Book Title: Tattvagyan Mathi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 240
________________ २३२ पामे एवु ज्ञान वर्ते तेने केवळ ज्ञान कहीग छीए जे केवळज्ञान पाम्याथी उत्कृष्ट जीवन्मुक्तदशास्प निर्वाण, देह छता ज अत्रे अनुभवाय छे ११४. करोडो वर्षतुं स्वप्न होय तो पण जाग्रत थता तरत शमाय छे, तेम अनादिनो विभाव छे ते आत्मज्ञान थता दूर थाय छ ११५ हे गिष्य ! देहमा जे आत्मता भनाई छे, अने तेने लीधे स्त्री पुत्रादि सर्वम्ग अह्ममत्वपणु वर्ते छे, ते आत्मता जो आत्मामा ज मनाय, मने ते देहाध्यास एटले देहमा आत्मबुद्धि तथा आत्मामा देहबुद्धि छे ते छूटे, तो तुं कर्मनो कर्त्ता पण नथी, अने भोक्ता पण नथी; अने ए जधर्मनो मर्म छे. ११६. ए ज धर्मथी मोक्ष छे, अने तुज मोक्षस्वरूप छो; अर्थात् शुद्ध आत्मपद ए ज मोक्ष छे तुं अनंत ज्ञान दर्शन तथा अन्यावाव सुखस्वरूप छो. ११७. तुं देहादिक स“पदार्थधी जुदो छे कोईमा मात्मद्रव्य भळत्तु नथी, कोई तेमा भळतुं नथी, द्रव्ये द्रव्य परमार्थथी सदाय भिन्न छ, माटे तुं शुद्ध छो, बोधस्वरूप

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