Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 175
________________ १७४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ है, द्रव्य का तो उसको परिचय ही नहीं है। अतः मुख्य गौण व्यवस्था का तो प्रश्न ही नहीं होता । अतः वह द्रव्य को भी उस पर्याय जैसा ही एवं पर्याय जितना ही मानकर उसमें ही अहंपना (मेरापना) स्थापन कर लेता है । इसीलिये वह पर्यायमूढ़ बना रहता है । उसी को मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं। द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकनय का कार्य बतलाने वाली प्रवचनसार की गाथा ११४ का अर्थ इसप्रकार है अर्थ " द्रव्यार्थिकनय से सब द्रव्य हैं; और पयायार्थिकनय से वह द्रव्य अन्य - अन्य हैं, क्योंकि उस समय तन्मय होने से द्रव्य पर्यायों से अनन्य है । F टीका वास्तव में सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आँखें हैं - (१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।” --- उपरोक्त गाथा की टीका के भाव को संक्षेप में बताने वाला भावार्थ इसप्रकार है भावार्थ – “प्रत्येक द्रव्य सामान्य- विशेषात्मक है, इसलिये प्रत्येक द्रव्य वह का वही रहता है और बदलता भी है । द्रव्य का स्वरूप ही ऐसा उभयात्मक होने से द्रव्य के अनन्यत्व के विरोध नहीं है । जैसे - मरीचि और भगवान महावीर का जीव सामान्य की अपेक्षा अनन्यत्व और जीव के विशेषों की अपेक्षा से अन्यत्व होने में किसीप्रकार का विरोध नहीं ―― है । द्रव्यार्थिकनयरूपी एक चक्षु से देखने पर द्रव्य सामान्य ही ज्ञात होता है, इसलिये द्रव्य अनन्य अर्थात् वह का वही भासित होता है और पर्यायार्थिकनयरूपी दूसरी चक्षु से देखने पर द्रव्य के पर्यायरूप विशेष ज्ञात होते हैं इसलिये द्रव्य अन्य- अन्य भासित होते हैं ।” यही कारण है कि द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत वस्तु के ज्ञान से मोहांकुर की उत्पत्ति नहीं होती । इसका प्रमाण है कि भगवान अरहंत को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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