Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 187
________________ १८६) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कंप रहता हुआ यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ।” उपरोक्त टीका के माध्यम से समापन करने के पश्चात् आचार्य अमृतचन्द्रदेव श्लोक १० एवं ११ कहकर इस अधिकार के अन्त में निम्न आशीर्वाद प्रदान करते हुये समापन करते हैं - ___ अर्थ - “इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझानेवाले जैन ज्ञान में - विशाल शब्दब्रह्म में सम्यक्तया अवगाहन करके (डुबकी लगाकर, गहराई में उतरकर, निमग्न होकर) हम मात्र शुद्ध आत्मद्रव्यरूप एक वृत्ति से (परिणति से) सदा युक्त रहते हैं ॥ १० ॥" अर्थ – “आत्मा ब्रह्म को (परमात्मतत्त्व को, सिद्धत्व को) शीघ्र प्राप्त करके, असीम (अनन्त) विश्व को शीघ्रता से (एक समय में) ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ (अनेक प्रकार के ज्ञेयों को ज्ञान में जानता हुआ और स्वपरप्रकाशक ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ, प्रगट दैदीप्यमान होता है ॥ ११ ॥” उपरोक्त प्रकार से ज्ञानतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को समझकर दोनों के यथार्थ श्रद्धान ज्ञानपूर्वक ज्ञेयतत्त्वों में भ्रमण करती हुई परिणति को समेटकर अपने ज्ञानतत्त्व में विलीन (अभेद) कर निश्चल होते हैं, वे परमानन्द दशा को प्राप्त होते हैं । इसप्रकार यह ज्ञान प्रधान निश्चय मोक्षमार्ग का कथन है। आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव ने प्रवचनसार चरणानुयोग चूलिका के मोक्षमार्ग प्रज्ञापन प्रकरण का समापन करते हुये गाथा २४२ की टीका में निम्नप्रकार कहा है - टीका - ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शनपर्याय है; ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है; ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टिज्ञातृतत्त्व में परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्रपर्याय है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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