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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( १३७
“ यह मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य हैं: उसका उदय कलुष ( मलिन) भावरूप है: यह भाव भी, मोहकर्म का भाव होने से, पुद्गल का ही विकार है। यह भावक का भाव जब चैतन्य के उपयोग के अनुभव में आता है तब उपयोग भी विकारी होकर रागादिरूप मलिन दिखाई देता है ।”
इसही का समर्थन समयसार गाथा ३४४ की टीका के अन्तिम चरण में इसप्रकार मिलता है
" इसलिए ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादि काल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञानरूप ज्ञान परिणाम को करता है । (अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञान का परिणमन है उसको करता है ।) "
समयसार गाथा २४१ की टीका के अन्त में भी इस ही सिद्धान्त को निम्न शब्दों में स्वीकार किया है
" इसलिए न्यायबल से ही यह फलित हुआ कि उपयोग में रागादिकरण (अर्थात् उपयोग में रागादि का करना) बन्ध का कारण है।”
उपरोक्त समस्त प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि अज्ञानी का उपयोग क्रोध पर्याय के ज्ञान के समय पर में एकत्व होने से अपने को क्रोधी ही अनुभव करता है । ज्ञानी इससे विपरीत अपने ज्ञायक से एकत्वपूर्वक ज्ञान करने से पर्याय में स्थित क्रोध का ज्ञान होते हुए भी वह अपने को ज्ञाता बनाये रखता है । अज्ञानी को अनादि काल से पर के साथ मित्रता प्रेम होने से वह अपने स्वामी को छोड़कर परसंबंधी ज्ञेयाकारों को जानने में व्यस्त हो जाता है । यही अज्ञान की लीला है ।
प्रश्न
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दुःख की उत्पत्ति कैसे ?
जब ज्ञान पर्याय का कार्य ही स्व-पर को जानना है तो
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