Book Title: Tattvagyan Mathi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 218
________________ २१० गुरु प्रत्ये मन, वचन, कायानी एकताथी आज्ञाफितपणे वर्ते. ३६. अणे काळ ने विप परमार्थनो पंथ एटले मोक्षनो मार्ग एक होवो जोईए अने जेथी ते परमार्थ सिद्ध थाय ते व्यवहार जीवे मान्य राखवो जोई ए, बीजो नही. ३७. एम अंतरमा विचारीने जे सद्गुरुना योगनो शोध करे, मात्र एक आत्मार्थनी इच्छा राखे पण मानपूजादिक, सिद्धिरिद्धिनी कशी इच्छा राखे नहीए रोग जेना मनमा नथी. ३८. ज्या कपाय पातळा पडया छे, मात्र एक मोक्षपद सिवाय वीजा कोई पदनी अभिलाषा नथी, ससार पर जेने वैराग्य वर्ते छ, अने प्राणीमात्र पर जेने दया छ, एवा जीवने विपे आत्मार्थनो निवास थाय ३९. ज्या सुधी एवी जोगदशा जीव पामे नही, त्या सुधी तेने मोक्षमार्गनी प्राप्ति न थाय, अने आत्मभ्रातिरूप अनत दुःखनो हेतु एवो अतररोग न मटे. ४०. एवी दशा ज्या आवे त्या सद्गुरुनी बोध गोभे अर्थात् परिणाम पामे, अने ते बोधना परिणामथी सुखदायक एवी सुविचारदशा प्रगटे.

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