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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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(शुद्धोपयोग) निर्विकल्प दशा जल्दी-जल्दी आने लगती है तथा प्रगाढ़ता बढ़ती जाती हैं और स्थिर रहने की काल मर्यादा भी बढ़ती जाती है । इसके फलस्वरूप ऐसा अमूल्य क्षण प्राप्त हो जाता है कि ज्ञानी का उपयोग स्व में ऐसा लीन (स्थिर) हो जाता है कि बाहर ही नहीं निकलता, वही पूर्णदशा अर्थात् अरहंतदशा है। इसप्रकार ज्ञानी अपने अमूल्य जीवन को सफल बना लेता है और सादि अनन्त काल तक अनाकुल आनन्द का उपभोग करता रहता है । धन्य हो वह क्षण । ज्ञानी की निरन्तर भावना रहती है कि
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अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥ टेक ॥ कब होऊँगा बाह्यान्तर निर्ग्रन्थ में। सब प्रकार के मोहबन्धन को तोड़कर, कब विचरूँगा महत् पुरुष के भव्य दिगम्बर मुनि मुद्रा को अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु परभावों से उदासीनता मात्र देह तो हो संयम हित साधना । अन्य किसी कारण से भी अन्य न ग्राह्य हो, हो न देह के प्रति ममत्व की भावना ।। यह वैराग्य हृदय में जब बस जाएगा, अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आएगा ॥ २ ॥ एकाकी विचरूँ निर्जन शमशान में, वन पर्वत में मिले सिंह संयोग जो । आसन रहे अडोल न मन में क्षोभ हो, परममित्र मम जानूँ पाये योग से ॥ निजस्वरूप की लीनता नहिं भंग हो,
पन्थ में ॥ पाएगा, आएगा ॥ १ ॥ ही रहे,
अपूर्व अवसर ऐसा कब प्रभु आयेगा ॥३॥
उपरोक्त समस्त कथन का सारांश यह है कि आत्मा की ज्ञानक्रिया किसी प्रकार भी दोष की उत्पादक नहीं है, साथ ही परज्ञेय अथवा परज्ञेयों
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