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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१४९
__“अब जिनेन्द्र के शब्दब्रह्म में अर्थों की व्यवस्था (पदार्थों की स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं -
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया। तेसु गुणपज्जयाणं अप्या दव्वत्ति उवदेसो ।। ८७ ॥
अन्वयार्थ - द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायें 'अर्थ' नाम से कही गई हैं। उनमें गुण-पर्यायों का आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायों का स्वरूप -सत्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं है) इसप्रकार (जिनेन्द्र का) उपदेश
उपरोक्त गाथा के भावार्थ में इस विषय को निम्नप्रकार से और भी स्पष्ट किया है_ “यहाँ संक्षेप में यह बताया है कि जिन शास्त्रों में पदार्थों की व्यवस्था किंसप्रकार कही गई है। जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि अर्थ (पदार्थ) अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय, इसके अतिरिक्त विश्व में दूसरा कुछ नहीं है, और इन तीनों में गुण और पर्यायों का आत्मा (उसका सर्वस्व) द्रव्य ही है। ऐसा होने से किसी द्रव्य के गुण और पर्याय अन्य द्रव्यं के गुण और पर्यायरूप किंचित्मात्र नहीं होते, समस्त द्रव्य अपने-अपने गुण और पर्यायों में रहते हैं। - ऐसी पदार्थों की स्थिति मोह क्षय के निमित्तभूत पवित्र जिनशास्त्रों में कही है।"
ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन प्रारम्भ करने से पूर्व आचार्य महाराज प्रारम्भ में ही ज्ञेयतत्त्व का स्वरूप प्रकाशित करते हैं कि -
___ “अब, ज्ञेयतत्त्व का प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं। उसमें प्रथम पदार्थ का सम्यक् (यथार्थ) द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप का वर्णन करते हैं।
अत्यो खलु दव्यमओ दव्याणि गुणप्पगाणिभणिदाणि। तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥ ९३ ॥
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