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( सुखी होने का उपाय भाग-४ गाथा ९० का शीर्षक - अब सब प्रकार से स्वपर-विवेक की सिद्धि
आगम से करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते
हैं।
गाथा ९२ की टीका – यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में
मनोरथ है, इसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोहदृष्टि ही है और वह बहिर्मोहदृष्टि तो आगम कौशल्य तथा आत्मज्ञान से नष्ट हो जाने के कारण अब मुझमें पुन: उत्पन्न नहीं
होगी। टीका के अन्त में लिखते हैं कि “अधिक विस्तार से बस हो, जयवन्तवा, स्याद्वाद मुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म।" गाथा २३७ का सार - अब ऐसा सिद्ध करते हैं कि आगमज्ञान
तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व के अयुत्पने को
मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता। उपरोक्त आगम वाक्यों के अतिरिक्त श्रमण, साधु परमेष्ठी के आचरण का प्रज्ञापन करने वाली चरणानुयोग सूचक चूलिका में श्रमण को आगम-अध्ययन के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती - इसही आशय को बताने वाली गाथा २३२ से २३८ एवं २४० की टीका एवं गाथा २६८ भी मननीय है; विस्तारभय से यहाँ उद्धृत नहीं की गई है । इसप्रकार एक प्रवचनसार में ही द्रव्यश्रुत के सम्यक् अध्ययन की महिमा १३ स्थानों पर की गई है। मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ का तो सार ही एकमात्र तत्त्वनिर्णय करने पर ही बल देना है और वह सम्यक् अभ्ययन के बिना सम्भव नहीं है, अत: उसका तो हर एक पृष्ठ इसकी ही प्रेरणा देता है।
इसप्रकार स्पष्ट होता है कि द्रव्यश्रुत के सम्यक् अध्ययन के बिना पदार्थ का यथार्थ श्रद्धान नहीं होगा, पदार्थ श्रद्धान के बिना स्वपर का विवेक नहीं होगा, स्व-पर के यथार्थ विवेक बिना, अपने आत्मा की परिणति
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