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( सुखी होने का उपाय भाग-४
अज्ञानी भी परज्ञेयों से निरपेक्ष वर्तने पर स्व में एकत्वपूर्वक परिणमन करता रहेगा । फलस्वरूप चेतन होने से अपने आत्मा में बसे हुये आत्मानन्द का पान कर सुखी हो सकेगा । इसका प्रमाण भी है भगवान अरहंत की आत्मा । उनका ज्ञान पर निरपेक्ष होकर स्व में एकत्वपूर्वक परिणमन कर रहा है, अत: वे अनन्त सुख का अनन्तकाल तक अनुभव करते रहेंगे ।
तात्पर्य यह है कि ज्ञान का स्वभाव तो ज्ञेय निरपेक्ष वर्तना ही है. अतः स्वाभाविक परिणमन ही सुखी होने का उपाय है और पर से संबंध जोड़ते हुये परिणमन करना दुःखी होने का अर्थात् संसार का कारण है ।
उक्त कथन सुनकर कोई मिथ्याबुद्धि ऐसा तात्पर्य निकाले कि " ज्ञेय - ज्ञायक संबंध तो मात्र कहने मात्र का संबंध है, वास्तव में तो परज्ञेयों को ज्ञान जानता ही नहीं है।” तो ऐसी मान्यता अत्यन्त विपरीत है। ज्ञान का स्वभाव ही जानने का है अतः वह किसको न जाने ? स्व अथवा पर ज्ञेय मात्र जितने भी हों सबको जानता ही है। लेकिन अन्य सब प्रकार के संबंधों का निषेध करने के लिये ऐसा कहा गया है कि ज्ञेय से निरपेक्ष ज्ञान का पर के साथ कोई प्रकार का संबंध नहीं है । फलतः उसको राग का उत्पादन नहीं होता । अतः जानने का निषेध नहीं किया है
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ज्ञेय निरपेक्ष ज्ञान ही असीमित हो सकता है
निरपेक्ष का अर्थ है, किसी के प्रति अच्छेपने का, किसी के प्रति बुरेपने का भाव अथवा किसी को ग्रहण करने का, किसी को त्याग करने का भाव नहीं होना । अर्थात् तटस्थतापूर्वक देखनेवाले साक्षी की भांति, किसी के प्रति किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता ।
ज्ञान का स्वभाव, ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुये तटस्थ - दृष्टा - साक्षी पुरुष की भांति जानने का है। इसीप्रकार ज्ञेयों का भी स्वभाव ज्ञाता से निरपेक्ष रहते हुये, उनमें प्रमेयत्वगुण होने से जो भी उनको जानना चाहे, उसके ज्ञान का विषय बनने का स्वभाव है। इसप्रकार दोनों ही एक दूसरे से निरपेक्ष रहते हुये परिणमते हैं; उसी को ज्ञाता ज्ञेय संबंध कहा गया है।
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