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________________ २१० ६४ जे जे मयोगोमो डीए से रा मानवम्बम्प एवा मामाता दुपय ए सने आरमा जाणे छ, भने त मयोगन स्त्रम्प विचारता एवो कोई पण सयोग ममजातो मथी ये जेयी आत्मा उप । पाय छ, मारे धारमा मयोगपी नहा उत्पन भयेग या छ, अर्थात् असयोगी छे स्वाभाविप पाय ८, मार त प्रत्यार "नित्य' समजाय छ ६५ जडयो चतन उपजे ओ भतायी जड उत्पन्न पाय एवा पोईन क्यार पदी पण अनुभव पाय नही ६६ जेनी उत्पत्ति कोई पण गयोगोथी पाप ही, तनो नाग पग गोईने विपे पाय हो माट आत्मा विशाळ 'नित्य छ __ ६७ ग्रोधादि प्रवृतिओन विशेष सर्प यगर प्राणोमा ज मथी ज जोवामा आय छे वर्तमान देहे तो त अभ्याम कर्यो नथी, जमनी साये ज त छ, एटले ए पूर्वज मना ज मस्वार छ, जे पूषजम जीवनी नित्यता सिद्ध परेछ ६८ आत्मा वस्तुपण नित्य छै रामये गमये ज्ञानादि परिणामना पल्टयाथी तना पर्यापनु पटवापणु छ (पई
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
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