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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( १७९ रहता है। इसप्रकार यथार्थत: ज्ञान, अपनी ही स्व-परप्रकाशक योग्यता के प्रकाशन का ही ज्ञाता है। लेकिन फिर भी उनका परिचय कराने के लिये व्यवहार का यह कथन भी सत्यार्थ है कि आत्मा ने अमुक ज्ञेय का ज्ञान किया इत्यादि। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक आत्मा को निश्चय से स्व का एवं व्यवहार से परज्ञेयों का ज्ञायक स्वीकार करना चाहिये।
प्रश्न - उपरोक्त समस्त कथन के समझने से आत्मा को क्या लाभ होगा?
उत्तर - आत्मा को स्वभाव के प्रति उत्कृष्ट महिमापूर्वक, ज्ञेयमात्र के प्रति उपेक्षाबुद्धि प्रगट हो जाती है।
प्रश्न - वह कैसे ?
समाधान - आत्मा जगत के छह द्रव्यों से भिन्न स्वतंत्र एक द्रव्य है। वह अपने सामर्यों का उत्पाद-व्यय करता हुआ ध्रुव नित्य बना रहता है। उसके उत्पाद-व्यय में किसी का हस्तक्षेप अथवा सहायता हो ही नहीं सकती। ज्ञान का स्वभाव ही स्व-परप्रकाशक है, अत: यह अपनी शक्ति सामर्थ्य से पर को भी जाने बिना रह ही नहीं सकता। अगर आत्मा में एक ज्ञानगुण नहीं माना जावे तो उसमें ज्ञान का अभाव हो जावेगा तो वह भी जड़-पुद्गल के समान अचेतन द्रव्य हो जावेगा। लेकिन ऐसा होना तो असंभव है। फलत: आत्मा स्व-पर को जाने बिना रह ही नहीं सकता। प्रवचनसार की गाथा १५५ की टीका में इसप्रकार कहा है -
“वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष है। प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है क्योंकि वह चैतन्य अनुविधायी (चैतन्य को अनुसरण करके होने वाला) परिणाम है और वह उपयोग, ज्ञान तथा दर्शन है।"
इसप्रकार अपनी स्व-पर प्रकाशक शक्ति से आत्मा में पर संबंधी ज्ञानाकारों को अपनी शक्ति के द्वारा स्वयं ही जान लेता है। इसपकार
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