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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
का समावेश है । अत: इस विषय को मनोयोगपूर्वक समझने से यथार्थ मार्ग का एवं कर्तव्य का ज्ञान आत्मा को हो जाता है ।
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आत्मा अनन्त गुणों का पिण्ड एकद्रव्य है। उसमें अकेला ज्ञानगुण ही नहीं, वरन् ज्ञानगुण के साथ ही हर समय अनन्तगुणों का परिणमन भी होता रहता है । आत्मा की एक समय की पर्याय में अनन्त गुणों का कार्य सम्मिलित है । लेकिन उस सम्मिलित कार्य को प्रसिद्ध (प्रगट) करने वाला तो एक ज्ञानगुण ही है । वह स्वपरप्रकाशकस्वभावी होने के कारण ज्ञानगुण के कार्य के साथ-साथ अन्य सभी गुणों के कार्यों का प्रकाशन भी करता हैं। अतः उस ज्ञानगुण की पर्याय में अनन्तगुणों के कार्यों को भिन्न-भिन्न देखने से ही यथार्थ समझ उत्पन्न हो सकती है ।
समयसार परिशिष्ट के पृष्ठ ५८७ पर ४७ शक्तिप्रकरण का उपोद्घात करते हुए कहा है।
“ परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मों के समुदायरूप से परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूप से स्वयं ही है, (अर्थात् परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मों के समुदायरूप से परिणमित जो एक जाननक्रिया है उस जाननक्रिया मात्र भावरूप से स्वयं ही है इसलिए) आत्मा के ज्ञानमात्रता है । इसीलिए उसके ज्ञानमात्र एकभाव की अन्तःपातिनी (ज्ञानमात्र एक भाव के भीतर आ जानेवाली) अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं। आत्मा के जितने धर्म हैं उन सबको, लक्षणभेद से भेद होने पर भी, प्रदेशभेद नहीं है; आत्मा के एक परिणमन में सभी धर्मों का परिणमन रहता है। इसलिए आत्मा के ज्ञानमात्र भाव के भीतर अनन्त शक्तियाँ रहती हैं। इसलिए ज्ञानमात्र भाव मेंज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मा में अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं ।”
उपरोक्त कथन को सुनकर, ज्ञान को ही अन्य गुणों के दोषों का उत्तरदायी नहीं मान लेना चाहिए। ज्ञान तो मात्र सब गुणों के परिणमनों का प्रकाशक है । इस दृष्टिकोण को रखकर अगर हम ज्ञान पर्याय का विश्लेषण करेंगे तो हमको स्पष्ट हो सकेगा कि जिसका उत्तरदायी हम
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