Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 121
________________ १२० ) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ “प्रश्न - यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग किस कारण से होता है? उत्तर - किसी भी कारण से नहीं होता। प्रश्न - तब फिर राग की खान (उत्पत्ति स्थान) कौनसी है? उत्तर - राग-द्वेष-मोहादि, जीव के अज्ञानमय परिणाम हैं अर्थात् जीव का अज्ञान ही रागादि को उत्पन्न करने की खान है।" इस ही का समर्थन कलश २१८ की टीका में किया है कि - “इस जगत में ज्ञान (आत्मा) ही अज्ञानभाव से रागद्वेषरूप परिणमित होता है” तथा कलश २२० में भी कहा है कि “इस आत्मा में जो गगद्वेष आदि दोषों की उत्पत्ति होती है उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है।” इसप्रकार निश्चित होता है कि ज्ञान तो राग का उत्पादक है ही नहीं; ज्ञानस्वरूपी आत्म में अपनापना मानना छोड़ देना अर्थात् मैं ज्ञानस्वरूपी आत्मा ही हूँ ऐसी श्रद्धा को छोड़ देने स्वरूप अज्ञानता ही राग की उत्पादक है। . वास्तव में अज्ञानी का भी ज्ञान रागादि का उत्पादक नहीं है. । शन तो स्वाभाविक भाव है और रागादि तो विकारीभाव हैं। क्रोध की उत्पत्ते काल में भी ज्ञान का उत्पादन साथ ही होता रहता है, दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हुए भी आत्मा में अभेद रहकर भी दोनों अपना-अपना का करते रहते हैं। उसका प्रमाण है कि क्रोध का अभाव हो जाने पर भं क्रोध को जानने वाला ज्ञान नष्ट नहीं हो जाता वरन् अपने भिन्न अस्तित्व का प्रकाशन करता रहता है क्योंकि क्रोध का अभाव हो जाने पर भी उस क्रोध की समस्त दशाओं का ज्ञान उस ज्ञान पर्याय में वर्तमानवत् उपस्थित रहता हुआ अनुभव में आता है। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान एवं क्रोध दोनों साथ-साथ उत्पन्न होने पर भी दोनों अलग-अलग ही थे, अत: दोनों का कार्य भी भिन्न-भिन्न ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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