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( सुखी होने का उपाय भाग-४ गंभीरता से विचार करें तो मेरे आत्मा के ज्ञान में जिसप्रकार परद्रव्य ज्ञेय बनते हैं, उसही प्रकार मेरी पर्याय भी ज्ञेय बनती है। जानने की प्रक्रिया में अन्तर नहीं पड़ता है? ज्ञान की पर्याय जब भी परलक्ष्यपूर्वक परिणमती है तब जिसप्रकार परद्रव्यों संबंधी ज्ञेयाकारों को परज्ञेय के रूप में जानती है, उसीप्रकार ज्ञान की पर्याय जब स्वलक्ष्यपूर्वक परिणमती है तब स्वज्ञेय (ध्रुव भाव) के ज्ञेयाकार को स्वज्ञेय के रूप में जानती है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा की ज्ञान पर्याय को, परद्रव्य अथवा स्वद्रव्य अथवा स्वयं की पर्याय, ज्ञेयरूप से ज्ञात होने में, कोई अन्तर नहीं है। जानने की प्रक्रिया तो दोनों के लिए समान ही है।
प्रश्न - परद्रव्य संबंधी ज्ञेयाकारों में तन्मय होने की चेष्टा में असफल होने से आकुलता होती है यह तो ठीक है, लेकिन अपने ही द्रव्य के परिणामों (पर्यायों) के ज्ञान के समय भी आकुलता क्यों उत्पन्न होती है।
उत्तर - ज्ञान पर्याय जब भी ज्ञेयाकारों को एकत्वपूर्वक (अपनेपन पूर्वक ) ज्ञेय बनाती है तो वह जो उस रूप ही अपने आपको मानने लगती है अर्थात् क्रोध के ज्ञान के समय, अज्ञानी अपने को क्रोधी मान लेता है। क्रोध के साथ आकुलता होने से, अपने को आकुलित मानने लगता है। ज्ञानी आत्मा उस ही क्रोध के ज्ञान के समय, स्व के साथ एकत्वपूर्वक वर्तने के कारण, क्रोध से भिन्न अपने को ज्ञायक मानता है। ज्ञानी को स्वभाव के साथ एकत्व वर्तते हुए भी जब उसमें एकाग्र होता है, उससमय अज्ञानी के समान क्रोध का ज्ञान भी उसे आकुलित नहीं कर सकता। अज्ञानी को ज्ञानतत्त्व की श्रद्धा, ज्ञान नहीं वर्तने से वह क्रोध के ज्ञान के समय अपने को क्रोधी मान लेता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा को जिसप्रकार परद्रव्य संबंधी ज्ञेयाकार पर है, परद्रव्य है; उसीप्रकार स्वयं की क्रोधादि पर्याय संबंधी ज्ञेयाकार भी अपने से भिन्न पर ही हैं, कोई अन्तर नहीं है। इसही विषय को समयसार ग्रन्थ की गाथा ३६ के भावार्थ में निम्नप्रकार स्पष्ट किया है
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