Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 174
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १७३ निष्कर्ष यह है कि ज्ञेय बनाना नहीं पड़ता तथा बनाने से बनता भी नहीं, जिसमें अपनापन होता है, सहजरूप से ही ज्ञेय बन जाता है । अज्ञानी को पर्याय की दृष्टि से द्रव्य को देखते समय, सम्पूर्ण द्रव्य ही पर्याय जैसा अनित्य एवं विकारी दिखने लगता है, जबकि वास्तव में रागादि का तो द्रव्य में प्रवेश ही नहीं है। द्रव्य तो त्रिकाली वस्तु है और पर्याय तो मात्र एक समय की मर्यादा वाली अनित्य है, वह कैसे द्रव्य में समावेश हो सकेगी? उस विकारी पर्याय का आत्मा में न तो भूतकाल में अस्तित्व था और न भविष्यकाल में भी रहेगा, मात्र एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय में ही, पर के क्षणिक संयोगपूर्वक उत्पन्न होती है और नष्ट भी हो जाती है । अत: वह तो संयोगाधीन होने से संयोगी एवं पराधीन भाव है, उसका जीवन भी एक समय मात्र का ही है । 1 द्रव्यदृष्टिवंत का विषय अभेदपदार्थ एवं पर्यायदृष्टिवंत का विषय पर्याय होता है I । सम्यक्नय तो ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) को ही प्रगट होती है । सम्यग्ज्ञान जब ज्ञेय को जानता है । तब मुख्य गौण व्यवस्थापूर्वक ही जानता है । इसीलिये द्रव्यार्थिकनय को मुख्य रखकर ज्ञानी द्रव्य को जानता है, उसीसमय उसको जाननक्रिया में पर्यायार्थिकनय की विषयभूत पर्याय गौण रहती है । ज्ञानी को द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दोनों नयों का सद्भाव वर्तता है तथा मुख्य गौण व्यवस्थापूर्वक सम्पूर्ण पदार्थ को जानता है । इसप्रकार जानते हुये भी अहंपना (अपनापन) तो मात्र द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत ध्रुव अर्थात् नित्यपक्ष में ही रहता है। इस ही को द्रव्यदृष्टि कहा गया है । दृष्टि श्रद्धागुण की पर्याय है और नय ज्ञानगुण की पर्याय है । इसप्रकार ज्ञानी को सम्यक्नय के सद्भाव के साथ-साथ द्रव्यदृष्टि निरन्तर वर्तती रहती है, पर्यायदृष्टि नहीं होती; फिर भी पर्यायार्थिकनय के विषय का ज्ञान तो निरन्तर वर्तता ही रहता है 1 मिथ्यादृष्टि को तो सम्यक्नय का जन्म ही नहीं हुआ है । अत: उसका ज्ञान नयरहित मिथ्याज्ञान हैं उसको तो मात्र पर्याय ही ज्ञेय बनती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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