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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १६३ तक के अर्थात् संसार के हरएक अज्ञानी जीव को होती है । असैनी प्राणी को तो विभावगुण पर्यायों का भान ही नहीं होता। अत: शरीर से एकत्वबुद्धि तो स्थूल अगृहीत मिथ्यात्व है; इसके अभाव हुए बिना तो विभावगुणपर्यायों से भेदज्ञान हो ही नहीं सकता। अपने शरीरादि की एकत्वबुद्धि तोड़ने के तत्पश्चात् ही विभावगुणपर्यायों से एकत्वबुद्धि तोड़ने के उपाय समझना कार्यकारी होगा।
अभी तक की चर्चा से हमने ज्ञानतत्त्व के स्वरूप को समझा तथा गाथा ९३ के माध्यम से ज्ञेयतत्त्व के स्वरूप को भी समझा। साथ ही कलश ६ के द्वारा ज्ञान-ज्ञेय के विभागीकरण की पद्धति को भी समझा। तदनुसार ऐसा निर्णय हुआ कि ज्ञानी के ज्ञान में ज्ञेय तो वास्तव में सम्पूर्ण पदार्थ होता है, लेकिन अज्ञानी ऐसा न मानकर मात्र इस शरीर असमान पर्याय में ही अपनापन होने से इसको ही ज्ञेय बनाता है। फलत: उसके मिथ्यात्वरूपी अज्ञान का अभाव नहीं होता, उसको ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराकर, इसके अज्ञान को मिटाने का प्रयास किया गया है। इसमें सभी द्रव्यों की गुणपर्यायें चाहे वे शुद्ध हों, अशुद्ध हों, विकारी हों, निर्विकारी हों, सभी को अपने-अपने द्रव्यों में समाहित करके अखण्ड द्रव्य को ज्ञेय माना है क्योंकि सम्यग्ज्ञानी के ज्ञान में अखण्ड द्रव्य ही ज्ञेय होता
. अत: प्रवचनसार में विभावगुणपर्यायों से भेदज्ञान करने की चर्चा
को याद ही नहीं किया है। प्रत्युत् गाथा १८९ की टीका में तो अपनी विभाव गुणपर्यायों का कर्ता आत्मा है ऐसा निश्चयनय है यह कहा है। अविकल टीका इसप्रकार है -
टीका - “राग परिणमन ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा राग परिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है; यह शुद्ध द्रव्य का निरूपण स्वरूप निश्चयनय है।"
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