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परिभ्रमण तेने प्राप्त थयु छ समये समये अतुल खेद, ज्वरादिक रोग, मरणादिक भय, वियोगादिक दु.खने ते अनुभवे छे, एवी अशरणतावाळा मा जगतने एक सत्पुरुष ज शरण छे, सत्पुरुपनी वाणी विना कोई ए ताप अने तृषा छेदी शके नही एम निश्चय छे माटे फरी फरी ते सत्पुरुषना चरणनु अमे ध्यान करीए छीए.
संसार केवळ अशातामय छे. कोई पण प्राणीने अल्प पण शाता छे, ते पण सत्पुरुषनो ज अनुग्रह छे, कोई पण प्रकारना पुण्य विना शातानी प्राप्ति नथी, अने ए पुण्य पण सत्पुरुपना उपदेश विना कोईए जाण्युं नयी; धणे काळे उपदेशेलु ते पुण्य रूढिने आधीन थई प्रवर्ते छे; तेथी जाणे ते ग्रथादिकथी प्राप्त थयेलु लागे छे, पण एनु मूळ एक सत्पुरुष ज छे, माटे अमे एम ज जाणीए छीए के एक अश शाताथी करीने पूर्णकामता सुधीनी सर्व समाधि तेतु सत्पुरुप ज कारण छे, आटली बची समर्थता छता जन कई पण स्पृहा नथी, उन्मत्तता नथी, पोतापणु नथी, गर्व नथी, गारव नथी, एवा आश्चर्यनी प्रतिमारूप सत्पुरुषनं अमे फरी फरी नामरूपे स्मरीए छीए. .. .'
त्रिलोकना नाथ वश थया छे जेने एवा छता “प