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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१३३
इसप्रकार उपरोक्त आगम के आधार से यह निश्चित होता है कि ज्ञानतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व दोनों के स्वरूपों को यथार्थ समझकर उनकी तथातथ्य (जैसे हैं वैसी) प्रतीति करना ही अज्ञान को दूर करने का एकमात्र उपाय है। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि पूर्ण मनोयोग एवं रुचिपूर्वक उपरोक्त दोनों के स्वरूपों को जैसे भी संभव हो समझकर अपने अज्ञान का अभाव करें।
सर्वप्रथम हमको ज्ञानतत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझकर उसकी श्रद्धा उत्पन्न करना है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि जिस ज्ञानतत्त्व से ज्ञेय तत्त्वों को भिन्न समझना है, उस ज्ञानतत्त्व का स्वरूप ही जब तक स्पष्टत: जानने एवं प्रतीति में नहीं आवेगा तब तक ज्ञेयों से ज्ञान को भिन्न समझना एवं मानना असंभव है इसलिए ज्ञानतत्त्व का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट समझना चाहिये।
ज्ञानतत्त्व के स्वरूप के संबंध में तो हम ऊपर के प्रकरणों में विस्तार से चर्चा करते आ रहे हैं। उस ही सन्दर्भ में और भी विचार करते हैं।
ज्ञानतत्त्व तो अरहंत के समान ज्ञानतत्त्व भगवान अरहंत का आत्मा है । द्रव्य से देखो तो, गुणों से देखो तो और पर्याय से देखो तो, एक ज्ञान और आनन्द का घनपिण्ड ही है। भगवान अरहंत के ज्ञानतत्त्व की विशेषता यह है कि उसके ज्ञान में स्व के साथ समस्त लोकालोक ज्ञेय के रूप में प्रतिभासित होते हुए भी, परम निराकुलतारूपी आनन्द का रसास्वादन करता हुआ तृप्त बना रहता है।
पण्डित भागचन्दजी ने कहा भी है - अप्रमेय ज्ञेयनि के ज्ञायक नहिं परिणमति तदपि ज्ञेयनि में। देखत नयन अनेक रूप जिमि, मिलत नहीं पुनि निज विषयनि में। निज उपयोग आपने स्वामी गाल दियो निश्चल आपुनि में। है असमर्थ बाह्य निकसनि कौं लवण घुला जैसे जीवन में।
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