Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १४५ जो समस्त लोक है उसे वास्तव में, उसमें अंत:पाती होने पर भी, अचिन्त्य ऐसी स्वपर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इसप्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है. • इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है । " ―― समयसार कलश २७१ के भावार्थ में भी इसका समर्थन है । “ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होने से ज्ञानस्वरूप है और वह स्वयं ही निम्नप्रकार से ज्ञेयरूप है । बाह्यज्ञेय ज्ञान से भिन्न है, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते: ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है परन्तु वे ज्ञान की ही तरंगें हैं । वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात होती हैं । इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है, और स्वयं ही अपना जानने वाला होने से ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है । इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता - तीनों भावों से युक्त सामान्य विशेष स्वरूप वस्तु है । 'ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' इसप्रकार अनुभव करने वाला पुरुष अनुभव करता है।” I - इन इसप्रकार स्पष्ट समझ में आता है कि मेरा ज्ञानतत्त्व अर्थात् ज्ञायक तो अकेला मेरा त्रिकाली तत्त्व आत्मा ही है और ज्ञेयतत्त्व के रूप में तो मेरे आत्मा सहित सारा लोक अलोक है । लेकिन मेरा ज्ञानतत्त्व तो अन्य किसी द्रव्य में है ही नहीं, मात्र मेरे में ही है, अतः मेरा ज्ञानतत्त्व तो मैं स्वयं ही हूँ। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी रह जाता है वह सबका सब ज्ञेयतत्त्व ही है । इसप्रकार ज्ञानतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व के यथार्थ ज्ञान श्रद्धान के द्वारा ही आत्मानुभव की प्राप्ति होती है। ऐसा प्रवचनसार गाथा १२९ की उत्थानिका में भी कहा है। "अब इसप्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय (निर्णय) से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्धआत्मतत्त्व की उपलब्धि (अनुभव, प्राप्ति होती है । ” आत्मा ही ज्ञानतत्त्व के साथ ज्ञेयतत्त्व कैसे हो सकता है ? प्रश्न एक ही द्रव्य ज्ञानतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व दोनों कैसे हो सकता The 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194