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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१६७ का अभाव कर दिया, अत: श्रद्धा भी तद्प हो चुकी है। इसलिये ज्ञान भी ज्ञेयों की ओर वृत्ति को झुकने नहीं देना चाहता। लेकिन चरित्रगत निर्बलता के कारण, ज्ञेयों से पूर्ण निरपेक्ष रहते हुये परिणमन नहीं कर पाता, फलत: जितना उस ओर झुक जाता है उतना राग तो उसको भी उत्पन्न होता है। लेकिन ज्ञेयों में परपना होने से उपेक्षित बुद्धिपूर्वक झुकता है अत: ज्ञानी उस निर्बलता का भी क्रमश: अभाव करके अरहंत दशा को प्राप्त हो जावेगा, क्योंकि अस्वाभाविक दशा ज्यादा काल रह नहीं सकती।
अज्ञानी जीव का ज्ञान भी ज्ञेयों से तो भिन्न रहते हुये ही वर्तता है, क्योंकि वस्तु अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकती। लेकिन अज्ञानी उक्त स्वभाव को नहीं स्वीकारता। उसकी श्रद्धा विपरीत होने से मानता है कि मैं ज्ञेयों का स्वामी हूँ तथा मेरा सुख ज्ञेयों में है। अत: वह उन से निरपेक्ष रह नहीं सकता? बल्कि उनमें से किसी को अच्छा मानकर रखने के लिये अथवा किसी को खराब मानकर दूर करने के लिये झपट्टे मारता रहता है। अत: राग अथवा द्वेष उत्पन्न करता रहता है। इससे सिद्ध होता है कि अज्ञानी का ज्ञान भी रागादि का उत्पादक तो नहीं है वरन् उसकी उल्टी मान्यता रूपी अज्ञान ही रागादि का उत्पादक है। ___अन्य अपेक्षा से भी विचार किया जावे तो ज्ञात होता है कि जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य पाँच द्रव्य भी विश्व में हैं। वे अचेतन होने से स्व-पर के ज्ञायक नहीं हैं। वे तो सब आपस में निरपेक्ष रहते हुये ही परिणमन करते रहते हैं। अत: उनमें रागादि की उत्पत्ति होना संभव ही नहीं है। लेकिन जीवद्रव्य स्व-पर का ज्ञायक होने से, परद्रव्य इसके ज्ञान में ज्ञेय के रूप में प्रतिभासित होते हैं। अगर यह जीवद्रव्य भी उन ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुये परिणमन करता रहे तो इसको भी रागादि की उत्पत्ति की संभावना कैसे हो सकती है? प्रवचनसार की गाथा ५५ की टीका में कहा भी है
कि -
“वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष
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