Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 147
________________ १४६) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ उत्तर - ज्ञानगुण भी आत्मद्रव्य में है और प्रमेयत्वगुण भी उस ही में है। हर एक द्रव्य में अनन्तगुण होते हैं और सब ही हर समय विद्यमान भी रहते हैं एवं एक साथ कार्यशील भी रहते हैं, अत: आत्मद्रव्य में ज्ञानगुण और प्रमेयत्वगुण दोनों के एक साथ कार्यशील रहने में कोई विरोध नहीं है। हमारे अनुभव से भी सिद्ध होता है कि क्रोध की उत्पत्ति के समय, उसका उत्पाद भी ज्ञान के द्वारा ही ज्ञात होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा में प्रमेयत्वगुण कार्यशील है, अन्यथा वह क्रोध ज्ञान का विषय कैसे बनता? अत: अपना आत्मा ज्ञेय भी है एवं ज्ञायक भी है। उस आत्मद्रव्य के तीन अंग हैं। एक तो त्रिकालीज्ञायकभाव ध्रुव तत्त्व दूसरा उसमें त्रिकाल रहने वाले अनन्तगुण और तीसरा उनका समयसमय पर उत्पाद-व्यय करती हुईं पर्यायें, ये तीनों मिलकर सम्पूर्ण आत्मद्रव्य है। द्रव्य में प्रमेयत्वगुण होने से वह उपरोक्त तीनों में ही व्यापता है । अत: तीनों ही ज्ञेय हैं। इतना अवश्य है कि प्रयोजन सिद्ध करने हेतु मेरा त्रिकाली ज्ञायकतत्त्व तो स्वज्ञेयतत्त्व है। बाकी गुणभेद तथा पर्याय भेद तो समस्त परज्ञेय ही हैं । समस्त परद्रव्य एवं उनकी सभी पर्यायें तो पर हैं ही; स्वज्ञेय तो मात्र एक त्रिकालीज्ञायक ही है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञायक तो मात्र एक ज्ञायकभावरूप ज्ञानतत्त्व है और वही स्वज्ञेय भी है और वही मैं हूँ। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी रहता है, वह सब परज्ञेय तत्त्व ही रह जाता है। परज्ञेय के जानने में जब रागी का ज्ञान उपयुक्त होता है, तब राग का उत्पादन होता है एवं आकुलता को प्राप्त करता है; वही ज्ञान जब स्वज्ञेय को जानने में उपयुक्त होता है तो वीतरागता के उत्पादन के साथ-साथ अनाकुल आनन्द का भी अनुभव होता है। ज्ञेयतत्त्व क्या है? प्रश्न - ज्ञान जिस ज्ञेय को जानता है, वह ज्ञेय कौन हैं ? जानने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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