SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ १०८ मर्व शाम्मन पा तत्त्व भने मन्य हे एम कहुं तो मा अहपद नथी. १०९ न्याय मने बहु प्रिय छे. वीरनी गैली ए ज न्याय छे, समजवु दुर्लभ छे ११० पवित्र पुरुपोनी कृपादृष्टि ए ज मम्यदर्शन छ १११ भर्तृहरिए कहेलो त्याग विशुद्ध बुद्धिथी विचारता धणी ऊवंशानदशा थता सुधी वर्ते छे. ११२ कोई धर्मथी हु विरुद्ध नयी. सर्व धर्म हु पाळु छु तमे सघळा धर्मथी विरुद्ध छो एम कहेवामां मारो . . . उत्तम हेतु छे. ११३ तमारो मानेलो धर्म मने कया प्रमाणथी वोवो छो ते मारे जाणवु जरूरनुं छे. ११४ शिथिल बंध दृष्टियो नीचे आवीने ज विखेराई जाय (--जो निर्जरामा आवे तो) ११५ कोई पण शास्त्रमा मने शका न हो. ११६ दुःखना मार्या वैराग्य लई जगतने आ लोको भ्रमावे छे ११७ अत्यारे, हु कोण छु एनु मने पूर्ण भान नथी. : ११८ तुं सत्पुरुषनो शिष्य छे. .
SR No.010737
Book TitleTattvagyan Mathi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1986
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy