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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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करके, इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि मेरा सुख मेरे में ही है, वह अन्य कहीं से भी प्राप्त होने वाला नहीं है। परसंबंधी ज्ञेयाकार तो प्रतिभासित हुए बिना रहेंगे नहीं, लेकिन उनसे किंचितमात्र भी मित्रता की जावेगी, अपनापन माना जावेगा तो मुझे अपने ज्ञानतत्त्व का विरह होना स्वाभाविक है; फलतः अनाकुलित सुख का भी विरह हो जावेगा । इसप्रकार परसंबंधी ज्ञेयाकारों की मित्रता मात्र ही मेरे को अत्यन्त हानि पहुँचाने वाली है। आत्मस्वभाव से अनभिज्ञ प्राणी आकुलता की कमी को अपनी मिथ्या कल्पना से सुख मानकर संतोष कर लेता है । इसप्रकार आत्मस्वभाव को भूलकर पर में से सुख प्राप्त करने के लिए असफल झपट्टे मार-मारकर निरन्तर दुःख का वेदन करता रहता है ।
इसलिए ज्ञानतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को एवं उसकी कार्यप्रणाली को पूर्ण निष्ठा के साथ समझकर, अपने में ही अपना सुख है ऐसी दृढ़तम श्रद्धा के बल से, पर के प्रति अपनापन छोड़कर, अत्यन्त मध्यस्थ रहते हुए अपनी ज्ञान पर्याय को अपने ज्ञानतत्त्व में ही समेटकर, उससे बाहर निकलने का अवकाश ही नहीं देना ही एकमात्र आत्मशान्ति का उपाय है। इसको ही जिनवाणी में शुद्धोपयोग कहा है। इसही में परम निराकुल शान्ति है ।
प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार के अन्त में श्लोक ५ में निम्नप्रकार बताया है
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" इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्य आनन्द के प्रसार से सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्द के प्रसार से रसयुक्त) मेरे ज्ञानतत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण दैदीप्यमान, ज्योतिर्मय और सहज रूप से विलसित ( स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्नदीपक की भांति निष्कंप-प्रकाशमय शोभा को पाता है । (अर्थात् रत्नदीप की भाँति स्वभाव से ही निष्कंपतया अत्यन्त प्रकाशित होता - जानता रहता है ।) "
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