्रतात वगव्यो वा परमपाल सद्गुरुदेव - मा विश्वमा गवकाळ तमे जयवत यतों, जयया यर्को हा नो ३ २२ (१) प्राणीमाना रणक, वपर अन हितवारा यो पाई उपाय हाय तास वातरागना पम जले (२) मतमना ! गिनवराए PITI ज स्थाप नियन पो छ त पारमारिस मारामा निस्मा, पूर यागाम्पाम विना मानगायर पया योग्प गपी माटे मतमारा भाग गानो मायारे वीयराम॥ वाक्यागो Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ विरोध करता नही; पण योगनी अभ्यास करी पूर्णताए ते स्वरूपना ज्ञाता थवानु राखजो. मुबई, का० वद ११, मगळ, १९५६ ( ४७ ) __ वीतरागनो कहेलो परम शात रसमय धर्म पूर्ण सत्य छे, एवो निश्चय राखवो. जीवना अनधिकारीपणाने लोधे तथा सत्पुरुषना योग विना समजातु नथी, तो पण तेना जेवू जीवने ससाररोग मटाडवाने बीजु कोई पूर्ण हितकारी औषध नथी, एवं वारंवार चितवन करवु आ परम तत्त्व छ, तेनो मने सदाय निश्चय रहो, ए यथार्थ स्वरूप मारा हृदयने विषे प्रकाश करो, अने जन्म मरणादि वधनथी अत्यत निवृत्ति थाओ । निवृत्ति थाओ !! हे जीव | आ क्लेगरूप मसार थकी, विराम पाम, विराम पाम, काईक विचार, प्रमाद छोडी जागृत था ! जागृत था !! नही तो रत्नचितामणि जेवो आ मनुष्यदह निष्फळ जशे. हे जीव । हवे तारे सत्पुरुषनी आज्ञा निश्चय उपासवा योग्य छे. ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः वर्ष २७ मु. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ (४८) अनय रणना आपनार एवा श्री सदगुरुदेवने अत्यत भक्तिय नमस्कार शुद्ध आत्मस्वपने पाया है ण्या मानीपुरपोए नीचे बहा छ से छ पदने मम्या दाना शिवागना सर्वोत्कृष्ट स्पाम कहां छ प्रपम पद -- आरमा छ' जेम घटपटआदि पायों छ, तम मारमा पण छे अमुष गुण होयाने लीघे जैम घरपटमादि होवानु प्रमाण छ, सम स्वपरप्रयास पी घेत यगताना प्रत्यक्ष गुण जेने दिपे छे एयो मारमा होयान प्रमाण छ वीज पद - ___ 'आरमा निय' घटपटा पार्यो अमुए मायर्ती हे धारमा विपाळवीर पटपदि गयोग गरी पाप 0 भारमा स्वभाव परोने पदाप समये सनी चरपति माटे पोई पण गंपागो अनुमामोग्य पना नगी पोई पत रायोगी इसपी धागा प्रगट या योग्य मपी, माटे अनुमान के अगयोगो दोषाः असिनी, अमराई गयागपी वाति न हाय, सेना मोईन दिवस पर होम मही Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ त्रीजु पद : 'आत्मा कर्ता छे' सर्व पदार्थ अर्थक्रियासपन्न छे कई ने कई परिणामक्रिया सहित ज सर्व पदार्थ जोवामा आवे छे आत्मा पण क्रियासपन्न छे क्रियासपन्न छे, माटे कर्ता छे. ते कपिणु त्रिविध श्री जिने विवेच्यु छे, परमार्थथी स्वभावपरिणतिए निजस्वरूपनो कर्त्ता छे अनुपचरित (अनुभवमा आववा योग्य, विशेष संवध सहित) व्यवहारथी ते आत्मा द्रव्यकर्मनो कर्त्ता छे उपचारथी घर, नगर आदिनो कर्ता छे चो) पद : 'आत्मा भोक्ता छे' जे जे कई क्रिया छे ते ते सर्व सफळ छे, निरर्थक नथो. जे कई पण करवामा आवे तेनु फळ भोगववामां आवे एवो प्रत्यक्ष अनुभव छे विष खाधाथी विपनु फळ, साकर खावाथी साकरतु फळ; अग्निस्पर्शथी ते अग्निस्पर्शतुं फळ, हिमने स्पर्श करवाथी हिमस्पर्शनुं जेम फळ थया विना रहेतु नथी, तेम कषायादि के अकषायादि जे कई पण परिणामे आत्मा प्रवर्ते तेत फळ पण थवा योग्य ज छे, अने ते थाय छे. ते क्रियानो आत्मा कर्ता होवाथी भोक्ता छे. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર पांचमु पद - _ 'मोनपद छे' जे अनुपचरित व्यवहारथी जीवने कर्मनु पापणु निरूपण पयु, पापणु होवायी भोक्तापणु निरूपण कयु ते कर्मनु टळयापणु पण छे फेमके प्रत्यष पायादिनु तीव्रपणु होय पण तेना अनम्यासथी, तेना अपरिचयपी, तेने उपशम करपाथी तेनु मदपणु देवाय छ ते क्षीण थवा योग्य देवाय छे, क्षीण थई भने छे ते ते बघभाव क्षीण थई शक्वा योग्य हावापी तेयो रहित एवो जे शुद्ध आत्मस्वभाव से रूप मोशपद छे घट्टपद - ते 'मानो उपाय छे जो पदी फर्मवधमात्र धया करे एमज होय, तो तेनी निवृत्ति पोइ पाळ समय नहीं, पण पर्मवषषी विपरीत स्वमायवाला वा ज्ञान, दान, समाधि, वैराग्य, मायादि माधन प्रत्या छ जे साधन ।। यळे समयध गिपिल चाय छ, उपाम पामै छ गीण पाय छे मारे स गान, दर्शन गयमादि माक्षपदा पाम छे श्री नानीपुराए सम्यग्दर्शनना मुस्मशियामभूत कयां एषा वा छ पद अत्रे सभेपमा गणाध्या छ ममीपमुक्तिगामी पीपने गहन विपारमा त सप्रमाण पवा पाग्य है, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम निश्चयम्प जणावा योग्य छ, तेनो सर्व विभाग विस्तार थई तना आत्मामा विवेक या योग्य छे. आछ पद अत्यंत नदेहरहित छे, एम परमपुर निरूपण कयु छ एछ पदनो विवे जीवन स्वस्वल्प समजवान अर्षे कहो छे अनादि स्वप्नदगाने ली स्त्पन्न थयेलो एवो जीवनी अहंभाव, ममत्वभाव ते निवृत्त यवाने अर्थ आ छ पदनी ज्ञानीपुस्पोए देशना प्रकानी छे. ते स्वप्नदयाथी रहित मात्र पोतानु स्वरूप छे, एम जो जीव परिणाम करें, तो सहजमात्रमा ते जागृत घई सम्यकदर्शनने प्राप्त थाय; सम्यकदर्शनने प्राप्त थई स्वस्वभावरूप मोक्षने पामे. कोई विनाशी, अशुद्ध अने अन्य एवा भावने विषे तेने हपं, शोक, सयोग उत्पन्न न थाय ते विचारे स्वस्वरूपने विषे ज शुद्धपणं, सपूर्णपण, अविनाशीपणु, अत्यत आनंदपणु, अंतररहित तेना अनुभवमा आवे छे. सर्व विभावपर्यायमा मात्र पोताने व्यासपी जैक्यता थई छे, तेथी केवळ पोतानुं भिन्नपणु ज छ, एम स्पष्ट-प्रत्यक्ष-अत्यंत प्रत्यक्ष-अपरोक्ष तने अनुभव थाय छे विनाशी अथवा अन्य पदार्थना सयोगने विपे तेने इष्टअनिष्टपणुं प्राप्त थतु नयी जन्म, जरा, मरण, रोगादि वाधारहित संपूर्ण माहा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ रम्यनु ठेकाणु एव निजस्वरूप जाणी, वदी ते कृताथ थाय छ जे जे पुरुषोने ए छ पद सप्रमाण एवा परम पुरुषना वचने आत्मानो निश्चय थयो छ, त ते पुरुषो सव स्वरूपने पाम्या छे आधि, व्याधि, उपाधि, सव सगथी रहित यया छ, पाय छे, अने भाविनाठमा पण तम ज पशे जे सत्पुरषोए जम जरा मरणनो ना परवावाळो, स्वस्वरूपमा सहज अवस्थान यवाना उपदेग बह्यो छ, ते सरगुरुपोने अत्यत भत्तिथी नमस्कार छ तेनी निष्कारण करुणाने नित्य प्रत्ये निरतर स्तववामा पण आत्मस्वभाव प्रगटे छे, एवा सव सत्पुरपा तना परणारविंद सदाय हृदयने विपे स्थापन रहो। जेछ पदयी सिद्ध छ एवं आरमस्वरूप ते जेना पपनने अगाकार मय महजमा प्रगट छे, जे आत्मस्वरूप प्रगटवापी सर्व काळ जीय मपूण आनदन प्राप्त पई निमय पाय छे त बयाना कहनार एका गत्पुरुपना गुणनी ध्यास्या परवाने प्रगति छ, मेमने जैनो प्रयुपारम पई पाम एवा परमात्मभाव त जाण यइ पग इन्टमा पिना मात्र निप्पारण करणागीरतापी आप्पा, एम एता पागे अन्य बीवने दिये था मारोगिय , अपमा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भगिनी गाना , टं मागे, और नयी, या जे गएमा नने अगन मतिय माग नमस्कार हो ! मानुषो नामनी गनि निम्मपण परीछ, ने भक्ति मान मियना पल्याणने महो जे भकिने प्राप्त भवानी मारना कारमानी नेष्याने विष वृत्ति रहे, अपूर्व गुण दृष्टिगोचर य. मन्य म्पच्छद मटे जने महे आत्मबोध थाय एम जाणीनं भनित निरुपण गायु छे, ते भक्तिने अने ते मृत्युम्योने फरी फरी निराक नमस्कार हो! जो कदी प्रगटपणे वर्तमानमा पोवळजाननो उत्पत्ति पई नथी, पण जेना वचनना विनारयोगे शक्तिपणे नेवळज्ञान छ एम स्पष्ट जाण्यु छे, श्रद्धापणे केवळज्ञान धयु छे, विचारदशाए फेवकशान थयु छे, इच्छादशाए कोवळशान थयु छ, मुन्य नयना हेतुथी केवळनान वत छे, ते केवळज्ञान सर्व अव्यावाध सुखनु प्रगट करनार, जेना योगे सहज मात्रमा जीव पामवा योग्य थयो, ते सत्पुरुपना उपकारने सर्वोत्कृष्ट भक्तिए नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! मुवई, फागण, १९५० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 १२९ ( १ ) प्रयारभ ( शार्दूलविहित वृत ) प्रचारभ प्रसंग रंग भरवा, बोटे र कामना, बोपु प्रमद मर्म भर्म हरवा छे अयथा मामना, भाग मोन सुपरोध धम धनना, जो एमा तत्व विचार सत्य गदा, बथु कामना, प्रेरो प्रभु वामना ( २ ) ( छप्पय ) विज्ञानी माभिनदा नाम, विश्व भवन, रणधन गुगणनी ग्रंथ पप आयत, गतमान भगवठा, यति मरिन तंतहास जनस्वा श्री मरणार, रिवोदारण रूप हर, मे पाद, एम. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रभुप्रार्थना जनरल ज्योति स्या. देवळापानिधान मग पुनित तुमरने, भजन भगवान, १ नित्य निरचन निर हो. गमन गंज गुमान; अभिवंदन अभिवदना, भयम्जन भगवान. २ धगधरण तारणतरण, भरण घरण सन्मान; विघ्नहरण पावनकरण, भयभंजन भगवान. ३ भद्रभरण भीतिहरण, सुधाक्षरण गुभवान; गलेशहरण चितावरण, भयभजन भगवान. ४ भविनासी अन्हित तुं, एक मरास अमान, अजर अमर अणजन्म तुं, भयभंजन भगवान. ५ आनंदी अपवर्गी तु, नकळ गति अनुमान, भागिष अनुकूळ मापजे, भयभजन भगवान. ६ निराकार निलेप छो, निर्मळ नीतिनिधान, निर्मोहक नारायणा, भयभजन भगवान. ७ सचराचर स्वयभू प्रभु, सुसद सोपजे सान, सृष्टिनाथ सर्वेश्वरा, भयभजन भगवान. ८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ सपट गोप सकळ हरण, नौतम मान निटान, इच्छा विपन अचळ करा, भयभजन भगवान ९ वाघि व्याधि उपाधिने हरो तत सोफान, करुगानु परणा परो, भयभजन भगवाा १० सिरनी धयर मनि, भूर भयकर मान, कर हे स्नेहे हरो, भयभजन भगवान ११ शनि शिगुने आप, भक्ति मुनिनु दान, मुज मुनि जाहर छ, भयभजन भगवान १२ नीति प्रीति नम्रता, भरी भक्तिनु भान, माय प्रजाने मापगो, भयभजन भगवान १३ प्या पाति औलापता, धर्म मम मनध्यान, सप जप माप द, मयमजन भगवान १४ हर साउग एपपु, हर अप ने अमान, हर अमगा भारत ती, भयमजा भगवान १५ हन मन धन न घमन, दे मुप सुधा रामा, मा बमीन पर भा, भयभजन गयान १६ विाय पिनति रापना, परो भूपापो ध्यान, मान्य करो महाराज से, ममममा भगवान १७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पतिगाल) मंसारमा मन परे पपम मोह पामें ? चराम्याग र पदये गति एक नाम: मागा अहो गगी लो दिक भाप आपी, "भाकाग-पुष की वगमुता बघावी." मुनिने प्रणाम (मनहर छंद) शातिफे नागर भर, नीतिो नागर नेका, दयाके आगर ज्ञान, ध्यानके निधान हो; शुद्धबुद्धि ब्रह्मचारी, मुसबानी पूर्ण प्यारी, मवनके हितकारी, धर्मके उद्यान हो, रागद्वेषगे रहित, परम पुनित नित्य, गुनसे खचित नित्त, सज्जन समान हो, रायचद धैर्यपाल, धर्मढाल क्रोधकाल, मुनि तुम आगे मेरे, प्रनाम अमान हो. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भा एवित्रीडित) माया मान मनोज मोह ममता, मिष्यान मोडो मुनि, पोरी धम घरेल घ्यान घरपी, पारेर धैर्य धूनी, छ मनो। सुनील सोम्य ममता, में घीपळे घडना, __नौति राय दया क्षमापर मुनि पाटी यस वदना फाळ पोईने नहि मूके (हरिगीत) मातीतो माळा गळामां मूयवती मर गन्ती, होरातमा गुम हारगी यह पठाति पळावी, याभूषणोपी मापता भाग्मा मरणो जोनि, पा जागी मा मानीए पार मरे होईन ? मणिमय मुगट मापे परी एडळ मागता, पिपरमां पाशीप पायम राणा, परमां पापा पृथ्वीपनि मा भूत सोईने, पन गागीए मन मागीए पOT मर शो'न २ मागोमा मादिर मुग सहित मानिया से परम प्रेम सेवा पापी बला गरीषपी, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए बेड पीटी सर्व धोती लाग्यिा गुग धोन, जन जागीए मन मानी। नप काळ मलेगो ने. ३ मूछ वाफाठी कारी फायदा पई लोय धरला ते परे, कापेल गली कातर हरमोना हयां हरें; ए माकडीमा बाविया छटरया तजी महु सोने, जन जागीए मन मानीए नवाळ मुके कोईन. ४ यो संडना अधिराज जे चहे पारीने नीपज्या, ब्रह्मांडमा बलवान पईने भूप भारे रूपग्या; ए चतुर चक्री चालिया होता नहोता होईने, जन जाणोए मन मानीए नव काळ मो कोईने ५ जे राजनीतिनिपुणतामा न्यायवंता नीवड्या, अवळा कर्ये जेना वधा गवळा मदा पासा पत्या, ए भाग्यशाळी भागिया ते सटपटो सौ खोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मुके कोईने ६ तरवार बहादुर टेकधारी पूर्णतामां पेखिया, हाथी हणे हाये करी ए केगरी सम देखिया; एवा भला भडवीर ते अते रहेला रोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने. ७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ धर्म विषे (कवित) साझवी सुखद होय, माननणो मद होय, खमा खमा सुट होय, ते ते कशा कामनु ? जुवानीनु जोर होय, एशनो अकोर होय, दोलतनो दोर होय, ते सुख नामनु, यनिता विरास होय, प्रौटता प्रवाश होय, दक्ष जेदा दास होय, होय सुष धामनु, वरे रायचद एम, सद्धर्मने धार्या विना, जाणी लेने सुन्न ए तो, वे ज बदामन ! १ माह मान मोटवाने, फेरपणु पोल्याने, जाळपद तोडवाने, हेते निज हाथथी, कुमतिने कापवाने, सुमतिने स्थापवाने, ममत्वने मापवाने, सार मिद्धान्तथी, महा मोक्ष माणवाने, जगदीश जाणवाने, अजमता आणवाने, वळी भरी मातथी, अलौकिक अनुपम, सुख अनुभववाने, घम धारणान धारो, खरखरी खांतथा २ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दिनकर विना जेवो, दिननो देखाव दीसे, शगी विना जेवी रोते, शर्वरी सुहाय छै; प्रजापति विना जेवी, प्रजा पुरतणी पेखो, सुरस विनानी जेवी, कविता कहाय छे, सलिल विहीन जेवी, सरितानी गोभा अने, भर्तार विहीन जेवी, भामिनी भळाय छे; वदे रायचद वीर, सद्धर्मने धार्या विना, मानवी महान तेम, कुकर्मी कळाय छे ३ चतुरो चोपेथी चाही चिंतामणि चित्त गणे, पंडितो प्रमाणे छे पारसमणि : प्रेमथी; कविओ कल्याणकारी कल्पतरु कथे जेने, सुधानो सागर कथे, साधु शुभ क्षेमयी, मात्मना उद्धारने उमंगथी अनुसरो जो, निर्मळ थवाने काजे, नमो नीति नेमथी; वदे रायचन्द वीर, एवं धर्मरूप जाणी, "धर्मवृत्ति ध्यान घरो, विलखो न वे'मथी." धर्म विना प्रीत नही, धर्म विना रीत नही, धर्म विना हित नही, कथं जन काम Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ गर्म विना टेक नही, घम विना नेक नही, धम विना ऐक्य नहो, धर्म घाम रामनु, धम विना ध्यान नही, घम विना मान नही, धर्म विना भान नही, जीव्यु कोना कामनु ? धर्म विना तान नही, धर्म विना सान नहीं, धर्म विना गान नहीं, वचन तमामनु धम विना धन धाम, घाय धूळधाणी धारो, घम विना धरणीमा, पिता घराय छ, धम विना घामतनी, धारणाओ घोखो धरे, धर्म विना घायु धर्य, धुन थे धमाय छ, धम विना घराघर, धुताशे, न धामधूमे, घम विना ध्यानी ध्यान, ढोग ढगे धाय छे, धारो धारा घवळ, सुधमनी धुरघरता, घया धय ! धामे धामे, घमथी धराय छे ६ (८) सवमाय धम (चोपाई) धमतत्व जो पूछा मने, तो सभळावु स्नेहे तने, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे निमारा मानो मार, नर्वमान्य गहने हितार १ भाग्यु भाषणमा भगवान, वर्ग न बोजो दया ममान, अभयमान मात्र नंतोष, यो प्राणीने, दळवा दोष. २ नत्य शीन ने मधला दान, दया होईने रह्या प्रमाण; दया नहीं तो ए नहि एक, विना सूर्य किरण नहि देव. ३ पुष्पपासडी ज्या दुभाय, जिनवरनी त्या नहि आज्ञाय, सर्व जीवनुं इच्छो मुख, महावीरनी शिक्षा मुख्य ४ सर्व दर्शने ए उपदेग, ए एकाते, नही विशेष, मर्व प्रकारे जिननो वोच, दया दया निर्मळ अविरोध । ५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए भदता क 7 रनघरिने र घ- सुम्नद ए ट . ए वा यन अवाट तत्त्वम्पयो टन ते इन पदोंद न दे, शातिनाय मस्त दि, राजचन्द्र - दि . है.. . नतिनी पत्न (तार शुभ दीन्दनरम्य दृद नही, मनदाति पाकि दिनमनि ग्रहो दरब्य हो, भजीने भगवत Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० निज बामस्वरूप मुदा प्रगटे, मनताप स्वाप तमाम मरे; अति निर्णरता पणदाम ग्रहो, गजीने भगवंत भवंत म्हो २ समभावी सदा परिणाम घरों, जद मंद अधोगति जन्म जशे, शुम मगळ आ परिपूर्ण बहो, भनीने भगवत भवंत हो ३ शुभ भाव वडे मन शुद्ध करो, नवकार महापदने समरो; नहि एह समान सुमंत्र कहो, भजीने भगवंत भवत लहो ४ करणो क्षय केवळ राग कथा, घरशो शुभ तत्त्वस्वरूप यथा, नृपचन्द्र प्रपंच अनत दहो, भजीने भगवंत भवंत लहो. ५ . वि स. १९४० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य पिप गुभाषित (बोदरा) भीगी गम्पोया, 3 ग FTTTE गो गाना पटी, मान गमाग १ मा गा गमाती, मी गालाम्प, ए स्वागी मा म पनर पारसार २ एष विन जीया, धीयो गौ गंगार, पर जोता नीति, ६, पर मे मातार १ वियपहा अपुरपी, टे HIT में प्यान, मेड गरािपापो परे सम मा ४ सेना पार दिपी, परे गियर गुगसाई, भप तेना एच पी रहा तपमा ए माई ५ गुर शियन गुरतम गा पाती मा पे परनारी सबरी, अनुपम पळ ह. पात्र विना यस्तु न रहे. पाने आरिगर , पार पवा वा सन ब्रह्मपय मतिमा ७ वि १९४० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य मनोरथ (नया) मोहिनीभाव विनार मपीन पई, ना नोरस नपने परनारी; पथ्यरतुरा गा, परवैभव, निर्मळ तात्विक लोग ममागे! द्वादन व्रत अने दोनता घरी, सात्त्विक थाउं स्वरूप विचारी; ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमफ, नित्य असंड रहो भवहारी. १ ते निशलातनये मन चितवी, जान, विवेक, विचार वधाएं, नित्य विगोध करी नव तत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चार सशयवीज ऊगे नही अदर, जे जिनना कथनो अवधारु, राज्य, सदा मुज ए ज मनोरथ, धार, थशे अपवर्गउतारु २ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ तप्यानो विचित्रता ( मनहर छ) (एक गरीवनी वपती गयेली सृष्णा) हती दोनताई स्यार तापी पटेलाई अने, मळी पटेलाइ त्यार ताकी छे शठाईने, सापही गेठा त्यारे वारी मनिताई मने, भावी मत्रिताई त्यार तापी नृपाईने, मळी नृपताई त्यारे ताका देवताई भने, दोठा दवनाई त्यार वारी गराइने, अहा ! राजचद्र मानो मानो शराई मळी, वघे तपनाह तय जाय न मराईन यारोवली पडी दाढी हाचातणो दाट वळ्यो, काळी पेशपटी विष सत्ता छवाई गई सूघवु साभननु ने दर ते माही पाळ्यु तेम दाव मावली ते, खरी वनाई गई, चळी फेड वापी, हाट गया, अगरग गयो, ‘ऊवानी आय जता रामही ऐवाई गई, १ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अरे ! राजचंद्र एम, युवानी हराई पण, मनथी न तोय राड ममता मराई गई २ करोडोना करजना, शिर पर डंका वागे, रोगधी घाई गयु, शरीर सुकाईने; पुरपति पण माथे पीडवाने ताकी रह्यो, पेट तणी वेठ पण, शके न पुराईने; पितृ अने परणी ते, मचावे अनेक धध, पुत्र, पुत्री भावे खाउँ खाउ दुखदाईने; अरे । राजचन्द्र तोय जीव झावा दावा करे, जजाळ छडाय नही, तजी तपनाईने. ३ थई क्षीण नाडी अवाचक जेवो रह्यो पड़ी, जीवन दीपक पाम्यो केवळ झंखाईने, छेल्ली इसे पडयो भाळी भाईए त्या एम भास्यु, हवे टाढी माटी थाय लो तो ठीक भाईने; हाथने हलावी त्या तो खोजी बुढ्ढे सूचव्यु ए, वोल्या विना बेस बाळ तारी चतुराईने ! अरे ! राजचन्द्र देखो देखो आशापाश केवो ? जता गई नही डोशे ममता मराईने! ४ - वि. सं. १९४० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) अमूल्य तस्यविचार (हरिगीत छद) बहु पुण्यरेरा पुजयो गुभ दह मानवनो मळ्यो , तोपे अरे! भवचक्रनो माटो नहि एको टळयो, सुम्म प्राप्त करता सुख टळे छ ऐश एसो रहो, क्षण क्षण भयंकर भावमरण का महो राची रहो? १ लामी अने अधिकार यधतां, यध्य ते तो पहो? कुतुब के परिवारथी, वधवापणु ए नय ग्रहो, वधवापणु समारनु नरहने हारी जवा, एनो विचार नहीं अहोहो ! एक पळ वमने हवो !!॥ २ निप सुख निर्दोष मान, ल्यो गमे त्याथी भले, ए दिव्य शक्तिमान जैयो जीरथी नीकळे, परवस्तुमा नहि मूषवो, एनी दया मुजो रही, ए त्यागवा सिद्धात के पश्चातूदुम त सुन नहो ३ हकोण छु? क्याथी थयो ?श स्वरूप छे मारु खरु ? कोना सरपे वळगणा छ ? राखु के ए परहरू ? ' Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ एना विचार विवेकपूर्वक भात भावे जो कर्या, तो सर्व आत्मिक ज्ञानना सिद्धाततत्त्व अनुभव्यां. ४ ते प्राप्त करवा वचन कोनु सत्य केवळ मानवू ? निर्दोप नरनु कायन मानो 'नेह' जेणे अनुमन्यु, रे आत्म तारोमात्म तारो! शीघ्र एने लोळसो, सर्वात्ममा समदृष्टि घो आ वचनने हुदये लतो. ५ --- वि.सं. १९४० जिनेश्वरनी वाणी ( मनहर छद) अनत अनत भाव भेदयी भरेली भली, अनत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानी छ, सकळ जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवाब्धि मोक्षचारिणी प्रमाणी छे; उपमा आप्यानी जेने तमा राखवी ते व्यर्थ, आपवाथी निज मति मपाई मे मानी छे; अहो । राजचन्द्र, बाळ ख्याल नथी पामता ए, जिनेश्वर तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे. १ --- वि. सं. १९४० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णमालिका मगल (उपजाति) तपोपध्याने रविम्प पाय, ए साधीने सोम रही सुहाय, महान त मगळ पति पामे, आवे पछी त बुधा प्रणामे १ निग्रप माता गुरु सिद्धिदाता, का तो स्वयं शुभ प्रपूण स्याना, त्रियोग त्या पवळ मद पाम, स्वरूप सिद्धे विचरी विरामे, २ अनित्य भावना (उपजाति) विद्युत रम्मी प्रभुता पतग, आयुष्य ते तो जळना तरग, पुरदरी चाप अनग रग, शु राचीए त्या क्षणना प्रसग । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अशरण भावना ( उपजाति) सर्वज्ञनो धर्न सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रमाद नाणी; अनाच एकात सनाय याशे, एना विना कोई न बाह्य स्हाशे. - एकत्व भावना (उपजाति) शरीरमा व्याधि प्रत्यक्ष थाय, ते कोई अन्ये लई ना शकाय; ए भोगवे एक स्वात्म पोते, एकत्व एथी नयसुन गोते. ( शार्दूलविक्रीडित) राणी सर्व मळी सुचन्दन धमी, ने चर्चवामा हती, बूझ्यो त्यो ककळाट कंकणतणो, श्रोती नमि भूपति; संवादे पण इंद्रथी दृढ रह्यो, एकत्व साधु कयु, एवा ए मिथिलेशनु चरित मा, मपूर्ण अत्रे थयु. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यत्व भावना (शार्दूलविीरित) ना मारा तन रूप कानि युवती, I पुत्र थे भात ना, ना मारा भृत स्नेहीओ म्वजन , ना गात्र पे गात ना, ना मारा धन धाम मोवन घरा, ए मोह अमात्य, रे!र जीव विचार एम जसरा, अपत्वदा भावा (शार्दूलविक्रीष्टिन) देखी आगळी आप अडवी, वैराग्यवेगे गया, छाडी राजसमाजने भरतना, बयनानी थया, चोथु चित्र पवित्र एज परिते पाम्य अही पूणता, मानीना मन तेह रजन फरो, वैराग्य भाव मया । अशुचि भावना (गीति वृत्त) खाण मूत्र ने मळनी, रोग जरानु नियासनु धाम, काया एवी गणीने, मान त्यजीन पर साथ आम Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० निवृत्ति बोध ( नारान छंद) अनंत सौत्य नाम दुग त्या रही न मित्रता! अनंत दुस नाम सौख्य प्रेम त्या, विचित्रता !! उघाउ न्याय-नेत्र ने निहाळ रे ! निहाळ तुं; निवृत्ति शोघ्रमेव घारी ते प्रवृत्ति बाळ नु. दोहरा ज्ञान, ध्यान, वैराग्यमय, उत्तम जहां विचार ए भावे शुभ भावना, ते ऊतरे भव पार. ज्ञानी के अज्ञानी जन, सुख दुख रहित न कोय; ज्ञानी वैदे धैर्यथी, अनानी वेदे रोय. मंत्र तंत्र औषध नही, जेथी पाप पलाय; वीतराग वाणी: विना, अवर न कोई उपाय, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ जम, जरा ने मृत्यु, मुख्य दुखना हेतु कारण सेना ये वा, राग द्वेप अणहेतु वचनामृत वीतरागना परम शातरस मूळ, औपच जे भवरोगना, कायरने प्रतिकूळ "सुखको सहेली है अकेली उदासीनता" अध्यात्मनो जननी ते उदासीनता ला वयपी अद्भुत ययो, तत्त्वज्ञाननो वोध, एज सूचवे एम घे, गनि आगति या शोध ? १ जे सस्कार पयो घटे, अति अम्यासे काम, विना परिश्रम त थयो, भवता शी त्याय? २ जेम जेम मति अल्पता अने मोह उद्योत तेम तेम भवशक्ना, अपात्र अतर ज्योत ३ परी कल्पना दृढ करे ना नास्ति विचार, पर अम्ति से सूचव, रा निरि ४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आ भव वण भव छे नही, एज तर्क अनुकूळ; विचारता पामी गया, वात्मपर्ने मूळ. ५ वि.सं. १९४५ (१८) भिन्न भिन्न मत देखीए, भेद दृष्टिनो एह; एक तत्त्वना मूळमां, व्याप्या मानो तेह. १ तेह तत्त्वरूप वृक्षनु, आत्मधर्म छे मूळ स्वभावनी सिद्धि करे, धर्म ते ज अनुकूळ. २ प्रथम आत्मसिद्धि थवा, करीए ज्ञान विचार, अनुभवी गुरुने सेवीए, बुधजननो निर्धार ३ क्षण क्षण जे अस्थिरता, अने विभाविक मोह; ते जेनामाथी गया, ते अनुभवी गुरु जोय. ४ वाह्य तेम अभ्यतरे, ग्रंथ थि नहि होय, परम पुस्प तेने पहो, सरळ दृप्टिथी जोय. ५ वि.सं. १९४५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चोपाई) , होर पुग्घसस्थाो बहो, एनो भेद तमे वई P ? एन पारण समज्या मार्ग, दे समजाय्यानी पशुराई ? ' शरीर पग्पी ए उप-श, जान पाने के उद्देश, जेम जणावा सुणीए हम, का तो साईश दर्दए ग २ २ शु परयापी पोत गुम्धी ? पु करवापी पोत दुखा? पोते शु? पर्यापी छे आप एनो मागा नीघ्र जवाप । ३.ज्या थवा त्या गण गंताप, का नहि स्थाप, रिया उत्तम ज्ञान, । गुरु भगयान १ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गु यो या पद गय, it it मग, और ना तो . .ग. २ जे गायो, मर नम गंगे विr; समजाव्यानी ती मार्ग, पादपार समजण पण गरी ? मुल स्पिति जो पूछो मने, तो गोपी ड योगी गने, प्रथम अत ने मध्ये एक, लोकाप अलोको देग. २ जीवाजीव स्थितिने जोई, दळ्यो ओरतो का पोर; एम ज स्थिति त्या नही उपाय, "उपाय का नहीं?" गका जाय. ३ ए आश्चर्य जाणे ते जाण, जाणे ज्यारे प्रगटे भाण, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समजे यमुनिमत जीप, नोरसा सरापोक सदीय ४ घपयुक्त जीव बम सहित, पुद्ग रमना गर्म रापीठ, पुगलमा प्रपम स माग, नर हे पछी पामे प्यारा ५ जा में पगरनो ए देह तापण भोर स्पिति रया छेद, समजण बीजी पछी कहीरा, ज्यार चित्ते स्थिर पई। ६ जहां राग को बढी ट्रेप, वहा रावदा मानो परमा, उदासीनतानो ज्या वास, सकळ दुसनो छे त्या नाश १ सब कालनु छे त्या मान, देह एता त्या छ निर्वाण, भय छवटना छ ए दा, राम धाम बावीने वस्या २ मुबई, फागण व १, १९४६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम : नामो; मास्यानु, नि, Tट गुमा मागो. गंगा, पद, गुरु, १४६ (२१) होत गगया परिगण, नदि इनमें मशः मान पृष्टिगी मूल , , भूल गये गत परि. रचना गिन उपदेशयो, परगोतम दिनु पाल; इनमें नय मत रहन है, भारते निज संभाल, जिन नो ही है मातमा, अन्न होई यो कर्म; कर्म फटे सो जिनवचन, तत्वज्ञानीको मर्म. जब जान्यो निजरपको, तब जान्यो सब लोकः नहि जान्यो निजरूपको, सब जान्यो सो फोक एहि दिशाको मृढता, है नहि जिन भाव, जिनसे भाव, विनु कबू, नहि छूटत दुःखदाव. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ म्मपहारमें दो दिन, निहयेमें है आप, एहि पचनसे समज ले, मिनप्रवचनकी छाप एहि नहा है पत्पा, एही मही विमग, जय जागंग मातमा तर लागेंग रग हा नो ११४ (२२) मारग सावा मिल गया, छूट गये संदेह, होता सो तो जर गया, भिन्न क्यिा निज देह समज, पिछे सर सरल है, यिनू समन मुगयील, ये मुशकीली क्या पहु? " खोज पिंड ब्रह्माडका, पत्ता तो लग जाय, पेहि ब्रह्मादि यासना, जब जावे तय आप आप भूल गया, इनसे क्या अपर? समर समर भय हसत हैं, नहि भूलेंगे फेर जहा फ्लपना-जल्पना, तहा मानु पुस छाई, मिटे कलपना-जापना, तब वस्तू तिन पाई Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ है जीव ! गया इच्छत हवे ? है इच्छा दुसमूर; जब इच्छाका नाग तब, मिटे अनादि भूल, ऐसी कहामे मति भई, आप माप है नाहि, आपनकुं जब भूल गये, अवर कहांसे लाई. आप आप ए गोधने, आप आप मिल जाय; आप मिलन नय वापको, "" ." हा, नो. १-१२ (२३) बीजा साधन बहु कर्या, करी कल्पना आप, अथवा असद्गुरु थकी, ऊलटो वव्यो उठाप. पूर्व पुण्यना उदयधी, मळ्यो सद्गुरु योग; वचनसुवा श्रवणे जता, थयु हृदय गतशोग. निश्चय एथी आवियो, टळशे अही उताप; नित्य कर्यो सत्संग में, एक लक्षथी आप मोरवी, आसो, १९४६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ (२४) ॐ सत (दोहरा विना नयन पाव नहा, बिना नयनको बात, सेवे सद्गुल्ले चरन सो पावे साक्षात १ चूझी घहत जो प्यासको, ह बूझनकी रीठ, पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित २ एही नहि है पल्पा , एही नहीं विभग, पई नर पचमकाळमें, देखी वस्तु अभग ३ नहि ६ तु उपटेकु प्रयम रहि उपदा, सबसें यारा अगम ह धो नानीका देश ४ जप, तप और प्रवादि राब, वहा लगी भ्रमरुप, जहा रगा नहि सतयी, पाई धृपा अनूप ५ पायाकी ए बात है, निज छदनको छोड, पिछे लाग सत्पुरपवे, तो सब पधन तोड ६ मुबई, अपाड, १९४७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० (२५) ( दोहरा) हे प्रभु, हे प्रभु, सु कहुं, दीनानाथ दयाळ, हुं तो दोष अनंतनु, भाजन छु करुणाळ. १ शुद्ध भाव मुजमा नथी, नथी सर्व तुज रूप; नथी लघुता के दीनता, शु क्हुँ परमस्वरूप ? २ नथी आज्ञा गुरुदेवनी, अचळ करी उरमाही, आप तणो विश्वास दृढ, ने परमादर नाही. ३ जोग नथी सत्संगनो, नथी मत्सेवा जोग; । केवळ अर्पणता नथी, नथी आश्रय अनुयोग. ४ 'हुँ पामर शु करी शकुं ?' एवो नथी विवेक; चरण शरण धीरज नथी, मरण सुधीनी छेक. ५ अचिंत्य तुज माहात्म्यनो, नयी प्रफुल्लित भाव; अंश न एके स्नेहनो, न मळे परम प्रभाव ६ अचळरूप आसक्ति नहि, नहीं विरहनो ताप; कथा अलभ तुज प्रेमनी, नहि तेनो परिताप. ७ भक्तिमार्ग प्रवेश नहि, नही भजन दृढ भान; समज नही निजधर्मनी, नहि शुभ देशे स्थान. ८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काळदोष कळियी थयो, नहि मर्यादा घम, सोय नही व्याकुळता, जुओ प्रभु मुज बम ९ सेवाने प्रतिकूळ जे, ते बघन नथी त्याग, देहद्रिय माने नहीं, करे वाह्य पर राग १० तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नाही, महि उदास अनभक्तथी, तेम गृहादिय माही ११ महमावधी रहित नहि, स्वधर्म सचय नाही, नथी निवृत्ति निमळपणे अय धमनी काई १२ एम अनत प्रकारथी, साधन रहित हुय, नही एक सद्गुण पण, मुख वतावु शुय? १३ फेवळ करुणामूर्ति छो, दीनबघु दीननाथ, पापी परम मनाय छु ग्रहो प्रभुजी हाय १४ अनत पाळयी आथडयो, विना भान भगवान, सेन्या महि गुरु सतने मूक्य नहि अभिमान १५ सत चरण आयय विना, साधन कयाँ अनक, पार न तेषा पामियो ऊग्यो न अश विवेक १६ राह साधन बधन पया, रहो न कोई उपाय, अनुसापा समग्यो नही, त्या वपन शु जाय ? १५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पडयो न सद्गुरु पाय; दीठा नहि निग दोष तो, तरिये कोण उपाय ? १८ अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमा हुय, ए निश्चय माव्या विना, सावन करशे शुय? १९ पडी पडी तुज पदपकजे, फरी फरी मागु ए ज; । सद्गुरु सत स्वरूप तुज, ए दृढता करी दे ज २० राळज, भा मुद ८, १९४७ (२६) ॐ सत् (वोटक छंद) यम नियम सजम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो वनवास लियो मुख मौन रह्यो, दृढ आसन पद्म लगाय दियो. १ मन पौन निरोध स्ववोध कियो, हजोग प्रयोग सु तार भयो, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ३ जप भेद जपे सपयोंहि तपे, उरसेंहि उदासी ल्ही सबप २ सब शास्त्रनके नय पारी हिये, मत महन खडन भेद लिये, यह साधन बार अनत पियो वदपि कछु हाथ हजुन पर्यो ३ अब धयों न विचारत हमनसे, बधु और रहा उन साधनसें ? दिन सद्गुरु कोय न भेद लहै, मुख ओगल ह यह बात कहे? ४ करना हम पावत है तुमकी, यह मात रही सुगुरु गमकी, पलमें 'प्रगटे मुख बागलसे, जय सद्गुपचन सुप्रेम बसें ५ तनसें, मनमें, धनमें, सबसे, गुरुदयकी भान रवआत्म बसें, राव वारज सिद्ध बने अपनो, रस अमृत पापहि प्रेम धनो ६ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ १६४ वह सत्य सुधा दरसावहिंगे, चतुरागुल हे दृगमें मिलहे, रस देव निरजन को पिवही, गहि जोग जुगोजुग सो जीवही. ७ परप्रेमप्रवाह बढे प्रभुसे, सव आगमभेद सुउर बसे; वह केवलको वीज ग्यानि कहे, निजको अनुभौ बतलाई दिये. ८ राळज, भा. सुद ८, १९४७ (२७) ( दोहरा) १) जड भावे जड परिणमे, चेतन चेतन भाव; कोई कोई पलटे नही, छोडी आप स्वभाव. १ जड ते जड पण काळमा, चेतन चेतन तेम; प्रगट अनुभवरूप छ, सशय तेमा केम ? २ जो जड छे त्रण काळमा, चेतन चेतन होय, बंध मोक्ष तो नहि घटे, निवृत्ति प्रवृत्ति न्होय. ३ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बघ मोक्ष सयोगयी, ज्या लग आत्म अमान, पण नहि त्याग स्वभावना, भाखे जिन भगवान ४ घर्ते बघ प्रसगमा, ते निजपद अमान, पण जडता नहि मात्मने, ए सिद्धात प्रमाण ५ महे अरूपी रूपीने, ए अचरजनी वात, जीव बधन जाणे नहीं, येवो जिन सिद्धात ६ प्रथम देहष्टि हतो तेथा भास्यो देह, हवे दृष्टि थई आत्ममा, गयो दहयो नेह ७ जह चेतन सयोग आ, खाण अनादि अनत, कोई न पर्ता तहनो, भासे जिन भगवत - ८ मूळ द्रव्य उत्पन्न पहि, नहीं ना पण तेम, अनुभवयी ते सिट छ भाखे जिनयर एम ९ होय तहनो ना नहि, नही तह नहि होय, • एव समय से सो समय भेद अवस्था जोय १० (२) परम पुरुष प्रभु सद्गुरु, परम पान सुखपाम, जेणे आप्प भान निज, सेन मदा प्रणाम १ राळज, मा सुद ८, १९४७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ (२८) (हरिगीत) जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सामळो. जो होय पूर्व भणेल नव पण, जीवने जाण्यो नही, तो सर्व ते अज्ञान भाख्यु, साक्षी छे आगम अही; ए पूर्व सर्व कह्या विशेपे, जीव करवा निर्मळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभळो. १ नहि ग्रंथमाही ज्ञान भास्युं, ज्ञान नहि कविचातुरी, नहि मंत्र तंत्रो ज्ञान दाख्या, ज्ञान नहि भाषा ठरी, नहि अन्य स्थाने ज्ञान भाख्यु, ज्ञान ज्ञानीमा कळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभळो. २ आ जीव ने आ देह एवो, भेद जो भास्यो नही, पचखाण कीधा त्या सुधी, मोक्षार्थ ते भाख्या नही; ए पाचमे अगे कह्यो, उपदेश केवळ निर्मळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो ३ केवळ नही ब्रह्मचर्यथी," ..." केवळ नही संयम थकी, पण ज्ञान केवळथी कळो, जिनवर कहे के ज्ञान तेने, सर्व भव्यो साभळो. ४ ............ ... .. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ शास्त्रो विशेष सहित पण जो जाणियं निज रूपने, का तेहवो आश्रय परजो, मावयी साचा मने, तो पान तेने भाखियु, जो सम्मति आदि स्थळो, जिनवर यहे छ नान तने, सब भव्यो सामळो ५ आठ समिति जाणीए जो, मानीना परमाथथी, तो भान भास्यु तन, अनुसार त मोक्षायथी, निज पल्पनापी कोटि शास्त्रो, मात्र मननो आमळो, जिनवर कहे छे मान तेन, सब भन्यो सामळो ६ चार घेद पुराण आदि, पास्त्र मौ मिथ्यात्वना, यानदीसूत्र भासिया छ, भेद ज्या सिद्धातना, पण पाणीने ते मान मास्या, एज ठकाणे ठरो, जिनवर कहे छे मारा तेन सर्व भन्या सामळा ७ प्रत नही पचण नहि नहि त्याग वस्तु कोइनो, महापम तीधार पशे श्रेणिर टाणग जोई रो ऐयो जनता राळज, भा १९४७ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ( २९ ) १ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थईशु वाह्यातर निर्मथ जो? सर्व सबंधन वधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरशु कव महत्पुरुषने पंथ जो ? अपून " २ सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी, मात्र देह ते सयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नही, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो. अपूर्व० ३ दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोघ जे, देह भिन्न केवल चैतन्यनं ज्ञान जो; तेथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकिये, वर्ते एवं शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो. अपूर्व ४ आत्मस्थिरता त्रण सक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यत जो; घोर परीपह के उपसर्ग भये करी, आवी शके नही ते स्थिरतानो अंत जो. अपूर्व० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ सयमना हेतुपी योगप्रवर्तना, स्वस्पर जिनमा आधीन जो, से पण क्षण क्षण घटती जावी स्थितिमा, अते थाये निजस्वरूपमा तीन जो अपूर्वक पच विषयमा रागोप विरहितता, पच प्रमादेन मळे मनना क्षोभ जो, द्रव्य, क्षेत्र नेपाळ, भाव प्रतिश्पवण, विपरख उदयाघी पण वीतलोम जो अपूर्व० ७ द्रोप प्रत्येको बतें झोधस्यमावता, मान प्ररपे ता दीनपान मान जो, माया प्रत्ये माया सानीमावनी, शोम प्रस्प नहीं लोम समाा जो यपूर्ण ८ मह रूपसगरी प्रत्य पोप नहीं, म पनी तपापि न मळे माना, यह पाय पण माया पाप न राममा, मोम नहीं छो प्रबळ सितिमिलान जो अपूप. १ मनमाय, मुहमार सह अस्नानठा अटोपन आदि परम प्रसिरमो, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० केश, रोम, नख के अगे शृंगार नही, द्रव्यभाव सयममय निग्रंथ सिद्ध जो. अपूर्व० १० शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान अमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो; जीवित के मरणे नही न्यूनाधिकता, भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो अपूर्व० ११ एकाकी विचरतो वळी स्मशानमा, वळी पर्वतमा वाघ सिंह सयोग जो; अडोल आसन, ने मनमा नही क्षोभता, परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो. अपूर्व० १२ घोर तपश्चर्यामा पण मनने ताप नही, सरस अन्ने नही मनने प्रसन्नभाव जो; रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो अपूर्व १३ एम पराजय करीने चारित्रमोहनो, आवु त्या ज्या करण अपूर्व भाव जो, श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढता, अनन्य चितन अतिशय शुद्धस्वभाव जो अपूर्व० Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मोह स्वयभूरमण समुद्र तरी करी, स्थिति त्या ज्या क्षीणमोह गुणस्थान जो, अत समय त्या पूणस्वरूप वीतराग यई, प्रगटावु निज फेवलनान निघान जो अपूव० १५ चार कम धनघाती ते व्यवच्छेत ज्या भवना वीजतणो जात्यत्तिक नाश जो, सव भाव माता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीय अनंत प्रकाश जो अपूर्व० १६ धंदनीयादि चार कम वर्ते जहा, बळी सौंदरीक्त आकृति मान जो, से पहायुप आधीन जेनी स्पिति छ, आयुप पूर्णे, मरिये दैहित पात्र जो अपूर्व० १७ मन, वचन, पाया ने कर्मनी वगणा, छूटे जहा सकळ पुद्गल सबघ जो, एव अयोगी गुणस्थानव त्या यततु, महाभाग्य सुगदायव पूर्ण अवध जो अपूर्व० १८ एक परमाणुमात्रनो मळे न पाता, पूर्ण फलफ रहित अडोल स्वरूप जो, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो. अपूर्व० १९ पूर्वप्रयोगादि कारणना योगथी, ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो;. सादि अनंत अनंत समाविसुखमा, अनंत दर्शन, ज्ञान अनंत सहित जो अपूर्व० २० जे पद श्री सर्वज्ञ दौठं ज्ञानमा, कही शक्या नही पण ते श्री भगवान जो, तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शं कहे ? अनुभवगोचर मात्र रह्य ते ज्ञान जो. अपूर्व २१ एह परमपद प्राप्तिनुं कयुं ध्यान मे, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो, तोपण निश्चय राजचद्र मनने रह्यो, प्रभुआज्ञाए थाशु ते ज स्वरूप जो. अपूर्व . ववाणिया, १९५३ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) मूळ मारग सामळो जिननो रे, करी वृत्ति असड स मुख, मूळ नो'य पूजादिनी जो कामना रे, । नोय व्हालु अतर भवदु ख मूळ० १ करी जोजो वचननी तुलना र, जोजो शोधीने जिनसिद्धात, मूळ मात्र कहे परमारथहेतुथो रे, । कोई पामे मुमुक्षु वात मूळ० २ शान, दर्शन, पारिवनी शुद्धता रे एवपण अने अविरुद्ध, मूळ जिनमारग ते परमाथथी रे, एम पा. सिखाते बुध मूळ० ३ रिंग बने भेदो जे अतना र, द्रव्य दया काळादि भेद मूळ० पण ज्ञानादिनी जे शुद्धता रे, तो प्रणे काळे अभेद मूळ ४ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ हवे ज्ञान दर्शनादि शन्दनो रे, संक्षेपे सुणो परमार्थ, मूळ० तेने जोता विचारी विशेषथी रे, समजाशे उत्तम आत्मार्थ. मूळ० ५ छ देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश, मूळ एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, का ज्ञान तेनु नाम खास. मूळ० ६ जे ज्ञाने करीने जाणियु रे, तेनी वर्ते छे शुद्ध प्रतीत; मूळ का, भगवते दर्शन तेहने रे, ___जेनु वीजुं नाम समकित. मूळ० ७ जेम आवी प्रतीति जीवनी रे, जाण्यो सर्वेथी भिन्न असग; मूळ० तेवो स्थिर स्वभाव ते उपजे रे, नाम चारित्र ते अलिंग. मूळ० ८ ते अणे अभेद परिणामथी रे, . ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप; भूळ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेह मारग जिमनो पामियो रे, किंवा पाम्यो त निजस्वरूप मूळ० ९ एवा मूळ नानादि पामवा रे, अने जवा अनादि वष, मूळ० उपदेश सद्गुरुनो पामयो रे, __टाळी स्वच्छद न प्रतियध मूळ १० एम दय जिनदै भासिम रे, गोगमारगनु गुट स्परूप, मूळ मध्य जनो हितने पारण रे, सोप या स्वरूप मूळ० ११ माणद, मासो सुद १, १९५२ (३१) (गीति) पंप परमपद पायो, जेह प्रमाा परम वीसरागे, से सामरी रही प्रगमोने के प्रम मन्ति राग १ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मूळ परमपद कारण, - सम्यक् दर्शन ज्ञान चरण पूर्ण; प्रणमे एक स्वभावे, . शुद्ध समाघि त्या परिपूर्ण, २ जे चेतन जड भावो, अवलोक्या छे मुनीद्र सर्वज्ञे; तेवी अन्तर आस्था, प्रगट्ये दर्शन का छे तत्त्वज्ञे. ३ सम्यक प्रमाण पूर्वक, , ते ते भावो ज्ञान विषे भासे; सम्यग्ज्ञान कह्य ते, संशय, विभ्रम, मोह त्या नाश्ये. ४ विषयारंभ . निवृत्ति, राग-द्वेषनो अभाव ज्या थाय; सहित सम्यकदर्शन, . शुद्धचरण त्या समाधि सदुपाय. ५ त्रणे अभिन्न स्वभावे, परिणमी आत्मस्वरूप ज्या थाय, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 १७७ पूर्ण परमपर प्राप्ति, निरचयपी या अनय गुणवाय ६ जीप, अभीय पार्क, पुण्य, पाप, आग्पय तथा वप, सयर, निजरा, माप, राश्य महा नव पाय सयष ७ जीप, अजीय पिप , म तरपनो समारे पाय, यस्तु विचार दिपे, मिग प्राध्या महान मुरार ८ यरिया, रि, १९५६ पार Tram मा पहा मागी राति मार, पर पारा मी, मको कामना गद ८ मग म एत्रीग, भादो म हनुमार , . ! Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ योगणीसमें ने वेठालोसे, अद्भुत वैराग्य घार रे धन्य० २ ओगणीससें ने मुटताठीसे, समक्ति शुद्ध प्रकाश्यु रे, श्रुत अनुभव पवती दशा, निज स्वरूप अवमास्यु रे. धन्य० ३ त्या आव्यो रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य प्रपच रे; जेम जैम ते हडसेलीए, तेम वघे न घटे एक रंच रे. धन्य० ४ वधतु एम ज चालियु, हवे दीसे क्षीण काई रे, क्रमे करीने रे ते जशे, एम भासे मनमाही रे. धन्य० ५ यथाहेतु जे चित्तनो, सत्य धर्मनो उद्धार रे, थशे अवश्य आ देहथी, एम थयो निरधार रे. धन्य० ६ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधी अपूर्व वृत्ति अहो, पशे अप्रमत्त योग रे, केवळ लगभग भूमिका, स्पर्शीने देह वियोग रे घय० ७ अवश्य कमनो भोग छ, भोगववो अवशेष रे, तेपी देह एक ज धारीने, । जाशु स्वरूप स्वदेश रे. धय० ८ हा नो १-३२ (३३) जह ने चैतम बन द्रव्यनो स्वभाव भिन्न, सुप्रवीतपणे बने जेने समजाय छे, स्वरूप घेतन निज, जड छ सबध मात्र अथवा त नेय पण परद्रव्यमाय छ एवो अनुभवनो प्रयाग उल्लसित थयो, जयी उदासीतेने भात्मवृत्ति थाप छ, पायानी पिसारी माया, स्वरूपे समाया एषा, निम पनो पय भवअन्तनो सपाय छ १ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L- ve देह जीव पाये भारे में अज्ञान घरे, जियानी प्रवृत्ति पण नंगी ने थाम छे; जीवनी उत्पत्ति बने रोग, गाल, दुस, मृत्यु, दहनो स्वभाव जीव पदमा जगाय छे, एवो जे अनादि एकम्पनो मिथ्यात्वभाव, भानीना वचन बडे दूर थई जाय ऐ; भासे जड पतन्यनो प्रगट स्वभाव मिन्न, बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे, २ मुं० का० वद ११, मंगळ, १९५६ (३४) सद्गुरुना उपदेशची, समजे जिन रूप; तो ते पामे निजदगा, जिन छे आत्मस्वरूप. । पाम्या युद्ध स्वभावने, छे जिन तेथी पूज्य, समजो जिनस्वभाव तो, आत्मभाननो गुज्य. २ स्वरूपस्थित इच्छारहित, विचरे पूर्वप्रयोग; । अपूर्व वाणी, परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य. ३ नडियाद, मासो वद २, १९५२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ (३५) थी जिन परमात्मने नम (१) हम । जे जोगी अन, अनव मुगस्यम्प, मूळ गुट से बामप', मयोगी स्विरूप १ भारमम्यमाव अगम्य से, अवर धन प्रापार, निपपी शादिया, सह प्यार प्रार. २ निरपर जिपद पता, भेदभाय नदिमाई, Pा पाने सहनी, पाग त गुगनई ३ गिन प्रवचन गम्मा पारे पति मणिमा, भवनमा थी PATr, गुगम मा मुगमान ४ सपा प्रिपा, मि मिति पनि अनि, उमप माप पटेल FREP भदिपा रहे बतईग मांग प्राविधी , नि म मनुयोग । प्रपा शाह 4t art मा गम, ई पोरनी मदिरा ग . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ विषय विकार महित जै, रक्षा मतिना योग, परिणामनी विषमता, तेने योग श्योग. ८ मंद विषय ने सरळता, सह लामा सुविचार, करुणा कोमळतादि गुण, प्रथम भूमिका पार ९ रोक्या शब्दादिक विषय, सयम साधन राग; जगत इष्ट नहि आत्मयी, मध्य पात्र म्हाभाग्य १० नहि तृष्णा जीव्यातणी, मरण योग नहि क्षोभ, महापात्र ते मार्गना, परम योग जितलोम. ११ (२) आध्ये बहु समदेशमां, छाया जाय समाई, आव्ये तैम स्वभावमा, मन स्वरूप पण जाई १ ऊपजे मोह विकल्पथी, समस्त मा संसार; अंतर्मुख अवलोकता, विलय थता नहि वार. २ सुखधाम अनंत सुमंत चही, दिन रात्र रहे तद्ध्यान महो; परशान्ति अनत सुधामय जे, प्रणमु पद ते वर ते नय ते. १ राजकोट, चैत्र सुद ९, १९५७ . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ ( ३६ ) आत्मसिद्धि जे स्वरूप सम या विना, पाम्यो दुख अनत, समजान्यु ते पद नम्, श्री सद्गुरु भगवत १ वतमान या काळमा, मोक्षमार्ग बहु लोप, विचारवा आत्मार्थोने, माख्यो अत्र अगोप्य २ काई क्रियाजह पई रह्या, शुष्कज्ञानमा कोई, माने मारग मोपनो करुणा ऊपजे जोई ३ बाह्य क्रियामा राचता, अतर्भेद न काई, पानमाग निघता, तेह क्रियाजड आई ४ बघ मोप छ कल्पना, माख वाणीमाही वर्ते मोहावशमा शुष्कतानी ते आही ५ वैराग्यादि सफळ तो, जो सह मातममान सेम ज आतमनाननी प्राप्तितणा निदान ६ त्याग विराग न चित्तमा, पाय न तेने शान मटके त्याग विरागमा, तो भूले निजभान ७ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Rad जा ज्या गोल गह स्या या मे में जानरे, भामार्ग एन एह. ८ गे मारनगने, व्यागी दई निगा; पाने में गायन, नो मन. ९ सामान गमागमा, विनर उपयोग अपूर्य घrt परमथुन, मगर लक्षण गोय. १० प्रत्यक्ष मदगुरु गम नही, परोन मिग उपचार; एवो पक्ष घया दिना, कने न आत्मविचार. ११ मद्गुग्ना उपदेग वण, समजाय न जिनरप, समज्या वण उपकारमो ममन्ये जिनस्वरूप. १२ मात्मादि अस्तिन्वना, नेह निम्पा पास्त; प्रत्यक्ष मद्गुरु योग नहि, त्या भावार सुपात्र. १३ अथवा सद्गुगए काधा, जे अवगाहन कान, ते ते नित्य विचारवा, कारी मतातर त्याज १४ रोके जीव स्वच्छद तो, पामे अवश्य नाक्षा पाम्या एम अनत छ, भास्यु जिन निर्दोष १५ प्रत्यक्ष सद्गुरु योगथी, स्वच्छद ते रोकाय, अन्य उपाय कर्या थकी, प्राये वमणो थाय. १९ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ स्वगुद मत आग्रह तजी वर्ते सद्गुरलक्ष, समवित तने भाखियु, कारण गणी प्रत्यक्ष १७ मानादिक शत्रु महा, निजछते न मराय, जाता सद्गुरु गरणमा, अल्प प्रयासे जाय १८ जे सद्गुरु उपशथी, पाम्यो केवळनान, गुरु रहा छास्थ पण, विनय पर भगवान १९ एवो माग विनय तणा भाख्यो श्री वीतराग, मूळ हेतु ए मार्गनो समो कोई सुभाग्य २० असदगुरु ॥ विनयनो, लाम रहे जो काई, महामोदनीय कर्मयी, चूड भवजळ माही २१ होम मुमुच जीव ते, समजे एह विचार, होय मसायों जीव से, अवळो ले निर्धार २२ होप मतार्थी पहने, थाप न आतमलम सैह भतार्थी पक्षणा अहीं यह्या निपक्ष २३ मतार्थी-लक्षण पाह याग पा भान नहि, ते माने गुरु सत्य, अपवा निजकुळपमना, स गुरुमा ज ममत्व २४ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे जिनदेह प्रमाण ने, समवसरणादि सिद्धि; वर्णन समजे जिननु, रोको रहे निज बुद्धि. २५ प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमा, वर्ते दृष्टि विमुख, असद्गुरुने दृढ करे, निज मानार्थे मुख्य २६ देवादि गति भगमा, जे समजे श्रुतज्ञान; माने निज मत वेपनो, याग्रह मुक्तिनिदान. २७ ला, स्वरूप न वृत्तिनु, ग्रह्य, व्रत अभिमान; ग्रहे नही परमार्थने, लेवा लौकिक मान. २८ अथवा निश्चय नय ग्रहे, मान शब्दनी मांय; लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहित थाय. २९ ज्ञानदशा पामे नही, साधनदशा न काई; पामे तेनो संग जे, ते वूडे भवमाही ३० ए पण जीव मतार्थमा, निजमानादि काज, पामे नहि परमार्थने, अन्-अधिकारीमा ज ३१ नहि कषाय उपशातता, नहि अतर वैराग्य, सरळपणु न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ३२ लक्षण कह्या मतार्थीना, मतार्थ जावा काज, हवे कहु आत्मार्थीना, आत्म-अर्थ सुखसाज. ३३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमापों एग माग को पुनि माया गुरदाय, साना मामापी महिबार १४ भाग प्राशिना, पण पग्म डागर, Trar पापी, मामामार. ३५ Prन मी, पारा पंप, *. - परमादी, में Fan , ३ - रिपोr, rrrr गोग, काम PE FRd गेनर मन . Ter मा मन In at RE नि ८ Harirm EPR atter si sta aut n an d ha pa Emit Rani camak k E is the Indian Anu • ak the ka meetinidha १r Prak, rr fort Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ऊपजे ते मुविचारणा, मोक्षमागं समजाय; गुरुशिष्य मवादयी, भार पट्पद नाही. ४२ षट्पदनामकयन 'आत्मा छे', 'ते नित्य छे', 'छे कर्ता निजकम', 'छ भोक्ता' वळी 'मोक्ष छे', 'मोक्ष उपाय सुधर्म.' ४३ पटस्थानक संक्षेपमा, पट्दान पण तेहा । समजावा परमार्थने, कह्या ज्ञानीए एह ४४ (१) शंका-शिष्य उवाच नयी दृष्टिमा आवतो, नथी जणातुं रूप, बोजो पण अनुभव नही, तेथी न जीवस्वरूप ४५ अथवा देह ज आतमा, अथवा इद्रिय प्राण, मिथ्या जुदो मानवो, नहीं जुटुं अधाण. ४६ वळी जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहि केम? जणाय जो ते होय तो, घट पट आदि जेम. ४७ माटे छे नहि आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय; । ए अतर शंका तणो, समजावो सदुपाय. ४८ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) समायान-सद्गुरु उवाच भास्पो देहाध्यारापी, आरमा दह समान, पण त यन्ने भिन्न छे प्रगट सगे भार ४९ भाम्पा दहाम्यागयो, आत्मा देह समान, पग छे बन्ने भिन्न छ, जेम अगि ने म्यान ५० से प्रष्टा ऐ दृष्टियो, पे जाते. रूप, भवाम्य भाभव में रहे, न ऐ जीवस्वम्प ५१ छे इंद्रिय प्रपैरस, निज निज विषमर्नु कान, पाप र पिपया पा धारमाने भा ५२ दे पा सहो, पाणे न टी प्राा, आगामी गगा पर, शह प्रयाँ भाग ५३ सर्व पपरपात पिणे, ग्यारो गा पाग मगर पासमय ए पाग राशप ५४ पर, ५ मा भाग तु, तपो धने पान, मार ने मान महि रहीए मेगा? ५५ परम हिमा, स्पूह मति मन्य, प हो यो मामा, में नाम nिer ५९ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जड चेतननो भिन्न छे, केवळ प्रगट स्वभाव; एकपणुं पामे नही, अणे काळ द्वय भाव. ५७ मात्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप; । गंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप. ५८ (२) शंका-शिष्य उवाच आत्माना अस्तित्वना, आपे कह्या प्रकार, संभव तेनो थाय छे, मंतर कर्ये विचार. ५९ वीजी शंका थाय त्यां, आत्मा नहि अविनाश, देहयोगयी ऊपजे, देहवियोगे नाश. ६० अथवा वस्तु क्षणिक छ, क्षणे क्षणे पलटाय; ए अनुभवथो पण नही, आत्मा नित्य जणाय. ६१ (२) समावान-सद्गुरु उवाच देह मात्र संयोग छे, वळी जड रूपी दृश्य, चेतनना उत्पत्ति लय, कोना अनुभव वश्य ? ६२ जेना अनुभव वश्य ए, उत्पन्न लयनु ज्ञान; ते नेवी जुदा विना, थाय न केमे भान. ६३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने सयोगो देखिये, ते ते अनुभव दश्य, ऊपजे नहि सयोगयी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ६४ जडयो चेतन ऊपजे, चेतनथी जह पाय, एवो अनुभव कोईने, क्यारे क्दी न थाय ६५ कोई सयोगोथी नही, जेनी उत्पत्ति थाय, नाश न तेनो काईमा, तथी नित्य सदाय ६६ क्रोधादि तरतम्यता, सदिक्नी माय, पूवज म सस्कार ते, जीवनित्यता त्याय ६७ आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पल्टाय, बाळादि घय त्रण्यनु, भान एकने थाय ६८ अपवा नान क्षणिकनु जे जाणी बदनार, वदनारो त क्षणिक नहि, कर अनुभव निर्धार ६९ क्यारे काई वस्तुनो, केवळ होय न नाश, घेतन पामे नाश तो, पेमा भळे तपास ७० (३) शका-शिष्य उवाच कर्ता जीव न मना, कम ज क्र्ता कर्म, अपवा सहज स्वभाव का, यम जीपनो घम ७१ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध; । अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबध. ७२ माटे मोक्ष उपायनो, कोई न हेतु जणाय, कर्मतणु कपिणुं, का नहि, का नहि जाय. ७३ __ (३) समाधान-सद्गुरु उवाच होय न चेतन प्रेरणा, कोण आहे तो कर्म ? जडस्वभाव नहि प्रेरणा, जुओ विचारी धर्म. ७४ जो चेतन करतु नथी, नथी थता तो कर्म, तेथी सहज स्वभाव नहि, तेम ज नहि जीवधर्म. ७५ केवळ होत असग जो, भासत तने न केम ? असग छे परमार्थथी, पण निज भाने तेम. ७६ कर्ता ईश्वर कोई नहि, ईश्वर शुद्ध स्वभाव; अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोषप्रभाव. ७७ चेतन जो निज भानमा, कर्ता आप स्वभाव वर्ते नहि निज भानमा, कर्ता कर्म-प्रभाव. ७८ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 १९३ (४) शका-शिष्य उवाच जीव कम कर्ता वहा, पण भाक्ता नहि सोय, शु समजे जड कम के, फळ परिणामी होय ७९ पळताता ईश्वर गण्ये, भोक्तापशु सघाय, एम वो ईश्वरतणु, ईश्वरपणु ज जाय ८० ईश्वर सिद्ध पया विना जगत नियम नहि होय, पछी शुभाशुभ बमना भोग्यस्थान नहिं कोय ८१ (४) समाधान-सद्गुरु उवाच भावक्रम निज क्त्पना, मारे चेतनरूप, जीवनार्यनी स्फुरणा ग्रहण परे जडधूप ८२ होर सुधा समजे नहीं जीव खाय पर थाय, एम गुभाशुभ यमनु भोकापणु जणाय ८३ एव राको एक नृप ए आदि जे भेट, कारण विना न नाय ते, त ज शुभाशुभ वेद्य ८४ पळगता ईश्वरतणी, एमा नयी जरूर; पर्म स्वभावे परिणमे, थाय भोगथी दूर. ८५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते ते भोग्य विशेषना, स्थानक द्रव्य स्वभाव, गहन वात छे गिष्य आ, कही मक्षेपे साव ८६ (५) शंका-शिष्य उवाच कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहि मोक्ष; वीत्यो काळ अनत पण, वर्तमान के दोष ८७ शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गतिमाय, अशुभ करे नरकादि फळ, कर्म रहित न क्याय ८८ (५) समाधान-सद्गुरु उवाच जेम शुभाशुभ कर्मपद, जाण्या सफळ प्रमाण, तेम निवृत्ति सफळता, माटे मोक्ष सुजाण. ८९ वीत्यो काळ अनत ते, कर्म शुभाशुभ भाव; तेह शुभाशुभ छेदता, उपजे मोक्ष स्वभाव. ९० देहादिक संयोगनो, आत्यतिक वियोग; सिद्ध मोक्ष शाश्वत पदे, निज अनत सुखभोग. ९१ (६) शंका-शिष्य उवाच होय कदापि मोक्षपद, नहि अविरोध उपाय, कर्मो काळ अनतना, शाथी छेद्या जाय ? ९२ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा मत दशन घणा, पहें उपाय अनेक तैमा मत साचो कया, बने न एह विवेक ९३ पद जातिमा मोक्ष छ कया वपमा मोक्ष, एनो निश्चय ना बने घणा भेद ए दोष ९४ तेथी एम जणाय छे, मळे न मोग उपाय, जीवादि जाण्या तणो शो उपचार ज पाय ? ९५ पाचे उत्तरपी पयु, समाधान साग, समजु मोग उपाय तो, उदय उश्य सभाग्य ९६ (६) समायान-सद्गुरु उवाच पाचे उत्तरनी पई यात्मा विषे प्रनीत, पाने मोनोपायनी सहा प्रवात । रीत ९७ पर्ममाष मा छे मागभाव विस, अधार अशार राम, नागे गानप्रसार ९८ ज के कारण वा तह अपनी पष से पारण एक दा मोपपप भयप्रत १९ राग द्वेष यशान ए मुख्य पमनी प्रय, पाय निवृति बेहपी, तब मानो पप १०० Page #204 --------------------------------------------------------------------------  Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत दशन आग्रह तजी, पर्ते सद्गुरुरुष, लहे युद्ध समविद् ते, जेमा भेद न पक्ष ११० वर्ते निजस्वमावनो, अनुभव ला प्रतीत, वृत्ति वहे निजभावमा, परमार्थे समकित १११ वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास, उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास ११२ केवळ निजस्वभावनु, अखड पर्ते नान, कहीए केवळनान ते, देह छता निर्वाण ११३ कोटि वपनु स्वप्न पण जाग्रत थता शमाय, तम विभाव अनादिनो, नान पता दूर थाय ११४ छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तु कम, नाह भाक्ता तु तेहनो, एज धर्मनो मम ११५ एज धर्मपी मोक्ष छे, तु छो मोक्ष स्वरूप, अनत दान पान तु, अन्यायाध स्वरूप ११६ शुद्ध बुद्ध चैत यधन, स्वयज्योति सुखधाम, चीज़ कहीए केटलु ? कर विचार तो पाम ११७ निश्चय सर्वे ज्ञानोना आवी अन समाय, घरी मौनता एम वही, सहजसमाधि माय ११८ Page #206 --------------------------------------------------------------------------  Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट स्थानक समजावीने मिन बतायो माप, म्यान घरी तरवारवन, ए उपकार अमाप १२७ उपसहार दर्शन घटे समाय छे, मा पद स्थान माही विचारता विस्तारथी, सशय रहे न काई १२८ आत्मभ्राति सम रोग नहि, सद्गुर वंद्य सुजाण, गुरुपाना सम पथ्य नहि औषध विकार ध्यान १२१ जो इच्छो परमाथ तो करा सत्य पुग्पाय, भवस्थिति आदि नाम राई, छेदो नहि आरमाथ १३० निश्चयवाणी साभळी, साधन वजवा नोय, निश्चय राखी रक्षमा, साधन करवा सोय १३१ नय निश्चय पवातथी, आमा नथी कहेल, एकान यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल १३२ गच्छमतनी जे कल्पना, ते नहि सद्यवहार, भान नहीं निजम्पनु ते निश्चय नहि सार १२३ आगळ ज्ञाना पई गया, पतमानमा हाय, थाशे पाळ भविष्यमा, मागभेद नहि काय १३४ Page #208 --------------------------------------------------------------------------  Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मसिद्धि अर्थ १ जे आत्मस्वरूप सम या विना भूतकाळे हु अनत दुख पाम्यो, त पद जेणे समजाय एटले भविष्यकाळे उत्पन थवा योग्य एवा अनत दुस पामत ते मूळ जेणे छेशु एवा श्री सदगुरु भगवानन नमस्कार कर छु । २ आ वर्तमान काळमा माक्षमाग घणो लाप यई गपो छ ज मोघमार्ग आत्मार्थीने विचाग्वा माटे (गुरु शिष्यना सवादरूपे) अत्रे प्रगट कहीए छोए ३ काई क्रियाने जवळगी रहा छे अन कोई शुष्क नानने ज पळगी रह्या छे, एम मोक्षमार्ग माने छे, जे जोईने दया आवे छ ४ बाह्य नियामा ज मात्र गचा रहा छ अतर कई भदायु नयी, अने ज्ञानमागने निषेध्या करे छ, त मही नियाजड वाहा छ ५ यघ मोग मात्र कल्पना छे, एवा निश्चयवाक्य मात्र वाणामां बोले छे मन तयारूप दशा पई नयी, मोहना प्रभावमा वर्ते छे, ए मही गुजनानी का छे Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ६. वैराग्यत्यागादि जो साये आत्मज्ञान होय तो __ सफळ छे, अर्थात् मोक्षनी प्राप्तिना हेतु छे, अने ज्या मात्मज्ञान न होय त्या पण जो ते आत्मज्ञानने अर्य करवामा आवता होय, तो ते आत्मज्ञाननी प्राप्तिना हेतु छे. ७. जेना चित्तमा त्याग भने वैराग्यादि साधनो उत्पन्न थया न होय तेने ज्ञान न थाय, भने जे त्याग विरागमा ज अटकी रही, आत्मज्ञाननी आकाक्षा न राखे, ते पोतानु भान भूले, अर्थात् अज्ञानपूर्वक त्यागवैराग्यादि होवाथी ते पूजासत्कारादिधी पराभव पामे, अने आत्मार्थ चूकी जाय ८. ज्या ज्या जे जे योग्य छे, त्या त्या ते ते समजे, अने त्या त्या ते ते आचरे ए आत्मार्थी पुरुपना लक्षणो छे. ९. पोताना पक्षने छोडी दई, ते सद्गुरुना चरणने सेवे ते परमार्थने पामे, अने आत्मस्वरूपनो लक्ष तेने थाय. ___१० आत्मज्ञानने विषे जेमनी स्थिति छ, एटले, परभावनी इच्छाथी जे रहित थया छे; तथा शत्रु, मित्र, हर्ष, शोक, नमस्कार, तिरस्कारादि भाव प्रत्ये जेने समता वर्त Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ छे, मात्र पूर्व उत्पन्न ययेला एवा कर्मोना उदयने लोधे जेमनो विचरवा भादि क्रिया छे, अज्ञानी करता जेनी वाणी प्रत्यक्ष जुदो पडे छ, भने पटदशनना तात्पयने जाणे छे ते सद्गुरुना उत्तम लथणो छ ११ ज्या सुधी जीवने पूर्वकाळे थई गयेला एवा जिननी बात पर ज लग रहा कर, अने तनो उपकार कह्या करे, अने जेयी प्रत्यक्ष भात्मभ्रातिनु समाधान थाय एवा सद्गुरुनो समागम प्राप्त थयो होय तेमा परोक्ष जिनोना वचन करता माटो उपकार समायो छे तेम जे न जाणे तेन आत्मविचार उत्सान न पाय १२ सद्गुरुना उपदेश विना जिननु स्वरूप समजाय नही, अने स्वरूप समजाया विना उपकार शो थाय ? जा सद्गुरुउपदरी जिननु स्वरुप समन तो समजनारनो आत्मा परिणाम जिननी दशाने पामे १३ जे जिनागमादि आमाना होवापणानो तथा परलोमादिना होवापणाना उपग करवावाळा शास्त्रो छे, स पग या प्रत्यय सद्गुणो जोग न होय त्या सुपात्र जीवन आधाररूप छ पण सद्गुरु गमान से प्रातिना एक कहा न दायाय Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ १४. अथवा जो सद्गुरुए ते शास्त्रो विचारवानी आज्ञा दोधी होय, तो ते शास्त्रो मतातर एटले कुळधर्मने सार्थक करवानो हेतु आदि भ्राति छोडीने मात्र आत्मार्थे नित्य विचारवा १५. जीव अनादि काळधी पोताना डहापणे अने पोतानी इच्छाए चाल्यो छे, एनं नाम 'स्वच्छंद' छे. जो ते स्वच्छदने रोके तो जरूर ते मोक्षने पामे, अने ए रीते भूतकाळे मनत जीव मोक्ष पाम्या छे एम राग, द्वेष अने मज्ञान एमानो एक्के दोष जेने विपे नथी एवा दोपरहित वीतरागे का छे. १६. प्रत्यक्ष मद्गुरुना योगथी ते स्वच्छद रोकाय छे, वाकी पोतानी इच्छाए वीजा घणा उपाय कर्या छता घणु करीने ते बमणो थाय छ १७. स्वच्छदने तथा पोताना मतना आग्रहने तजीने जे सद्गुरुना लक्षे चाले तेने प्रत्यक्ष कारण गणीने वीतरागे 'समकित' का छे. १८ मान अने पूजासत्कारादिनो लोभ ए आदि महाशत्र छे, ते पोताना डहापणे चालतां नाश पामे नही, भने सद्गुरुना शरणमा जता सहज प्रयत्नमा जाय. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ १९ जे सद्गुरुना उपदेशथो कोई केवळनानने पाम्पा से सद्गुरु हजु छग्रस्थ रहा होय, तो पण जे देवळज्ञानने पाम्या छ एवा ते केवळोभगवान छमस्थ एवा पोताना सद्गुरुनी वैयावच्च कर २० एयो विनयना माग श्री जिने उपदेश्यो छे ए मागनो मूळ हतु एटले तेथी आत्माने शो उपकार थाय छे ते कोईद सुभाग्य एटले सुलभबोधी अथवा आराघर जीव होय ते समज २ आ विनयभाग बह्यो तैनी लाभ एटले ते शिष्यादिनी पासे कराववानी इच्छा परीने जो कोई पण असद्गुरु पाताने विपे सद्गुरुपणु स्थापे तो ते महामोहनीय कम उपाजन परीने भवसमुद्रमा बूढे २२ जे मोक्षार्यों जाव होय ते आ विनयमादिनी विचार छाजे, अने जे मताी होय ते तेनो अवळो निर्धार के, एटले का पोते तेवो विनय गिध्यादि पासे करावे, अपना असदगुरुने विपे पोते सद्गुरुना धाति रावी आ विनयमार्गनो उपयोग कर Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३, जे मतार्थी जीव होय तेने मान्मनाननी लन थाय नहीं, एवा मतार्थी जीवना अही निष्पक्षपाते लक्षणों कह्या छे. २४. जेने मात्र बाह्यपी त्याग देसाय छे पण आत्मजान नथी, अने उपलक्षणधी अतरंग त्याग नयी, तेवा गुरुने माचा गुरु माने, अथवा तो पोताना कुळधर्ममा गमे तेवा गुरु होय तोपण तेमा ज ममत्व रासे २५ जे जिनना देहादिन वर्णन छे तेने जिननु वर्णन समजे छ, अने मात्र पोताना कुळधर्मना देव छे माटे मारापणाना कल्पित रागे समवमरणादि माहात्म्य कह्या करे छ, अने तेमा पोतानी वुद्धिने रोकी रहे छ; एटले परमाणे हेतुस्वरूप एवं जिननु जे अतरगस्वरूप जाणवा योग्य छ ते जाणता नथी, तथा ते जाणवानुं प्रयत्न करता नषी, अने मात्र समवसरणादिमा ज जिननु स्वरूप कहीने मतार्थमा रहे छे. २६. प्रत्यक्ष सद्गुरुनो क्यारेक योग मळे तो दुराग्रहादिछेदक तेनी वाणी साभळीने तेनाथी अवळी रोते चाले, अर्थात् ते हितकारी वाणीने ग्रहण करे नही, अनं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ पोते खरेबरो टढ मुमुक्षु छे ण्वु मान मुख्यपणे मेळववाने अथें असद्गुरु समीपे जईने पोते तना प्रत्ये पोतानु विशेष दृढपणु जणावे २७ देव-नारकादि गतिना 'भागा' आदिना स्वरूप कोईक विशेष परमार्थहेतुथी कह्या छे ते हेतुने जाण्यो नयो, अने ते भगजाळने श्रुतज्ञान जे ममजे छ, तथा पोताना मतनो वपनो आग्रह रासवामा ज मुक्तिनो हेतु माने छे २८ वत्तिनु स्वरूप शु? ते पण ते जाणतो नथी, अने 'हु व्रतधारी छु' एव अभिमान धारण कयं छे क्वचित परमार्थना उप-शना योग नो तोपण लोकोमा पोतानु मान अने पूजास कारादि जता रहेशे, अथवा ते मानादि पछी प्राप्त नही पाय एम जाणीने ते परमाथने ग्रहण करे नही २९ अथवा 'समयसार' के 'योगवासिष्ठ जेवा प्रयो पाची ते मात्र निश्चयनयने ग्रहण करे केवी रीते ग्रहण कर ? मात्र महेवारूपे, अतरगमा तयारूप गुणनी कशी सराना नही, अने सद्गुरू, सत्गास्म तथा पैराग्य, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ विवेकादि साचा व्यवहारने लोपे, तेम ज पोताने ज्ञानी मानी लईने साधनरहित वत्तें ३० ते ज्ञानदशा पामे नही, तेम वैराग्यादि साधनदशा पण तेने नथी, जेथी तेवा जीवनो मग बीजा जे जीवने थाय ते पण भवसागरमा डुवे. ३१ ए जीव पण मतार्थमा ज वर्ते छे, केमके उपर कह्या जीव, तेने जेम कुळधर्मादिथी मतार्थता छे, तेम आने ज्ञानी गणाववाना माननी इच्छाथी पोताना शुष्कमतनो आग्रह छे, माटे ते पण परमार्थने पामे नही, अने अन्अधिकारी एटले जेने विषे ज्ञान परिणाम पामवा योग्य नही एवा जीवोमा ते पण गणाय. ३२ जेने क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय पातळा पड्या नथी, तेम जेने अतरवैराग्य उत्पन्न थयो नथी, आत्मामा गुण ग्रहण करवारूप सरळपणु जेने रघु नथी, तेम सत्यासत्यतुलना करवाने जेने अपक्षपातदृष्टि नथी, ते मतार्थी जीव दुर्भाग्य एटले जन्म, जरा, मरणने छेदवावाळा मोक्षमार्गने पामवा योग्य एवं तेनुं भाग्य न समजवं. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ 14 ३. एम मतार्थी जीवना लक्षण क्या ते वहेवानो हेतु ए छ के कोई पण जीवनो ते जाणीने मताथ जाय हव आत्मार्थी जीवना पण कहीए छोएते लक्षण केवा छ ? तो में आत्माने अयावाघ सुग्वनी सामग्रोना ____३४ ज्या आत्मनान होय त्या मुनिपण होय अर्थात् यात्ममान न होय त्या मुनिपणु न ज समवे 'न समति पासह त मोगति पासह -ज्या समक्ति एटले आत्मभान छे त्या मुनिपणु जाणो एम 'आधाराग मून' मा का छे एटर जेमा आत्मज्ञान होय ते साचा गुरु छ एम जाणे छे, अने मात्मनानरहित होय तो पण पोताना पुलना गुरुने सद्गुरु मानवा । मात्र कल्पना छ, साथी कई भवटेर न पाय एम आत्मार्थी जुए छ ___३५ प्रत्यार सद्गुग्नी मालितो मोटो उपकार जाण, अर शास्त्रादियी जे समाधान पई गमवा योग्य नमी, मने जे दोयो सद्गुरुनी आज्ञा पारण पर्या विना जता नपी ते सद्गुरुयागयी समाधान पाय, ओ ते दोपो टळे, माटे प्रस्पा सद्गुतो माटो उपकार जाणे, मने से छद् Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० गुरु प्रत्ये मन, वचन, कायानी एकताथी आज्ञाफितपणे वर्ते. ३६. अणे काळ ने विप परमार्थनो पंथ एटले मोक्षनो मार्ग एक होवो जोईए अने जेथी ते परमार्थ सिद्ध थाय ते व्यवहार जीवे मान्य राखवो जोई ए, बीजो नही. ३७. एम अंतरमा विचारीने जे सद्गुरुना योगनो शोध करे, मात्र एक आत्मार्थनी इच्छा राखे पण मानपूजादिक, सिद्धिरिद्धिनी कशी इच्छा राखे नहीए रोग जेना मनमा नथी. ३८. ज्या कपाय पातळा पडया छे, मात्र एक मोक्षपद सिवाय वीजा कोई पदनी अभिलाषा नथी, ससार पर जेने वैराग्य वर्ते छ, अने प्राणीमात्र पर जेने दया छ, एवा जीवने विपे आत्मार्थनो निवास थाय ३९. ज्या सुधी एवी जोगदशा जीव पामे नही, त्या सुधी तेने मोक्षमार्गनी प्राप्ति न थाय, अने आत्मभ्रातिरूप अनत दुःखनो हेतु एवो अतररोग न मटे. ४०. एवी दशा ज्या आवे त्या सद्गुरुनी बोध गोभे अर्थात् परिणाम पामे, अने ते बोधना परिणामथी सुखदायक एवी सुविचारदशा प्रगटे. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ज्या सुविचारदगा प्रगटे त्या आत्मनान उत्पन्न पाय अने ते पानथी माहनो क्षय परी निर्वाणपदने पामे ४२ जैथी ते सुविचारदशा उत्पन थाय अने मोक्ष माग समजवामा भाव त छ पदरूपे गुरुशिष्यना सवादयी करीने अही पहु छु ४३ 'आत्मा छे', 'ते आत्मा नित्य छे, ते आत्मा पोताना कमनो वा छ, 'ते मनो भोक्ता छ तथी मोक्ष थाय छ', अने ते माक्षनो उपाय एवो सतघम छे ४४ एछ स्थानक अथवा छ पद अही संक्षेपमा कहा छ भने विचार करवायी पटदशन पण ते ज छ परमाय समजवाने मात्र नानापुरुप ए छ पदो कह्या छे ४५ दृष्टिमा आवतो नी, तेम जेनु कई रूप जणातु नथी, तम स्पर्शादि बीजा अनुभवधी पण जणावापण नयी, माटे जीवनु स्वरूप नयी, अर्थात जीव नयी __४६ अथवा देह छे ते ज आत्मा छ, अथवा इद्रियो __ छ त आत्मा छ, अथवा श्वासोच्छ्वास छ ते आत्मा छ, ___ अर्थात ए सौ एक्ना एक देहरूपे छे माटे मात्माने दो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मानवो ते मिथ्या छ, केमके तेनु कशु जुदु घाण एटले चिह्न नथी. ४७. अने जो मात्मा होय तो ते जणाय शा माटे नही ? जो घट, पट, मादि पदार्थों छे तो जेम जणाय छे, तेम आत्मा होय तो शा माटे न जणाय ? ४८ माटे मात्मा छे नहीं, अने मात्मा नथी एटले तेना मोक्षना अर्ये उपाय करवा ते फोकट छे, ए मारा अंतरनी शकानो कई पण सदुपाय समजावो एटले समावान होय तो कहो ४९ देहाच्यासथी एटले अनादिकाळथी अज्ञानने लीधे देहनो परिचय छे, तेथी आत्मा देह जेवो अर्थात् तने देह भास्यो छे; पण आत्मा अने देह 'बन्ने जुदा छे, केमके वेय जुदा जुदा लक्षणथी प्रगट भानमा आवे छे ५० अनादिकाळथी अज्ञानने लीधे देहना परिचयथी देह ज आत्मा भास्यो छे, अथवा देह जेवो आत्मा भास्यो छे; पण जेम तरवार ने म्यान, म्यानरूप लागता छता बन्ने जुदा जुदा छे, तेम आत्मा अने देह बन्ने जुदा जुदा छे. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ते आत्मा दष्टि एटले आम्वथी क्याथी देसाय? वेमके उलटा सेनो ते जोनार छ स्थूलसूक्ष्मादि रूपने जे जाणे छे, अने मवने बार करता करता कोई पण प्रकारे जेनो बाघ रो रातो नथी एवो बाकी जे अनुभव रहे छे ते जीवन स्वरुप छ ___५२ वर्णेद्रिययो सामन्यु ते त वर्गद्रिय जाणे छे, पण चक्षु इद्रिय तेने जाणती नथी, अने चक्षु इद्रिये दौठलु ते फद्रिय जाणती नथी अर्थात सौ सौ इद्रियने पोतपोताना विषयत गान छ, पण वीजी इद्रियोना विष यन नाल नयो, भने आत्माने तो पाचे इद्वियना विपयनु ज्ञान छ अर्थात जे त पाचे इद्विमाना ग्रहण करेला विषयने जाण छ त 'आत्मा' छ, भने मात्मा विना एवेक इन्द्रिय एकैर विषयन ग्रहण कर एम का ते पण उपचारयो का छे ५३ देह तने जाणतो नथी इदियो तेने जाणती नथी, अने श्वासाच्छवासम्प प्राण पण नन जाणतो नथी, ते मी एक मात्मानी सत्ता पामीन प्रवत छ, नही तो नापण पड्या रहे छ, एम जाण Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ५४. जाग्रत, स्वप्न अने निद्रा ए अवस्थामा वर्ततो छतां ते ते अवस्थामोथी जुदो जे रह्या कर छे, अने नेते अवस्था व्यतीत थये पग जेन होवापशु छे, बने ते ते अवस्थाने जे जाणे हे, एवो प्रगटम्बन्ध चैतन्यमय छे, अर्यात जाण्या न करे छे एवो जेनो स्वभाव प्रगट छ, बने ए तेनी निशानी मदाय वा छे कोई दिवस ते निनानीनो भंग पत्तो नयी. ५५ घट, पट आदिने तुं पोते जाणे छे, 'तै छ' एम तुं माने छ, अने जे ते घट, पट बादिनो जाणनार छे तेने मानतो नथी; ए जान ते केवु क्हे ? ५६ दुर्वळ देहने विपे परम वृद्धि जोवामा आवे छे, अने स्थूल देहने विपे थोडी वृद्धि पण जोवामां आवे छे, जो देह ज आत्मा होय तो एवो विकल्प एटले विरोध थवानो वखत न आवे. ५७ कोई काळे जेमां जाणवानो स्वभाव नथी ते जड, अने सदार जे जाणवाना स्वभाववान छे ते चेतन, एवो वेयनो केवळ जुदो स्वभाव छ, अने ते कोई पण प्रकारे ५० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ एकपणु पामया योग्य नथी प्रणे बाळ जड जहभावे, अने चेतन चेतनभाव रहे एवो वयनो जुदो जुदो द्वतभाव प्रसिद्ध ज अनुभवाय छ ५८ आस्मानी ना आत्मा आप पोने परे जे शकानो परनार छ तेज आत्मा छे ते जणाती नयी, ए __ माप न थई शने एवं आश्चय छे । ५९ आत्माना होवापणा विर्य मापे जे जे प्रकार वह्या तेनो अतरमा विचार करवायो सम्भव धाय छ ६. पण बीजी एम का धाय छे, के आत्मा छे तो पण ते अविनाश एटले निय नथी, प्रणे बाळ होय एवो पाथ नयी, माय दहना मयोगयी उत्पन पाय, अने वियोगे विनाश पामे ६१ अथवा वस्तु क्षणे क्षणे बदलाती जोवामा आवे छ, तैथी सब वस्तु क्षणिय छ, भने अनुभवथी जोता पण आस्मा नित्य जणातो नदी ६२ देह मात्र परमाणुनो सयोग छ, अथवा सयोगे रो आत्माना सबधमा छ वळी त देह जड छ, रुपी छ, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने दृश्य एटले बीजा कोई द्रप्टानो ते जाणवानो विषय छ, एटले ते पोते पोताने जाणतो नथी, तो चेतनना उत्पत्ति बने नाग ते क्याथी जाणे? ते देहना परमाणुए परमाणुनो विचार करता पण ते जड ज छे, एम समजाय छे. तेथी तेमाथी चेतननी उत्पति थवा योग्य नघी, अने उत्पत्ति थवा योग्य नयी तेथी चेतन तेमां नाग पण पामवा योग्य नथी. वळी ते देह रूपी एटले स्थूलादि परिणामवाळो छ; अने चेतन द्रष्टा छे, त्यारे तेना सयोगधी चेतननी उत्पत्ति शी रीते थाय ? भने तेमा लय पण केम थाय? देहमाथी चेतन उत्पन्न थाय छ, भने तेमा ज नाश पामे छे, ए वात कोना अनुभवने वश रही ? अर्थात एम केणे जाण्यु ? केमके जाणनार एवा चेतननी उत्पत्ति देहथी प्रथम छे नही, अने नाश तो तेथी पहेला छे, त्यारे ए अनुभव थयो कोने ? ६३ जेना अनुभवमा ए उत्पत्ति अने नाशनु ज्ञान वर्ते ते भान तेथी जुदा विना कोई प्रकारे पण सम्भवतु नथी, अर्थात् चेतनना उत्पत्ति, लय धाय छे एवो कोईने पण अनुभव थवा योग्य छे नही Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ६४ जे जे मयोगोमो डीए से रा मानवम्बम्प एवा मामाता दुपय ए सने आरमा जाणे छ, भने त मयोगन स्त्रम्प विचारता एवो कोई पण सयोग ममजातो मथी ये जेयी आत्मा उप । पाय छ, मारे धारमा मयोगपी नहा उत्पन भयेग या छ, अर्थात् असयोगी छे स्वाभाविप पाय ८, मार त प्रत्यार "नित्य' समजाय छ ६५ जडयो चतन उपजे ओ भतायी जड उत्पन्न पाय एवा पोईन क्यार पदी पण अनुभव पाय नही ६६ जेनी उत्पत्ति कोई पण गयोगोथी पाप ही, तनो नाग पग गोईने विपे पाय हो माट आत्मा विशाळ 'नित्य छ __ ६७ ग्रोधादि प्रवृतिओन विशेष सर्प यगर प्राणोमा ज मथी ज जोवामा आय छे वर्तमान देहे तो त अभ्याम कर्यो नथी, जमनी साये ज त छ, एटले ए पूर्वज मना ज मस्वार छ, जे पूषजम जीवनी नित्यता सिद्ध परेछ ६८ आत्मा वस्तुपण नित्य छै रामये गमये ज्ञानादि परिणामना पल्टयाथी तना पर्यापनु पटवापणु छ (पई Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पलटातो नथी, मान मोजा पलटाय छे, तेनी पेठे.) जेम बाळ. यान अने वृद्धावण अवस्था छ, ते आत्माने विभावची पर्याय , अने बाळ अवस्था वर्नता आत्मा बालक जणातो, ते बाळ अवम्या छोटी प्यारे युवावस्था ग्रहण करी न्यारे युवान जणायो, अने युवावस्या तजी वृद्धावस्था ग्रहण करी त्यारै वृद्ध जणायो. ए त्रगे अवस्यानो भेद थयो ते पर्यायभेद छे, पण ते प्रणे अवस्थामा आत्मद्रव्यनो भेद थयो नहीं, अर्थात् अवस्थाओं वदलाई पण आत्मा बदलायो नयी मात्मा ए त्रणे अवस्थाने जाणे छ, भने ते अणे अवस्थानी तेने ज स्मृति छे गे अवस्थामा आत्मा एक होय तो एम बने, पण जो आत्मा क्षणे क्षणे वदलातो होय तो तेवो अनुभव वने ज नही ६९ वळी अमुक पदार्थ क्षणिक छ एम जे जाणे छे, अने क्षणिकपणं कहे छे ते कहेनार अर्थात् जाणनार क्षणिक होय नही; केमके प्रथम क्षणे अनुभव थयो तेने वीजे क्षणे ते अनुभव कही शकाय, ते वीजे क्षणे पोते न होय तो क्याथी कहे ? माटे ए अनुभवथी पण आत्माना अक्षणिकपणानो निश्चय कर Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ ___७० बळी पोई पर यरतुना का पण पाळे मेवळ सो नाग पाप ज TTI, मात्र अवस्यातर धाग, माटे चेतनना पण मेवर ना। पाय नहीं पा अपस्यौतररूप ना पता होय सा से पेमा भळे, अपया गया प्रसार अवस्थावर पामे त तपाग अमात पयदि पार्ष फूटा जाप छ, एट ला एम पहछे पे पहा ना पाग्या छ, कई माटीपणु नाश पाम्पु पी त छिनमितपई जई गूधममा गृहम भूया पाय, तापग परमाणुगमूहम्लग रहे, पण पेय नागन थाय अने तानु न परमाणु पण घरे नहीं, येमये अनुभवया जाता अवस्थांतर पई पाये, पण पाथनो ममळगा ना पाय एग मासा ज शनवा योग्य नयी एटले जो तु तानो पहे, तो पण केवळ नाग ता कही जवायाय नही, अवस्यावर म्ल्प ना कहेयाय जेम घट फूटी जई प्रमेकरी परमाणु ममूहरूपे स्थितिमा रहे, तम घेतनना अवम्यातरम्प ना। तारे महेवा होय तो त नी स्थितिमा रहे अथवा घटना परमाणुओ जेम परमाणुसमूहमा भळ्या तम चता पई घस्तुमा भगवा योग्य छ से सुपास अर्थात् ए प्रकारे तु ____ अनुभव करा जाईवा कोईमा नही भळी शक्या योग्य Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अथवा परस्वरूपे अवस्थातर नही पामवायोग्य एवं चेतन एटले आत्मा तने भास्यमान थगे. ७१. जीव कर्मनो कर्ता नथी, कर्मना कर्ता कर्म छे अथवा अनायासे ते थया करे छे, एम नही, ने जीव ज तेनो कर्त्ता छ एम कहो तो पछी ते जीवनो धर्म ज छे, अर्थात् धर्म होवाथी क्यारेय निवृत्त न थाय. ७२ अथवा एम नही, तो आत्मा सदा असग छे, अने सत्त्वादि गुणवाळी प्रकृति कर्मनो बघ करे छे, तेम नही, तो जीवने कर्म करवानी प्रेरणा ईश्वर करे छे, तेथी ईश्वरेच्छारूप होनाथी जीव ते कर्मथी 'अवध' छ। ___७३ माटे जीव कोई रीते कर्मनो कर्ता थई शकतो नथी, अने मोक्षनो उपाय करवानो कोई हेतु जणातो नथी, का जीवने कर्मन कपिणु नथी अने जो कपिणु होय तो कोई रीते ते तेनो स्वभाव मटवा योग्य नथी. ७४ चेतन एटले आत्मानी प्रेरणारूप प्रवृत्ति न होय, तो कर्मने कोण ग्रहण करे ? जडनो स्वभाव प्रेरणा नथी, जड अने चेतन बेयना धर्म विचारी जुओ ७५. आत्मा जो कर्म करतो नथी, तो ते थता नथी; Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी सहज स्वभावे एटले अनायासे ते थाय एम कहे घटतु नथी, तेमज ते जीवनो घम पण नही कैमके स्वभावनो नाश थाय नहीं, अने आत्मा न करे तो श्म थाय नहीं एटले ए भाव टळी शव छ, माटे ते आरमानो स्वाभाविक धम नहा ७६ केवळ जो अमग होत अर्थात च्यारे पण तेने वमनु करवाएणु न होत तो तने पोताने ते आत्मा प्रथमथी केम न भासत ? परमार्थधी त यात्मा असग छ, पण ते तो ज्यारे स्वर पनु भान थाय त्यारे थाय ७७ जगतनो अथवा जावाना कमनो ईश्वर कर्ता कोई छे नहीं, शुद्ध आत्मस्वभाव जेनी थयो छे ते ईश्वर छे, अन तने जो प्रेरक ण्टर क्म गणीए तो तेने दोषनो प्रभाव थया गणावा जोईए, माटे ईश्वरनी प्रेरणा जीवना कर्म करवामा पण कवाय नही ७८ आत्मा जो पोताना शुद चत यादि स्वभावमा पर्ने हो त पाताना त ज स्वभावनो वर्ता छ, अर्थात तेज स्वम्पमा परिणमित छ, अन ते शुद्ध चत यादि स्वभावना भानमा वततो न होय त्यार कमभावनो पर्ता छ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ ७९ जीवने कर्मनो कर्ता कहीए तोपण ते कर्मनो भोक्ता जीव नहीं ठरे, नेमके जड वा पशु रूम्जे के ते फळ देवामा परिणामी थाय ? अर्थात फळदाता थाय ? ८० फळनाताईबर गणीए तो भोक्तापर्ण साधी गकीग, अर्थात् जीवने ईम्बर कर्म भोगवावे तेथी जीव कर्मनो भोक्ता मिट्ट थाय, पण परने फळ देवा आदि प्रवृत्तिवाको ईश्वर गणीए तो तेनु ईश्वरपणु ज रहेतु नथी, एम पण पालो विरोव मावे छे ८१ तेवो फळदाता ईश्वर सिद्ध यतो नथी एटले जगतनो नियम पण कोई रहे नही, अने शुभाशुभ कर्म भोगववाना कोई स्थानक पण ठरे नही, एटले जीवने कर्मनु भोक्तृत्व क्या रह्य ८२ भावकम जीवने पोतानी भ्राति छ, माटे चेतनरूप छे, अने ते भ्रातिने अनुयायी थई जीववीर्य स्फुरायमान थाय छे, तेथी जड एवा द्रव्यकर्मनी वर्गणा ते ग्रहण करे छे ८३ झेर अने अमृत पोते जाणता नथी के अमारे आ जीवने फळ आपवु छे, तोपण जे जीव खाय छे, तेने ते Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ फळ पाय छे, एम गुभाशुभ फर्म, आ जीवने मा फळ आप छ एम जाणता नथी, तोपण ग्रहण करतार जीव झेर अमृतना परिणामनी राते फळ पामे छ ८४ एक राक छे अने एक राजा छ, ए आदि शब्दयी नीचपणु रुचपणु, कुम्पपणु, सुरूपपणु एम घणु विचित्रपणु छ, भने एवो जे भेद रहे छ ते, सवन समानता नयो, त ज शुभाशुभ कर्मनु भाक्तापणु छ एम सिद्ध परे छे पेमके पारण विना पायनी उत्पति पती नथी ८५ पळदाता ईश्वरनी एमा पई जार नयी झेर थने अमृतनी रीते गुभाशुभ पम स्वभाव परिणमै छ, अने नि सत्व थपेयी और अने अमृत फळ दता जम निवृत्त पाय छे, तेम प्रभाशुभ यमन भागववाथा त नि सत्व पये निवृत्त पाय छे ८६ उत्कृष्ट शुभ अध्ययसाय से उत्कृष्ट शुभगति छ, अने उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय त उत्कृष्ट माभगति छ, शुभाशुभ अध्यवसाय मिश्रगति छे अने ते जीवपरिणाम ते ज मुख्यपणे सो गति छे तपापि उत्कृष्ट गुम द्रव्यन कर्यगमन, उत्कृष्ट अशुभ द्रव्यनु भयोगमन, शुभाशुमनी Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ मध्यस्थिति, एम द्रव्यनो विशेष स्वभाव छे. अने ते आदि हेतुथी ते ते भोग्यस्थानक होवा योग्य छ हे शिष्य ! जड चेतनना स्वभाव सयोगादि सूक्ष्मस्वरूपनो अने घणो विचार समाय छे, माटे आ वात गहन छे, तोपण तेने साव संक्षेपमा कही छ ८७ कर्ता भोक्ता जीव हो, पण तेथी तेनो मोक्ष थवा योग्य नथी, केमके अनत काळ थयो तोपण कर्म करवारूपी दोप हजु तेने विपे वर्तमान ज छे ८८. शुभ कर्म करे तो तेथी देवादि गतिमा तेनुं शुभ फळ भोगवे, अने अशुभ कर्म करे तो नरकादि गतिने विष तेनु अशुभ फळ भोगवे, पण जीव कमरहित कोई स्थळे होय नही ८९. जेम शुभाशुभ कर्मपद ते जीवना करवाथी ते थता जाण्या, अने तेथी तेनु भोक्तापणु जाण्यु, तेम नही करवाथी अथवा ते कर्मनिवृत्ति करवाथी ते निवृत्ति पण थवा योग्य छे, माटे ते निवृत्तिनु पण सफळपणु छे, अर्थात् जेम ते शुभाशुभ कर्म अफळ जता नथी, तेम तेनी निवृत्ति पण अफळ जवा योग्य नथी, माटे ते निवृत्तिरूप मोक्ष छ एम हे विचक्षण! तु विचार. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 २२५ ९० कमसहित अन तवाळ वी यो, ते से शुभाशुभ कम प्रत्येना जीवना आसक्तिने लीधे वीत्यो, पण तेना पर उदासीन थवायी ते कमफळ छेनाय, अने तेथी मोक्षस्वभाव प्रगट पाय ९१ दहादि सयोनो बारमै वियोग तो यया करे छे पण ते पाछो ग्रहण न धाय ते रोते वियोग परवामा माघे तो सिद्धम्वरूप माशस्वभाव प्रगरे, भने शाश्वत पद बनत आत्मानद भौगवाय ९२ मोक्षपद वदापि होय तोपण ते प्राप्त यवानो कोई अविराध एटले यथानध्य प्रतीत पाय एवो उपाय जणातो नयी, बेमने अनत माना पर्मों छे, ते आवा अपायुष्यवाळा मनुष्यदहषी म छेचा जाय ? ९३ थपवा बदापि मनुष्यहना अल्पायुष्य वगैरनी का छाडी दईए, तारण मत अने दर्शन | छे, बने ते मोगना अनक उपापा कहे छ, अर्थात वाई यई मह छ भने काई ईरह छ, तमा क्यो मत माचो ए विवक बनी परेवो नपी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ९४. ब्राह्मणादि कई जातिमा मोक्ष छ, अथवा कया वेपमा मोभ छे, एनो निश्चय पण न बनी शके एवो छे, केमके तेवा घणा भेदो छ, बने ए दो पण मोक्षनो उपाय प्राप्त थवा योग्य देखातो नयी ९५ तेथी एम जणाय छे के मोक्षनो उपाय प्राप्त घई शके एव नथी, माटे जीवादितु स्वरूप जाणवायी पण शु उपकार थाय ? अर्थात् जे पदने अर्थे जाणवा जोईए ते पदनो उपाय प्राप्त थवो अशक्य देखाय छे. ९६. आपे पाचे उत्तर कह्या तेथी सर्वांग एटले बधी रीते मारी शकानुं समाधान थयु छ, पण जो मोक्षनो उपाय समजु तो सद्भाग्यनो उदय-उदय थाय ! अत्रे 'उदय' 'उदय' वे वार शब्द छे, ते पाच उत्तरना समाधानथी घयेली मोक्षपदनी जिज्ञासानु तीव्रपणुं दर्शावे छ ९७. पाचे उत्तरनी तारा आत्माने विषे प्रतीति थई छे, तो मोक्षना उपायनी पण ए ज रीते तने सहजमा प्रतीति थशे अत्रे 'थशे' अने 'सहज' ए वे शब्द सद्गुरुए कहा छे ते जेने पाचे पदनी शका निवृत्त थई छे तेने मोक्षोपाय - समजावो कई कठण ज नथी एम दर्शाववा, तथा शिष्यतु Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ विशेष जिज्ञासुपा जागी अवय सने मोशोपाय परिणम म TTमयापी (त यमन) मयां छे, म सदगुस्ता वचनो याधप ९८ ममाय ते जीव बगान " भने मोगमाव छते जीव पालाना स्वपने विप रिपति पयो से छे अनगनना स्पमाय अपरार जेयो तपी जेम प्राय पना पाकाळना अपरार सा नारी पामे छे घेम লানা সা সা বা ৫ .. पारणा वर्मबंधना, मते पना माग ७, मने मेरो पारणा छ ज ८ मोगा मानो भवना ठे १.. राग, बन गान गर्नु परखए मनी मुनर Sd प्रसारणा पम पम म पार ना पी निति मापन मग १.१ 'गालो महिनाी , मन पर' र 'द भामा पार समारप मच गई मिर ने दाद माना मामा एषो', Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ 'केवळे' एटले 'शुद्ध आत्मा' पामीए तेम प्रवर्ताय ते मोक्षमार्ग छे १०२ कर्म अनत प्रकारना छे, पण तेना मुख्य ज्ञानावरणादि आठ प्रकार थाय छे तेमा पण मुख्य मोहनीयकर्म छे ते मोहनीयकर्म हणाय तेनो पाठ कहुं छु १०३. ते मोहनीयकर्म व भेदे छे - एक 'दर्शनमोहनीय' एटले 'परमार्थने विषे अपरमार्थबुद्धि अने अपरमार्थने विषे परमार्थबुद्धिरूप': वीजी 'चारित्रमोहनीय', 'तथारूप परमार्थने परमार्थ जाणीने आत्मस्वभावमा जे स्थिरता थाय, ते स्थिरताने रोधक एवा पूर्वसस्काररूप कपाय अने नोकपाय' ते चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीयने आत्मवोध, अने चारित्रमोहनीयने वीतरागपणु नाश करे छे आम तेना अचूक उपाय छे केमके मिथ्यावोध ते दर्शनमोहनीय छे, तेनो प्रतिपक्ष सत्यात्मबोध छे अने चारित्रमोहनीय रागादिक परिणामरूप छ, तेनो प्रतिपक्ष वीतरागभाव छे एटले अघकार जेम प्रकाश थवाथी नाश पामे छे-ते तेनो अचूक उपाय छ,--तेम बोध भने वीतरागता दर्शनमोहनीय अने Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ चारित्रमोहनीयाप अधकार टाळवामा प्रकाशस्वरूप छ, मारे ते नेना अचूक उपाय छ १०४ क्रोधादि भावथी बमवर्ष थाम छ, अने क्षमा __ दिन भावपो त हणाय छ, अर्थात क्षमा रापवाथी क्रोध रोको शकाय छ, सरळताथी माया रोका शत्राय छे, सतोपथी लोभ रोकी शवाय छ, म रति, अरति आदिना प्रतिपक्षयी त त दोषो राशी शकाय छ, त ज बमाधनो निरोध छ भने ते जतेनी निवति छ वळी सवने आ यातना प्रत्यक्ष अनुभव छे, जथवा सवने प्रत्यक्ष अनुभव पई सारे एछ क्रोधादि रोक्या रोकाय छे अने जे कर्मबंधन रोके छ, त अर्मदगानो माग छ एमाग परलोष नहीं, पण भने अनुभवमा आव छ, तो एमा सदेह शो परयो ? १०५ आ मारो मत छ, माटै भार कम्गी ज रहेछ' अपवा आ मारु दशन छ, माटे गमे तेम मारे ते सिद्ध परवु एवो आग्रह अथवा एवा विषल्पन छाडाने आ जे मार्ग पहा छ, त साधणे, ता अल्प जम जाणवा __ अहो 'जम' शब्द बहुवचनमा यापर्यो छ, ते एटलज Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० दर्गाववाने के क्वचित् ते साधन अधूरा रह्यां तेथी, अथवा जघन्य के मध्यम परिणामनी धाराथी आराधन थया होय, तेथी सर्व कर्म क्षय थई न शवावाथी वीजो जन्म थवानो संभव छे; पण ते बहु नही; वह ज अल्प. 'समकित आव्या पछी जो वमे नही, तो घणामा घणा पंदर भव थाय, एम जिने का छे, अने 'जे उत्कृप्टपणे आराधे तेनो ते भवे पण मोक्ष थाय'; अत्रे ते वातनो विरोध नथी १०६ हे शिष्य । तें छ पदना छ प्रश्नो विचार करीने पूछ्या छे, अने ते पदनी सर्वांगतामा मोक्ष मार्ग छे, एम निश्चय कर अर्थात् एमानु कोई पण पद एकात के अविचारथी उत्यापता मोक्षमार्ग सिद्ध थतो नथी १०७ जे मोक्षनो मार्ग कह्यो ते होय तो गमे ते जाति के वेषथी मोक्ष थाय, एमा कई भेद नथी. जे साधे ते मुक्तिपद पामे, अने ते मोक्षमा पण वीजा कशा प्रकारनो ऊंचनीचत्वादि भेद नथी, अथवा मा वचन कह्या तेमा बीजो कई भेद एटले फेर नथी __ १०८. क्रोधादि कपाय जेना पातळा पड्या छ, मात्र आत्माने विपे मोक्ष थवा सिवाय बीजी कोई इच्छा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ नथी, अने ससारना भोग प्रत्ये उदासीनता वतै छ, तेम ज प्राणी पर अतरथी दया यतें छे, ते जीवने मोष मागनो जिज्ञासु कहीए अर्थात ते मार्ग पामवा योग्य कहीए १०९ ते जिनासु जीवने जो सद्गुरुनो उपदेश प्राप्त याय तो ते समस्तिन पामे, अनै अतरनी शोधमा वर्ते ११० मत अने दशननो आग्रह छोडी दई जे सद्गुरु न रक्षे वर्ते, ते शुद्ध समक्तिने पामे के जेमा भेद तथा पक्ष नथी १११ आत्मस्वभावनो ज्या अनुभव लक्ष भने प्रतीत वर्ते छे तथा वृत्ति आत्माना स्वभावमा वहे छ, त्या परमार्थे समक्ति छे । ११२ ते समकित वधती जती धाराथो हास्य शोधा दियो जे पई आत्माने विष मिथ्याभास भास्या छे तेने टाळे, अने स्वभाव समाविरूप चारित्रनो उदय याय, जेपी सव रागद्वेपना क्षयरूप वीतरागपदमा स्थिति थाय ११३ सव आभासरहित आत्मस्वभावनु ज्या अखड एटले क्यारे पण खडित न थाय, मदन याय, नाश न Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पामे एवु ज्ञान वर्ते तेने केवळ ज्ञान कहीग छीए जे केवळज्ञान पाम्याथी उत्कृष्ट जीवन्मुक्तदशास्प निर्वाण, देह छता ज अत्रे अनुभवाय छे ११४. करोडो वर्षतुं स्वप्न होय तो पण जाग्रत थता तरत शमाय छे, तेम अनादिनो विभाव छे ते आत्मज्ञान थता दूर थाय छ ११५ हे गिष्य ! देहमा जे आत्मता भनाई छे, अने तेने लीधे स्त्री पुत्रादि सर्वम्ग अह्ममत्वपणु वर्ते छे, ते आत्मता जो आत्मामा ज मनाय, मने ते देहाध्यास एटले देहमा आत्मबुद्धि तथा आत्मामा देहबुद्धि छे ते छूटे, तो तुं कर्मनो कर्त्ता पण नथी, अने भोक्ता पण नथी; अने ए जधर्मनो मर्म छे. ११६. ए ज धर्मथी मोक्ष छे, अने तुज मोक्षस्वरूप छो; अर्थात् शुद्ध आत्मपद ए ज मोक्ष छे तुं अनंत ज्ञान दर्शन तथा अन्यावाव सुखस्वरूप छो. ११७. तुं देहादिक स“पदार्थधी जुदो छे कोईमा मात्मद्रव्य भळत्तु नथी, कोई तेमा भळतुं नथी, द्रव्ये द्रव्य परमार्थथी सदाय भिन्न छ, माटे तुं शुद्ध छो, बोधस्वरूप Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ छो, और मनारमा छो स्वययोति एटले पोई पण राने प्रपातु नया, स्यमा जतु प्रसास्वाहा छो, भने अध्यायाध गुणा धाम छो बीज पेटल महाए ? अपवा घणु कहे ? गामो पटरज" जो विचार पर हा ते परन पामी। ११८ म शामिना दिनय अब आयाने ममाय से, सम यहीन मद्ग़ा मौनया परीने महागमाधिमा स्पिन ভাষা প্র!ি বাণীশিনা স্বপ্নবি ফী ११. मिन सगुणा उपापी अपूर्व पर पूर्य पोई नियम मही आय: एप मान पाय मन से पोता स्वप नावान विप सपाप्म म मन दहाग्म इलिप मगन दूर पप १२० पोता। यार HTTERT, झर ममर अविना अन "इपी र माग्न १२॥ ॥ शिव my रियाँ खां मा मममी मा irriTantr., अगम स्वमाया त यह रोमी पो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ १२२. अथवा आत्मपरिणाम जे शुद्ध नैतन्यस्वमा छ, तेनो निर्विकल्पस्वरूपे सत्तभोक्ता थयो. १२३ आत्मानु शुद्ध पद छे ते मोन छे, अने जेयी ते पमाय ते तेनी मार्ग छे, श्री मदगुलए कृपा करीने निग्रंयनो सर्व मार्ग नमजाव्यो। १२४ अहो ! अहो ! फरणाना अपार समुद्रस्वम्प आत्मलक्ष्मीए युक्त सद्गुरु, आप प्रभुए आ पामर जीव पर आश्चर्यकारक एवो उपकार गर्यो १२५ हुँ प्रभुना चरण आगळ शुं धरूं ? (सद्गुरु तो परम निष्काम छ, एक निष्काम करणाथी मात्र उपदेशना दाता छे, पण शिष्यधर्मे शिष्ये आ वचन का छे) जे जे जगतमा पदार्थ छे, ते सौ आत्मानी अपेक्षाए निर्मूल्य जेवा छे, ते आत्मा तो जेणे आप्यो तेना चरण समीपे हु बीजुं शुं धरु ? एक प्रभुना चरणने आधीन वर्तु एटलु मात्र उपचारथी करवाने हु समर्थ छु. १२६ आ देह, 'आदि' शब्दथी जे कई मारु गणाय - छे ते, आजथी करीने सद्गुरु प्रभुने आवीन वर्तो, हुं तेह प्रभुनो दास छु, दास छु, दीन दास छं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ छ्ये स्थानक समजावीने हे सद्गुरु देव । सारे देहादिया आरमाने जेम म्यानयो सरवार जुदी गादीन यतापोए तेम म्पष्ट जुनो वताव्यो, आपे मपाई पारे पदी एयो उपकार पर्यो । १२८ मे दान धा छ स्थानवी समाय छे पिन परीने विगारयापी पोई पण प्रकारनो सय रहे गहीं १२९ श्रागाने पोत म्यम्पनु मान नही एवो माशे का राग पो गद्गुरु सेवा सना काई माचा पपया पिपुग या नपी, मुदगुरागाए पाल्या समान सानु शाई पप्य भगा, अन विधार तया निदिध्यासन जेयु भाई तेन औरण नपा ३० को परमापा , रो, तो मापो पुरा गे मने मधमा पानि नामईने यान्मापने छेगे १ आमा भरप: अग ऐ सिय के एवी भिमुप मामी गामलीन साधन तम्या योग्य नगी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण तयारूप निश्चय लक्षमा राखी साधन करीने ते निश्चयस्वरूप प्राप्त करवु १३२ अत्रे एकाते निश्चयनय कह्यो नथी, अथवा एकाते व्यवहारनय कह्यो नधी, वेय ज्या ज्या जेम घटे तेम साथे रह्या छे. १३३ गच्छ मतनी कल्पना छे ते सद्व्यवहार नथी, पण आत्मार्थीना लक्षणमा कही ते दशा अने मोक्षोपायमा जिज्ञासुना लक्षण आदि कह्या ते सद्व्यवहार छे, जे अत्रे तो सक्षेपमा कहेल छ पोताना स्वरूपतु भान नर्थी, अर्थात् जेम देह अनुभवमा आवे छे, तेवो आत्मानो अनुभव थयो नथी, देहाध्यास वर्ते छे, अने जे वैराग्यादि साधन पाम्या विना निश्चय पोकार्या करे छे, ते निश्चय सारभूत नथी. १३४. भूतकाळमा जे ज्ञानीपुरुषो थई गया छे, वर्तमानकाळमा जे छ, अने भविष्यकाळमा थशे, तेने कोईन मार्गनो भेद नथी, अर्थात् परमार्थे ते सौनो एक मार्ग छ, अने तेने प्राप्त करवा योग्य व्यवहार पण ते ज परमार्थसाधकरूपे देशकाळादिने लीधे भेद कहो होय छता एक फळ उत्पन्न करनार होवाथी तेमा पण परमार्थ भेद नथी. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ १३५ सव जीवने विष सिद्ध समान सता छे, पण त मोज समजे तेन प्रगर थाय ते प्रगट थवामा सद्गुरुनी आनाथी प्रवतवु तथा सद्गुरु उपदेशेलो एवी जिनदशानो विचार करतो, त वैय निमित्त कारण छ १३६ सद्गुर आना आदि ते आत्मसाधनना निमित्त कारण छे, अने आत्माना नान दर्शनादि उपादान चारण छ एम शास्त्रमा कह्य छ, तेया उपासाननु नाम लई जे कोई ते निमित्तने तनशे ते सिद्धपणाने नही पामे, अने भ्रातिमा वा करगे केमके माचा निमित्तना जिपपार्थे ते उपादाननी न्याख्या शास्त्रमा क्गै नो, पण उपादान गत राखवाथी तासाचा निमित्त मळ्या छदा काम नहा थाय, माटे साचा निमित मळ्ये ते निमित्तने अव लवीन उपादान स मुख फरवु अने पुरुपायरहित न यबु, एवो शास्त्रकार कहेली ते ध्यायानां परमाय छे १३७ भुसपी निश्चयमुख्य पचनो पद छे, पण अतरथी पोनाने ज मोह छूटयो नयो, एवा पामर प्राणी मात्र माती कहवराववानी कामनाए साचा ज्ञानी पुरुपनो द्रोह फरे छ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दया, शानि, ममता, धग, ना त्याग बने वैराग्यगुणो ना पटमा मदार गुलाग्य एटने जागृत होय, अर्थात् ॥ गुमो विना पर पन होग १३२ मोहमायनोचा क्षय भयो होग, अपवाया मोहदमा बहु धान पा शेष, त्या मानानी दमा कहोग, बने वाकी तो पानामा नान मानी नीच ठे, तेने भाति माहीए. १४०. समस्त जगत जेणे जेव जाण्य है, अथवा स्वप्न जेवू जगत ने ज्ञानमा यतें छे ते ज्ञानीनी दशा छ, वाको मात्र वाचानान एटले पाहवा मान ज्ञान छै १४१. पाचे स्थानकने विनागने जे छठे स्थानके वतें, एटले ते मोक्षाना जे उपाय बाह्या हे तेमा प्रवर्ते, ते पाचमु स्थानक एटले मोक्षपद, तेने पामे १४२ पूर्वप्रारख्ययोगयो जेने देह वर्ते छे, पण ते देहथी अतीत एटले देहाटिनी कल्पनारहित, आत्मामय जेनी दशा वर्ते छे, ते ज्ञानीपुरुपना चरणकमळमा अगणित वार वंदन हो! श्री सद्गुरुचरणार्पणमस्तु Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ (५०) मोहमयीथी जेनी अमोहपणे स्थिति छ, एवा श्री ना यया. 'मनने लाने आ वधु छे एवा जे अत्यार सुधीनो थयेलो निणय लथ्यो, ते सामाय प्रकारे तो यथातथ्य छ तथापि 'मन , 'तेने लईने' बने 'आ वधु', अने तेनो निर्णय' एवा जे चार भाग ए वापयना पाय छे, ते घणा काळना बोधे जैम छे तम समजाय एम जाणीए छोए जेने ते समजाय छे, तेने मन वश धर्ने छ, यत छ, ए वात निश्चयरूप छ, तथापि न पततु होय चोपण ते आत्म स्वरपने विपेज वर्ते छ ए मन यश थवानी उत्तर उपर रख्यो छे, ते सवथी मुख्य एवो लख्यो छ जे वाक्य रखवामा माल्या छे ते घणा प्रकारे विचारवाने योग्य छ महात्मानो देह वे कारणने लईने विद्यमानपणे ते छे प्रारप कम भोगववाने अर्धे जीवोना पल्याणने अर्षे, तथापि ए बनेमा ते उदासपणे उदय आवेली वतनाए यतें छे, एम जाणीए छोए Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ध्यान, जप, तप, क्रिया मार ए सर्व थकी, अमे जणावेलु कोई वाक्य जो परम फळन तारण धारता हो तो, निश्चयपणे धारता हो तो, पाछळयी वृद्धि लोकसज्ञा, शास्त्रसंज्ञा पर न जती होय तो, जाय तो ते प्रातिवडे गई छे एम धारता हो ता, ते वाफ्यने घणा प्रकारनी धीरजवडे विचारवा धारता हो तो, लखवाने इच्छा थाय छे हजी आथी विशेषपणे निश्चयने विपे धारणा करवाने लखवु आगत्य जेवु लागे छ, तथापि चित्त अवकाशस्पे वर्ततु नथी, एटले जे लत्यु छे ते प्रबळपणे मानशो __ सर्व प्रकारे उपाधियोग तो निवृत्त करवा योग्य छे, तथापि जो ते उपाधियोग सत्सगादिकने अर्थे ज इच्छवामा आवतो होय, तेम ज पाछी चित्तस्थिति सभवपणे रहेती होय तो ते उपाधियोगमा प्रवर्तवू श्रेयस्कर छे. मुवई, वैशाख वद १४, बुध, १९४८ - - चित्तमा तमे परमार्थनी इच्छा राखो छो एम छे, तथापि ते परमार्थनी प्राप्तिने अत्यतपणे वाघ करवावाळा एवान Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 २४१ दोष ते प्रत्ये अचान, शोध, मानादिना पारणयी उदास यह शक्ता नथी अथवा तेनी अमुक बळगणामा रुचि बहे छ ते परमाथने बाध परवाना कारण जाणी अवश्य सपना विपनी पठे त्यागवा योग्य छ पोईनो दोप जोवो घटतो नयी सब प्रकारे जीवना दोपनो ण विचार करदो घटे छ, एवी भावना अत्यतपणे दढ करवा याग्य छ जगतप्टिए कल्याण असभवित जाणी आ पहली बात ध्यानमा लेवा जोग छ ए विचार राखवो मुदई, चत्र वद ७, १९४९ (५२) थी सद्गुरुदेवना अनुग्रहथी अत्र समाधि छे एकातमा अवगाहवाने गर्थे 'आत्मसिद्धि' आ जोहे मोक्ल्यु छे ते हाल श्री लल्लुजीए अवगाहवा योग्य छ जिनागम विचारवानी श्री लल्लुजी अथवा श्री देव फरणजीने इच्छा होय तो 'आचाराग , 'सूयगडाग', ___ 'दशवकारिक', 'उत्तराध्ययन' अने 'प्रश्नध्याकरण' Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ विचारवा योग्य छ 'आत्ममिद्धिशास्त्र' श्री देवकरणजीए आगळ पर अवगाहवु वधारे हितकारी जाणो हाल श्री लल्लुजीने मात्र अवगाहवानु लल्यु छे; तो पण जो श्री देवकरणजोनी विशेप आकाक्षा हाल रहे तो प्रत्यक्ष सत्पुरुष जेवो मारा प्रत्ये कोईए परमोपकार कर्यो नथी एवो अखड निश्चय आत्मामा लावी, अने आ देहना भविष्य जीवनमा पण ते अखंड निश्चय छोड़ तो मे आत्मार्थ ज त्याग्यो भने खरा उपकारीना उपकारने ओळववानो दोप कर्यो एम ज जाणीश, बने आत्माने सत्पुरुपनो नित्य आज्ञाकित रहेवामा ज कल्याण छे एवो, भिन्नभाव रहित, लोक संबंधी वीजा प्रकारनी सर्व कल्पना छोडोने, निश्चय वर्तावीने, श्री लल्लुजी मुनिना सहचारीपणामा ए ग्रन्थ अवगाहवामा हाल पण अडचण नथी घणी शकाओनु समाधान थवा योग्य छ सत्पुरुषनी आज्ञामा वर्तवानो जेनो दृढ निश्चय वत छे अने जे ते निश्चयने आराधे छे, तेने ज ज्ञान सम्यकपरिणामी थाय छे, ए वात आत्मार्थी जीवे अवश्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा रमा लपमा राखवा योग्य छ अमे जे मा वचन एख्या है, तेना सर्व मानीपुरुषो साक्षी छे वीजा मुनिओने पण जे जे प्रकारे वैराग्य, उपशम मने विवेक्नी वृद्धि थाय ते ते प्रकारे श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी यथाशक्ति सभळावयु तथा प्रवविद् घट छ, तेमज मय जीवो पण या माथस मुख पाय भने जानीपुरुपनी आजाना निश्चयन पाम तथा विरक्त परिणामन पामे, रसादिनी लुपता भोळी पाहे । आदि प्रकार एक आत्मायें उपदश क्त्तव्य छ अनतबार देहने अर्थे आत्मा गाळ्यो छ जे देह आत्माने अर्ये गळाशे ते दहे आत्मविचार जन्म पामवा योग्य जाणी, सब दहापनी वल्पना छाही दइ, एक मात्र आत्माषमा ज तनो उपयाग रखो, एवो मुमुक्षु जीवने अवश्य निस्चय जोईए श्री सहजात्मस्वरूप मडियाद, आसो पद १०, शनि, १९५२ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ (५३) क्षमापना हे भगवान ! हु बहु भूली गयो, मे तमारा अमूल्य पचनने लक्षमा लीधा नही तमारा कहेला अनुपम तत्त्वनो मे विचार कर्यो नही तमारा प्रणीत करेला उत्तम शीलने सेव्यु नही तमारा कहेला दया, शाति, क्षमा अने पवित्रता मे ओळख्या नही हे भगवन् ! हु भूल्यो, आथड्यो, रझळ्यो भने अनत ससारनी विटम्बनामा पडयो छु हु पापी छु हु बहु मदोन्मत्त अने कर्मरजथी करीने मलिन छु. हे परमात्मा । तमारा कहेला तत्त्व विना मारो मोक्ष नथी. हुं निरतर प्रपचमां पड्यो छु अज्ञानथी अघ थयो छु, मारामा विवेकशक्ति नथी अने हु मूढ छु, हु निराश्रित छु, अनाथ छु. नीरागी परमात्मा । हु हवे तमाएं, तमारा धर्मनुं अने तमारा मुनिनु शरण ग्रह छु मारा अपराध क्षय थई हु ते सर्व पापथी मुक्त थउं ए मारी अभिलाषा छ आगळ करेला पापोनो हु हवे पश्चात्ताप करु छु. जेम जेम हुं सूक्ष्म विचारथी ऊडो ऊतरूं छु तेम तेम तमारा तत्त्वना चमत्कारो मारा स्वरूपनो प्रकाश करे छे. तमे नीरागी, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 निविवारी, सच्चिदानदस्वरूप, सहजानदी, अनतज्ञानी, अनतदशी अने त्रैलोक्यप्रकाशक छो हु मात्र मारा हितने अर्थे तमारी साक्षीए क्षमा चाहु छु एक पळ पण तमारा कहेला तत्वनी सका न थाय, तमारा पहेला रस्तामा अहोरात्र हुरहु ए ज मारी आकाक्षा अने वृत्ति पाओ! हे सवन भगवान | तमने हु विपशु बहु ? तमाराथी कई अजाण्यु नथी मात्र पश्चातापथी हु बमजय पापनी क्षमा इच्छु छ a আবি রাবি থারি