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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१८१ जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणता में परिणमन होता है और उससे अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षयसुख की प्राप्ति होती है।" ___“इससे (ऐसा कहा है कि) मोहरूपी ग्रन्थि के छेदने से अक्षय सौख्यरूप फल होता है।" __उपरोक्त स्थिति स्पष्ट होते हुये भी अज्ञानी आत्मा, इस स्थिति को मानता नहीं, स्वीकारता नहीं, श्रद्धा नहीं करता; वरन् इसके विपरीत पर के साथ प्रीति करता है फलत: पर की ओर ही एकाग्र बना रहता है । अत: ज्ञान परलक्ष्यी ही रहता है। ऐसा अज्ञानी कभी आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
परलक्ष्यी ज्ञान, ज्ञेय के साथ सम्बन्ध क्यों जोड़ता है?
प्राणीमात्र सुख चाहता है,अज्ञानी परज्ञेयों में अपनेपन की श्रद्धा सहित सुख मानता है, इसलिये उसको पर के साथ मैत्री वर्तती है। अत: पर में सुख प्राप्त करने के लिये परमुखापेक्षी ही बना रहता है। उसकी श्रद्धा इसप्रकार की होने से ज्ञान भी परलक्ष्यी उत्पन्न होता रहता है। आचरण अर्थात् चारित्र भी, उनमें ही तन्मय होने की चेष्टा करता है। वीर्यगुण (पुरुषार्थ) भी विपरीत हो जाता लेकिन पर में सुख नहीं होने से असफल होता है। फलत: आकुलता ही प्राप्त होती रहती है, ऐसी आकुलता का वेदन करता हुआ अपना जीवन निष्फल खो देता है । उनही ज्ञेयों में किसी को अच्छा मानकर राग करता रहता है, किसी को बुरा-अहितकर मानकर द्वेष करता रहता है । इसप्रकार विपरीत श्रद्धापूर्वक परलक्ष्यी ज्ञान मात्र मोह रागादि का उत्पादक बना रहता है। निराकुल नहीं हो सकता।
परलक्ष्यी ज्ञान से, आत्मदर्शन असंभव क्यों? परलक्ष्यीज्ञानं, मात्र मन और इन्द्रियों के माध्यम से ही कार्यशील होता है। ज्ञान, जब अपने को जानेगा तो उसमें अन्य की पराधीनता का अवकाश ही नहीं रहता। ऐसा ज्ञान अत्यन्त स्वाधीनतापूर्वक वर्तता है।
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