________________
यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१८७ .. उपरोक्त की गई समस्त चर्चा का केन्द्रबिन्दु मुख्यत: छहद्रव्यों के सामान्यविशेषात्मक स्वरूप अर्थात् गुणपर्यायों के स्वरूप को, स्व एवं पर के रूप में विभागीकरण करने के उद्देश्य से समझकर, उनको त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव ऐसे ज्ञातृतत्त्व के रूप में एवं शेष रहे समस्त को ज्ञेयतत्त्व के रूप में विभाग करके ज्ञातृतत्त्व को स्व के रूप में एवं ज्ञेयतत्त्व को पर के रूप में समझ कर मान लेना और ज्ञेय ज्ञात होने पर भी, इसप्रकार भासित हों कि आत्मसन्मुखता बनी रहे। फलत: ज्ञानज्ञेय के विभागीकरण द्वारा अपने ज्ञातृतत्त्व में अपनत्व स्थापन करके अपनी परिणति को पर से व्यावृत्तिपूर्वक, आत्मसन्मुख कर, मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी का अभाव कर आत्मानन्द का अनुभव कर लेना है।
उपरोक्त मार्ग समझने के लिये प्रवचनसार ग्रन्थ का बहुभाग आधार लिया गया है। उक्त ग्रन्थ में वर्णित ज्ञातृतत्त्व तो, मेरा ही त्रिकाली ध्रुव रहने वाला, परमपारिणामिकभाव, कारणपरमात्मा ऐसा ज्ञायकभाव है; अन्य कोई नहीं। उसही में अपनापन स्थापन कर, अन्य ज्ञेयमात्र से अपनापन तोड़कर, परिणति को अपने ज्ञातृतत्त्व में एकत्व करना ही सम्पूर्ण कथन का सार है। उसमें एकत्व होते ही अनादिकालीन मिथ्यात्व के साथ-साथ अनन्तानुबन्धी का भी अभाव होता है। उसके फलस्वरूप परिणति अपने-आपमें ही विश्राम करने के लिये लालायित रहती है और प्रयत्न करती रहती है। फलत: संसार देह, भोगों के प्रति सहजरूप से उदासीनता (उपेक्षा) वर्तने लगती है और उसही के अनुरूप बाहर की क्रियायें भी सहजरूप से वैराग्यमय अर्थात् अन्यायमय वर्तन, अनीतिपूर्वक जीवन एवं अभक्ष्यरूप खानपान आदि भावों के उत्पन्न होने का सहज अभाव वर्तने लगता हैं यही कारण है कि उसका जीवन ज्ञान और वैराग्यमय वर्तता रहता है एवं आत्मानन्द का रसास्वादन बारम्बार प्राप्त करने का पुरुषार्थ निरन्तर सहज वर्तता रहता है और उत्तरोत्तर शुद्धि की वृद्धि कर.चारित्रदशा को प्राप्त करते-करते पूर्णदशा प्राप्त कर लेता है।
सभी पाठकगण ऐसी दशा शीघ्र प्राप्त करें – इसी भावना के साथ इस पुस्तक का समापन करता हूँ। नेमीचन्द पाटनी
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org