Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 158
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१५७ भावों का षटकारक रूप से आत्मा को ही कर्ता कहकर परद्रव्यों के कर्तृत्व की मान्यता छुड़ाई है। वास्तव में तो यह विश्व व्यवस्था स्थापन कराने वाला आगम ग्रन्थ है। लेकिन दूसरे अधिकार में आत्मा की पर्याय में होने वाले विकारी भावों की स्थिति बताकर संसार का अभाव करने का उपाय बताने वाले मोक्षमार्ग प्रपंचचूलिका द्वारा पूर्णता प्राप्त कराने का उपाय भी बताया है । इसप्रकार इस ग्रथ की रचना आगम परक, अध्यात्म का प्रयोजन सिद्ध कराने वाली है। आत्मार्थी को इसके अध्ययन द्वारा ऐसा निर्णय करना चाहिये कि मैं ज्ञायक अकर्ता स्वभावी होते हुये भी संसार दशा में तो पर्याय से अशुद्ध विकारी हूँ। अत: मेरे राग-द्वोष मोह आदि विकारी भावों को करने वाला मात्र मैं अकेला ही हूँ। कर्म आदि अन्य कोई भी मेरे कैसे भी भाव नहीं करा सकते क्योंकि जो करेगा वही भोगेगा और अकेला वह ही नाश भी कर सकेगा ऐसी श्रद्धा उत्पन्न करके अपनी पर्यायों में उत्पन्न होने वाले नवतत्त्वों का स्वरूप समझकर हेय उपादेय भाव से अपने कल्याण अर्थात् आकुलता रहित सुखी होने का उपाय करना चाहिये। (२) प्रवचनसार की शैली - प्रवचनसार अर्थात् दिव्यध्वनि का सार । वास्तव में यह अध्यात्मपरक आगम ग्रन्थ है। मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिये ज्ञानप्रधानता से दृष्टि के विषय का ज्ञान कराने वाला अनुपम ग्रन्थ है। इसमें सर्वप्रथम ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन के द्वारा हमारे त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव द्रव्य का परिचय कराने के लिये, भगवान अरहन्त की आत्मा के ज्ञान एवं सुख स्वभाव की पराकाष्ठा को प्रगटता की महिमा दिखाकर हमारे द्रव्य की सामर्थ्य का ज्ञान कराया, तत्पश्चात् मेरी आत्मा को स्वयं अरहन्त बनने का सरलतम उपाय गाथा ८० से ९२ तक समझाकर, अज्ञानी को ज्ञानी अर्थात् आत्मा का अनुभव प्राप्त कराकर ज्ञानतत्त्व प्रगट करा दिया, ऐसे ज्ञानी की दृष्टि भी सम्यक् हो गई, ज्ञान में ही सम्यक्नय प्रगट हो गये तथा अनन्तानुबन्धी का अभाव होकर स्वरूपाचरण चारित्र भी प्रगट हो गया। इसप्रकार के परिणमन वाला ज्ञानी ज्ञानतत्त्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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