Book Title: Tattvagyan Mathi
Author(s): Shrimad Rajchandra,
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram
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मत दशन आग्रह तजी, पर्ते सद्गुरुरुष, लहे युद्ध समविद् ते, जेमा भेद न पक्ष ११० वर्ते निजस्वमावनो, अनुभव ला प्रतीत, वृत्ति वहे निजभावमा, परमार्थे समकित १११ वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास, उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास ११२ केवळ निजस्वभावनु, अखड पर्ते नान, कहीए केवळनान ते, देह छता निर्वाण ११३ कोटि वपनु स्वप्न पण जाग्रत थता शमाय, तम विभाव अनादिनो, नान पता दूर थाय ११४ छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तु कम, नाह भाक्ता तु तेहनो, एज धर्मनो मम ११५ एज धर्मपी मोक्ष छे, तु छो मोक्ष स्वरूप, अनत दान पान तु, अन्यायाध स्वरूप ११६ शुद्ध बुद्ध चैत यधन, स्वयज्योति सुखधाम, चीज़ कहीए केटलु ? कर विचार तो पाम ११७ निश्चय सर्वे ज्ञानोना आवी अन समाय, घरी मौनता एम वही, सहजसमाधि माय ११८

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