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________________ ११३ ( ३५) समस्त विश्व घणु करीने परकथा तया परवृत्तिमा घा जाय छे, तमा रही स्थिरता फ्याथी प्राप्त थाय ? आवा अमूल्य मनुष्यपणानो एक समय पण परवृत्तिए जवा देवा योग्य नयी, अने कई पण तम थया करे छ तनो उपाय बई विनापे करी गवषवा योग्य छ पानीपुरुपनो निश्चय थई अतभेद न रहे तो आत्म प्राप्ति साव सुलभ छ, एवु ज्ञानी पावारी गया छता केम लाको भूल ? मुबई आसा सुर १३, १९५१ परवा योग्य घई का होय ते विस्मरणयोग्य न होय एटलो उपयोग परी प्रमै पराने पण तेमा अवश्य परिणति करवी पटे रयाग, वराग्य, सपशम अने भक्नि मुमा जीवे महज स्वभावरूप करी मुक्या विना आत्मदशा म आव? पण शिपिन्पणाची प्रमापी ए वात विस्मृत पई जाप छ मुबई, आसो मुद १३, १९५१
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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