Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 149
________________ १४८ ) श्लोक ६ का अर्थ इसप्रकार है 4 " आत्मारूपी अधिकरण में रहने वाले अर्थात् आत्मा के आश्रित रहने वाले ज्ञानतत्त्व का इसप्रकार यथार्थतया निश्चय करके, उसकी सिद्धि के लिए (केवलज्ञान प्रगट करने के लिये) प्रशम के लक्ष्य से (उपशम प्राप्त करने के हेतु से) ज्ञेयतत्त्व को जानने का इच्छुक जीव, सर्वपदार्थों को द्रव्य-गुण- पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुर की किंचित्मात्र भी उत्पत्ति न हो ।” ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि ज्ञानतत्त्व का यथार्थ निश्चय होने पर ही ज्ञेयतत्त्व का यथार्थज्ञान हो सकता है और ज्ञेयतत्त्व के ज्ञान करने का लक्ष्य तो निराकुल आनन्द प्राप्त करना ( प्रशम प्राप्त करना) होना चाहिये। ज्ञेयतत्त्व को जानने की पद्धति भी स्पष्ट है कि गुण, पर्यायों के समुदायरूप अभेद द्रव्य, ज्ञेय बनने से द्रव्यदृष्टि हो जाती है और द्रव्य की दृष्टि से छहों द्रव्यों में कोई असमानता रहती नहीं । अतः मोह की उत्पत्ति भी नहीं होगी । अज्ञानी उनमें भी भेद करके भेदों को विषय बनाता है, फलत: मोह उत्पन्न होता है । उक्त श्लोक में यह भी कहा है कि इसप्रकार छद्मस्थ को पदार्थ को ज्ञेय बनाने से मोह का अंकुर भी उत्पन्न नहीं होगा और मोह उत्पन्न नहीं होने से स्वाभाविक प्रशम अर्थात् निराकुलता की प्राप्ति होगी । इसका प्रमाण है कि भगवान अरहंत सकल ज्ञेयों के ज्ञायक होते हुए भी, निजानन्द में लीन रहते हैं। कहा भी है सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रस लीन 1 सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरज रहस विहीन ॥ अभेद पदार्थ ज्ञेय होने से मोह नहीं होता । अतः पदार्थ की स्थिति समझनी चाहिये । पदार्थ का यथार्थ स्वरूप बतलाने वाली प्रवचनसार की गाथा ८७ निम्नप्रकार है ― Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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