Book Title: Supasnahachariyam Part 02
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ २८६ अवि य । सुपासनाह चरिअम्मि -- सो पुणु धम्म जिणिदिहिं वुत्तर, दाण- सील-तव-भावणजुत्तउ । अंतिमतिगु जइ करण न सकइ, तहवि गिहत्थु न दाणह चुक्कड़ || १५ || तो जइ इच्छ अस्थि परलोयह, ता विव्वहु नियधणु परलोयह । जिणहरि जिणवरविवि सुपोत्थइ, अन्नुवि चउविहसंघि पत्थइ ||१६|| पाणासणरायणासणपत्तई, अन्नु वत्थइ ओसहई विचित्तई । जो साहुहुं जियरायहं दावइ, सो अवसि वरसोक्खई पावइ ॥ १७॥ जो साहुहुं वरवसहिं पयच्छर, लहइ सु सिवपुरिमंदिरु निच्छइ । जो जिणधम्मियवच्छल कारइ, नरयह जंतु सु अप्पु निवारइ || १८ || सीलरय दिदु रक्खर जो जणु जहकहिय, इत्थीयणपसुमाइसयलदोसिहिं रहिय | सो जिवि सुरसोक्खु अमररमणिहिं सहिउ, पुण उप्पज्जइ मणुयगइहि नरवरम हिउ । जो नरु भत्ति करइ वरसमणिहिं, मोहलोहमयरद्धयमहणिहिं । सो पाव नर सोक्खु महंत, इयरजणिहिं न कयाविजु पत्तउ ||२०|| जो तह दिवसमत्तह साहम्मियजणहं, जिणवरपयअणुरत्तहं भत्तहं गुरुयणहं । तं वन्दित्वोपविष्टा शृणोति सूरिभिरिति कथ्यमानम् । यथा लब्ध्वा सामग्रीं कर्तव्य उद्यमो धर्मे ॥१४॥ अपि च । Jain Education International स पुनर्धर्मो जिनेन्द्रैरुक्तो, दानशीलतपोभावनायुक्तः । अन्तिमत्रिकं यदि कर्तुं न शक्यते, तथापि गृहस्थो न दानाद् भ्रश्यति ॥ १५॥ ततो यदीच्छास्ति परलोकस्य, तदा वीयतां निजधनं परलोके । जिनगृहे जिनवर बिम्बे सुपुस्तके, अन्यस्मिन्नपि चतुर्विधसंघे प्रशस्ते ॥ १६॥ पानाशनशयनाऽऽसनपात्राणि, अन्नं वस्त्राण्यौषधानि विचित्राणि । यः साधुभ्यो जितरागेभ्यो ददाति सोऽवश्यं वरसौख्यानि प्राप्नोति ॥ १७॥ यः साधुम्यो वरवसतिं प्रयच्छति, लभते स शिवपुरीमन्दिरं निश्चयेन । यो जिनधर्मवात्सल्यं करोति, नरके यान्तं स आत्मानं निवारयति ॥ १८ ॥ शीलरत्नं दृढं रक्षति यो जनो यथाकथितं, स्त्रीजनपश्चादिसकलदोषै रहितम् । सभुक्त्वा सुरसौख्यम मररमणीभिः सहितं, पुनरुत्पद्यते मनुजगतौ नरवरमहितः ॥ १९ ॥ यो नरो भक्तिं करोति वरश्रमणीनां, मोहलोभमकरध्वजमथनीनाम् । स प्राप्नोति नरः सौख्यं महत्, इतरजनैर्न कदापि यत् प्राप्तम् ॥२०॥ १ ग. जर अंतिमतिगु क° २ ग. साहुह साहुणियह जो दा° ३ क. 'गुसरंत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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